हमारी पृथ्वी कैसी है? यह अपने में किन चीजों को समाहित किये हुए है? पृथ्वी का भविष्य क्या होगा और मनुष्य को पृथ्वी के तत्वों के साथ कैसा बर्ताव करना चाहिए? मानव सभ्यता की उच्च आकांक्षाओं के कारण हमारी पृथ्वी में बहुत भारी उथल-पुथल चल रही है। सबसे बढ़कर जलवायु परितर्वन का साया हमारे ऊपर मंडरा रहा है। प्रकृति की अनिश्चिततओं को जानना हमारे लिए एक कठिन चुनौती है। मानवता के इन कठिन मामलों को समझने के लिए भारत सरकार का पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय (एमओईएस) भारत और विदेशों में वैज्ञानिक अनुसंधान में संलग्न है और पिछले तीन वर्षों में इसने विशिष्ट उपलब्धियां हासिल की हैं।
4000 मीटर की ऊंचाई पर बसे हिमालच प्रदेश के स्पीति में एक शोध केन्द्र स्थापित किया गया है। इस केन्द्र का नाम हिमांश है, जो हिमालय के ग्लेशियरों पर अध्ययन करता है। हिमाशं का शाब्दिक अर्थ है बर्फ का टुकड़ा। चन्द्रा नदी के 130 किलोमीटर की दूरी में पांच स्थानों पर जलस्तर रिकॉर्ड करने तथा हाइड्रोलोजिक संतुलन मापने के लिए केन्द्र स्थापित किये गये हैं। क्षेत्रीय लेजर स्केनर और मानवरहित हवाई वाहनों से ग्लेशियर की गति तथा बर्फ आच्छादन में आए बदलाव का सर्वे किया जा सकेगा और इसका डिजिटलीकरण किया जाएगा।
इसके अतिरिक्त द्रव्यमान संतुलन जानने के लिए छह ग्लेशियरों पर 150 क्षरण खम्भे स्थापित किये गये हैं। इससे जलवायु परिवर्तन के संबंध में भी जानकारी प्राप्त होगी। भूमि प्रतिच्छेदी रडार द्रव्यमान और आयतन की गणना कर रहा है, जो द्रव्यमान संतुलन के बारे में जानकारी उपलब्ध कराएगा। हिमांश स्वचालित मौसम केन्द्र, स्टीम ड्रील, जीपीएस, धारा को मापने के लिए यंत्र के अलावा अन्य आधुनिक वैज्ञानिक उपकरणों से लैस है।
भारत की पहली बर्फ वेधशाला (मूरर्ड अर्ब्जवेट्ररी) आर्कटिक में पानी के 180 मीटर नीचे स्थापित की गई है। यह वेधशाला सर्दियों के मौसम में भी पृथ्वी की सतह के नीचे के आंकड़े एकत्र कर सकती है, जब ऊपरी सतह पर बर्फ जम गई हो। लम्बे समय तक आंकड़ों के संग्रह से जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाली प्राकृतिक प्रक्रियाओं में बदलाव तथा भारतीय उपमहाद्वीप पर वायुमंडलीय प्रक्रियाओं को जानने में सहायता मिलेगी।
वैज्ञानिक और आम आदमी सभी यह जानने को उत्सुक रहते हैं कि पृथ्वी के अंदर क्या है? इसकी झलक कैसी है? पिछले वर्ष भारत के बोरहोल भूविज्ञान अनुसंधान प्रयोगशाला ने महाराष्ट्र के कोयना में पृथ्वी के क्रर्स्ट का वैज्ञानिक गहरा प्रतिच्छेदन प्रारंभ किया और इसका पायलट बोरहोल 2662 मीटर की गहराई तक पहुंच गया। इस अध्ययन से पृथ्वी के अंदर विशाल जल भंडार भूकंप को किस तरह प्रभावित करते हैं, को जानने में मदद मिलेगी। इससे भूकंप के पूर्वानुमान का मॉडल विकसित करने में भी सहायता मिलेगी।
पहली बार 2015 में अंतर्राष्ट्रीय महासागर ड्रिलिंग कार्यक्रम के तहत अरब सागर में गहरे समुद्र की ड्रिलिंग की गई। यह पर्वत निर्माण, मौसम, अपरदन और जलवायु के विकास के अध्ययन के उद्देश्य से किया गया था। इसके अतिरिक्त भारत और सेशल्स के बीच महाद्वीपीय विखंडन और इसका दक्षिण के पठार के ज्वालामुखीय आवरण से संबंध अध्ययन के विषय थे।
ध्रुवीय अनुसंधान में भारत के वैज्ञानिक योगदान और प्रयासों को मान्यता देने के तहत आर्कटिक परिषद में देश को पर्यवेक्षक का दर्जा प्राप्त हुआ है। भारत का अंटार्कर्टिक वैज्ञानिक अभियान के 35वें और 36वें संस्करण में विभिन्न संगठनों के सदस्य शामिल हुए थे। ये संगठन ऊपरी वायुमंडल, खगोल भौतिकी, भूभौतिकी, मौसम विज्ञान, ग्लेसिओलॉजी, भूविज्ञान, जीव विज्ञान, पर्यावरण विज्ञान, मानव शरीर विज्ञान और चिकित्सा क्षेत्रों में कार्य करते हैं। पिछले वर्ष जलवायु परितर्वन और ग्लेशियर अध्ययन पर विशेष बल दिया गया था। भारत ने तीसरा स्थायी अनुसंधान केन्द्र स्थापित किया है, जिसका नाम भारती है। इसने ग्लेशियर, वायुमंडल, जलवायु और ध्रुवीय जीवविज्ञान का अध्ययन प्रारंभ कर दिया है।
2015 में ध्रुवीय क्षेत्र में रिमोर्ट से संचालित वाहन का शुभारंभ किया गया, जो अंटार्कटिक में जलस्तर के 100 मीटर नीचे है। यह एक तकनीकी उपकरण है, जो धु्वीय क्षेत्रों में जलस्तर के 500 मीटर नीचे तक के क्षेत्रों में अन्वेषण कर सकता है। 2016 में इसे अंडमान, प्रवाल द्वीपों में सफलतापूर्वक स्थापित किया गया था और इस वाहन ने प्रवाल जैव विविधता की उच्चस्तरीय विजुअल प्रदान किये थे।
भारत, अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी के महासागर ऊर्जा प्रणाली (आईईए-ओईएस) का सदस्य बना। इसके साथ ही भारत को पूरे विश्व में तकनीकी और अनुसंधान दलों के साथ सहयोग बढ़ाने में मदद मिली। पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय ने अंतर्राष्ट्रीय समुद्र तल प्राधिकरण (आईएसए) के साथ 15 वर्षों का समझौता किया है। इससे भारत को हिंद महासागर में बहु-धात्विक सल्फाइड (पीएमएस) के अन्वेषण में मदद मिलेगी। आईएसए का गठन महासागर के नियमों के समझौते (कन्वेंशन ऑन लॉ आफ द सी) के अंतर्गत हुआ है, जिसका सदस्य भारत भी है।
पृथ्वी विज्ञान आम लोगों को सलाह देता है, जैसे मौसम, चक्रवात और मानूसन की भविष्वाणी। इससे न सिर्फ कृषि, बल्कि जल संसाधन, विद्युत उत्पादन, परिवहन और भारतीय अर्थव्यवस्था को अत्याधिक लाभ प्राप्त हुआ है।
भारत में मछुआरे अपने अनुमान पर भरोसा करते रहे हैं, जिससे वे मछलियों की कम मात्र प्राप्त कर पाते हैं। राष्ट्रीय महासागर सूचना सेवा केन्द्र (आईएनसीओआईएस) मछुआरों को प्रति दिन संभावित मत्स्य क्षेत्र की जानकारी उपलब्ध कराता है, ताकि वे उन क्षेत्रों की पहचान कर सकें, जहां मछलियां बहुतायद में हैं। विभिन्न सैटलाइट के माध्यम से उपलब्ध आंकड़ों के आधार पर दिशानिर्देश युक्त नक्शे बनाए जाते हैं। इन दिशा निर्देश युक्त नक्शों में भारत के विशेष आर्थिक क्षेत्र (ईईजेड) की सीमा रेखा के संबंध में जानकारी होती है, ताकि मछुआरे इसे और समुद्र की सतह पर चलने वाली धाराओं से दूर रह सकें।
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के साथ मिलकर पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय देश के 608 जिलों में स्थित 130 कृषि-मौसम-जोन के 21 मिलियन किसानों को क्षेत्रीय भाषाओं में कृषि व मौसम संबंधी सुझाव प्रदान कर रहा है।
विश्व मौसम संगठन (डब्ल्यूएमओ) ने पुणे स्थित भारतीय मौसम विभाग (आईएमडी) के जलवायु केन्द्र को दक्षिण एशिया के देशों को क्षेत्रीय जलवायु सेवाएं प्रदान करने के लिए क्षेत्रीय जलवायु केन्द्र के रूप में मान्यता दी है। भारतीय मौसम संस्थान, पुणे के वैज्ञानिकों ने पृथ्वी प्रणाली का एक मॉडल निर्मित किया है, जिसे आगामी छठे आईपीसीसी जलवायु परिवर्तन आकलन प्रक्रिया में भारत के योगदान के रूप में प्रस्तुत किया जाएगा। इस मॉडल का क्षेत्रीय जलवायु परितर्वन स्थितियों के अध्ययन के लिए पुन: उपयोग किया जा सकेगा। इसकी क्षमता 25 किलोमीटर तक है और यह जलवायु प्रभाव के आकलन का अध्ययन करने में सक्षम है।
सरकार के खर्च पर जो वैज्ञानिक उपलब्धियां हासिल होती हैं, वो आम लोगों को लाभ पहुंचाने वाली होनी चाहिए। विज्ञान को सामाजिक सरोकारों से जुड़ा होना चाहिए। वैज्ञानिक अनुसंधानों का लक्ष्य आम लोगों को सुविधा व लाभ पहुंचाना होना चाहिए।
*लेखक वरिष्ठ पत्रकार और रेडियो वृत्तचित्र निर्माता है।
साभार- http://pib.nic.in/ से