किसी भी स्थान के नामकरण के पीछे कोई न कोई कहानी होती है। धार्मिक पर्यटन स्थल पर यह नियम विशेष रूप से लागू होता है। अमरकंटक के ‘धूनी-पानी’ की कहानी भी बड़ी रोचक है। स्वाभाविक ही किसी स्थान के नाम में ‘धूनी’ से आभास होता है कि यह कोई ऐसा स्थल है जहाँ साधु-संन्यासी धूनी रमाते होंगे। ‘पानी’ बताता है कि वहाँ जल का विशेष स्रोत होगा। धूनी और पानी दोनों से मिलकर ही ‘धूनी-पानी’ नामकरण हुआ होगा। श्री नर्मदा मंदिर से श्री नर्मदा मंदिर से दक्षिण दिशा की ओर लगभग 5 किमी की दूरी तय करने पर हम इस स्थान पर पहुँच चुके हैं। यह स्थान चारों ओर से ऊंचे सरई, आम, जामुन और कटहल के पेड़ों से घिरा हुआ है। यहाँ नैसर्गिक प्राकृतिक सौंदर्य पूर्णता के साथ उपस्थित है। शांत-सुरम्य वन के बीच में हमें एक छोटा-सा दोमंजिला मंदिरनुमा भवन दिखाई दिया। आज इसी भवन में ‘धूनी’ रमा कर साधु बैठते हैं। पूर्व में कभी आसमान के नीचे साधु खुले में धूनी रमाते रहे होंगे, बाद में बारिश से बचने के लिए भवन बना लिया। पास में ही यहाँ जलकुण्ड दिखाई देते हैं, जो यहाँ के साधुओं के लिए ‘पानी’ के स्रोत हैं। नर्मदा परिक्रमावासियों के लिए भी यहाँ स्थान बना हुआ है। जहाँ वे ठहर सकते हैं और भोजन इत्यादि बना-खा सकते हैं। माँ नर्मदा की परिक्रमा के दौरान परिक्रमावासी यहाँ आते ही हैं। उन दिनों इस स्थान पर विशेष चहल-पहल रहती है। सामान्य दिनों में भी यहाँ बैठ कर प्रकृति के सान्निध्य और उसके ममत्व से उत्पन्न आनंद की सहज अनुभूति की जा सकती है।
जून का एक दिन था, जब हम ‘धूनी-पानी’ पहुँचे थे, तब एक संत यहाँ धूनी रमा कर बैठे थे। वैसे तो अमरकंटक वनप्रदेश होने के कारण अपेक्षाकृत ठंडा रहता है, फिर भी मई-जून की गर्मी के भी अपने तेवर हैं। धूनी के पास संत रामदासजी महाराज अन्य साधुओं से थोड़ा अलग ही दिखाई दे रहे थे। उनके समीप कुछ पुस्तकें रखी थीं। यहाँ बैठकर वह माँ नर्मदा की स्तुति में गीत और कविताएं रच रहे हैं। मंदिर के भीतर मन को प्रसन्न करने वाली माँ नर्मदा की मोहक प्रतिमा तो थी ही, पूजा के आले में युवा नायक स्वामी विवेकानंद का चित्र भी रखा था। उनके गुरु स्वामी रामकृष्ण परमहंस और माँ शारदा का चित्र भी सुशोभित हो रहा था। स्वामी विवेकानंद ऐसे संन्यासी रहे, जिन्होंने सोये हुए राष्ट्र का गौरव जगाया, जिन्होंने भारतीय संस्कृति की ध्वजा विश्व पटल पर फहराई। निश्चित ही हमारे संन्यासियों को स्वामी विवेकानंद के संन्यास जीवन को अपना आदर्श बनाना चाहिए।
अपन राम ने धूनी के पास बैठकर काफी देर तक उदासीन संत रामदासजी महाराज के साथ लंबा सत्संग किया। बहुत आनंद आया। उन्होंने यह भी बताया कि अपनी युवावस्था में वह घोर कम्युनिस्ट हुआ करते थे, एकदम नास्तिक, धर्म को अफीम मानने वाले, किंतु आज वह आध्यात्मिक जीवन जी रहे हैं। उन्होंने ही बताया कि किसी समय में भृगु ऋषि ने यहाँ धूनी रमा कर तपस्या की थी। यहाँ पानी का स्रोत नहीं था। उन्हें पानी लेने के लिए थोड़ी ही दूर स्थित ‘चिलम पानी’ जाना पड़ता था। पानी लेने जाने में संभवत: उन्हें कष्ट नहीं भी होता होगा किंतु जंगल के जीव-जन्तु जो भृगु ऋषि के साथी भी थे, उन्हें भी पानी के लिए भटकना पड़ता था। अपने साथियों की सुविधा के लिए उन्होंने जल स्रोत के लिए माँ नर्मदा से प्रार्थना की, तब ‘धूनी’ के समीप ही पाँच जल स्रोत फूट पड़े। यह भारतीय संस्कृति का आधार है कि यहाँ सिर्फ अपने बारे में विचार नहीं किया जाता, बल्कि प्राणी मात्र की चिंता रहती है। आज भी यहाँ पानी के वे कुण्ड हैं। भवन के दाहिनी ओर अमृत कुण्ड और बांई ओर सरस्वती कुण्ड है। इन दोनों कुण्डों के अलावा तीन छोटे कुण्ड भी हैं- भृगु कुण्ड, नारद कुण्ड और मोहान कुण्ड। माँ नर्मदा की कृपा से धूनी के समीप पाँच जलस्रोत के प्रकट होने के कारण ही इस स्थान का नाम धूनी-पानी पड़ गया। यहाँ फलों-फूल के पेड़ों से समृद्ध बगीचा भी है। संत रामदासजी महाराज ने उस दिन हमें खूब सारे मीठे आम दिए, जो यहीं के पेड़ो से टपके थे। धूनी-पानी के संबंध में एक और महत्व की बात है। ऐसा कहा जाता है कि यहाँ अनेक ऋषि-मुनियों ने यज्ञ किये थे, इसलिए आज भी यहाँ जमीन की खुदाई करने पर राख जैसी मिट्टी निकलने लगती है।
धूनी-पानी धार्मिक तपस्थली ही नहीं, अपितु प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण स्थान भी है। निश्चित ही प्रकृति प्रेमियों को यहाँ आना सुख देगा। उनके लिए यह स्थान अत्यधिक आनंददायक है। शांत चित्त से यहाँ बैठकर अच्छा समय बिताया जा सकता है। मैं जब यहाँ से लौट रहा था, तो आँखों में माँ नर्मदा की मोहक छवि थी, ध्यान में स्वामी विवेकानंद का जीवन था और कुछ किस्से थे जो उदासीन संत रामदासजी महाराज ने सुनाए थे। थैले में मीठे आम भी थे। प्रकृति का स्नेह भी थोड़ा समेट लिया था। अंतर्मन की वह गूँज भी साफ सुनाई दे रही थी कि भविष्य में जब भी अमरकंटक प्रवास होगा, धूनी-पानी अवश्य आऊंगा।
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