बात 1880 के अक्टूबर नवम्बर की है। बनारस की एक रामलीला मण्डली रामलीला खेलने तुलसी गांव आयी हुई थी।
मण्डली में 22-24 कलाकार थे, जो गांव के ही एक आदमी के यहाँ रुके थे, वहीं सभी कलाकार रिहर्सल करते और खाना बनाते खाते थे।
पण्डित कृपाराम दूबे उस रामलीला मंडली निर्देशक थे, वे हारमोनियम पर बैठ के मंच संचालन करते थे और फौजदार शर्मा साज-सज्जा और राम लीला से जुड़ी अन्य व्यवस्था देखते थे…।
एक दिन पूरी मण्डली बैठी थी और रिहर्सल चल रहा था! तभी पण्डित कृपाराम दूबे ने फौजदार से कहा… इस बार वो शिव धनुष हल्की और नरम लकड़ी की बनवाएं, ताकि राम का पात्र निभा रहे 17 साल के युवक को परेशानी न हो..
पिछली बार धनुष तोड़ने में समय लग गया था…!
इस बात पर फौजदार कुपित हो गया, क्योंकि लीला की साज-सज्जा और अन्य व्यवस्था वही देखता था.. और पिछला धनुष भी वही बनवाया था…!
इस बात को लेकर पण्डित जी और फौजदार में कहा सुनी हो गई..।
फौजदार पण्डित जी से काफी नाराज था और पंडित जी से बदला लेने को सोच लिया था…।
संयोग से अगले दिन सीता स्वयंवर और शिव धनुष भंग का मंचन होना था…।
फौजदार, मण्डली जिसके घर रुकी थी उनके घर गया और कहा, रामलीला में लोहे के एक छड़ की जरूरत आन पड़ी है, दे दीजिए…..?
गृहस्वामी ने उसे एक बड़ा और मोटा लोहे का छड़ दे दिया ! छड़ लेके फौजदार दूसरे गांव के लोहार के पास गया और उसे धनुष का आकार दिलवा लाया।
रास्ते मे उसने धनुष पर कपड़ा लपेटकर और रंगीन कागज से सजा के गांव के एक आदमी के घर रख आया…!
रात में रामलीला शुरू हुआ तो फौजदार ने चुपके से धनुष बदल दिया और लोहे वाला धनुष ले जा के मंच के आगे रख दिया और खुद पर्दे के पीछे जाके तमाशा देखने के लिए खड़ा हो गया…।
रामलीला शुरू हुई पण्डित जी हारमोनियम पर राम-चरणों मे भाव विभोर होकर रामचरित मानस के दोहे का पाठ कर रहे थे…
हजारों की संख्या में दर्शक शिव-धनुष भंग देखने के लिए मूर्तिवत बैठे थे…
रामलीला धीरे-धीरे आगे बढ़ रही थी..! सारे राजाओं के बाद राम जी गुरु से आज्ञा ले के धनुष भंग को आगे बढ़े…।
पास जाके उन्होंने जब धनुष हो हाथ लगाया तो धनुष उससे उठी ही नही..।
कलाकार को सत्यता का आभास हो गया.. उस 17 वर्षीय कलाकार ने पंडित कृपाराम दूबे की तरफ कातर दृष्टि से देखा तो पण्डित जी समझ गए कि दाल में कुछ काला है…!
उन्होंने सोचा कि आज इज्जत चली जायेगी.. हजारों लोगों के सामने.. और ये कलाकार की नहीं, स्वयं प्रभु राम की इज्जत दांव पर लगने वाली है..!
पंडित जी ने कलाकार को आंखों से रुकने और धनुष की प्रदक्षिणा करने का संकेत किया और स्वयं को मर्यादा पुरुषोत्तम के चरणों में समर्पित करते हुए आंखे बंद करके उंगलियां हारमोनियम पर रख दी और राम जी की स्तुति करनी शुरू….
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जिन लोगों ने ये लीला अपनी आँखों से देखी थी बाद में उन्होंने बताया कि, इस इशारे के बाद जैसे ही पंडित जी ने आँखें बंद करके हारमोनियम पर हाथ रखा..
हारमोनियम से उसी पल दिव्य सुर निकलने लगे… वैसा वादन करते हुए किसी ने पंडित जी को कभी नहीं देखा था…
सारे दर्शक मूर्तिवत हो गए… नगाडे से निकलने वाली परम्परागत आवाज भीषण दुंदभी में बदल गयी..
पेट्रोमेक्स की धीमी रोशनी बढ़ने लगी और पूरा पंडाल अद्भुत आकाशीय प्रकाश से रह रह के प्रकाशमान हो रहा था…
दर्शकों के कुछ समझ में नही आ रहा था कि क्या हो रहा है और क्यों हो रहा….
पण्डित जी खुद को राम चरणों मे आत्मार्पित कर चुके थे और जैसे ही उन्होंने चौपाई कहा—
लेत चढ़ावत खैंचत गाढ़ें।
काहुँ न लखा देख सबु ठाढ़ें॥
तेहि छन राम मध्य धनु तोरा।
भरे भुवन धुनि घोर कठोरा।।
पण्डित जी के चौपाई पढ़ते ही आसमान में भीषण बिजली कड़की और मंच पर रखे लोहे के धनुष को कलाकार ने दो भागों में तोड़ दिया..
लोग बताते हैं हैं कि, ये सब कैसे हुआ.. और कब हुआ.. किसी ने कुछ नही देखा, सब एक पल में हो गया…
धनुष टूटने के बाद सब स्थिति अगले ही पल सामान्य हो गयी!
पण्डित जी मंच के बीच गए, और टूटे धनुष और कलाकार के सन्मुख दण्डवत हो गए….
लोग शिव धनुष भंग पर जय श्री राम का उद्घोष कर रहे थे.. और पण्डित जी की आंखों से श्रद्धा के आँसू निकल रहे थे…
राम “सबके” हैं… एक बार “राम का” होकर तो देखिए….