Thursday, November 28, 2024
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सात समंदर पार हिंदुत्व का गौरव अंकोरवाट मंदिर

सूर्यवर्मन द्धितीय ने भगवाल विष्णु को समर्पित अंकोरवाट नामक मंदिर की स्थापना राष्ट्र मंदिर के रूप में की थी। आज यह अंकोरवाट मंदिर कम्बुज देश की अस्मता है। विश्व में केवल अंकोरवाट ऐसा मंदिर है जो किसी देश के राष्ट्रीय ध्वज में विराजमान है। मनुस्मृति नामक दार्शनिक ग्रंथ ने अंकोरवाट को दार्शनिक आधार दिया है। अर्ध शताब्दी पूर्व जब मेरे पिताजी ने अंकोरवाट का चित्र दिखाए और बताया कि यह संसार का सबसे बड़ा विष्णु मंदिर है जो कम्बोडिया में स्थित है, और आज मानव और प्रकृति दोनों कारणों से यह जीर्ण—शीर्ण अवस्था में है। मेरे मन में एक ही प्रश्न उठा कि कब इसमें श्रद्धा के दीप जलेंगे। आज वह दिन आ गया है। हृदय हर्ष एवं भाव से विभोर हो उठा है भारत और कंबोडिया के संबंधो में एक नया इतिहास अंकित होने जा रहा है। धन्य हैं वे सभी जो इस पुण्य कार्य करने में जुटे हुए हैं।

कंबोडिया अर्थात कम्बुज देश में पांचवें धाम की स्थापना भारत का ऐतिहासिक स्वप्न रहा है। यह मंदिर अंकोरवाट विश्व का सबसे बड़ा मंदिर था जहां से शेषषयी भगवान विष्णु की विशाल मूर्ति के खंड प्राप्त हुए हैं। इस मंदिर से प्राप्त संस्कृत के शिलालेखों से उसका इतिहास ज्ञात होता हैं। मंदिर की दीवारों पर रामायण और महाभारत के कथानक उत्कीर्ण है। यह वही अंकोरवाट मंदिर है जिसमें महाभारत के युद्ध का 49 मीटर लंबा दृश्य अंकित है। यहां पर भगवान शिव के साथ साथ विष्णु जी की भी भव्य मूर्ति की स्थापना होनी चाहिए।

अंकोरवाट का यह मंदिर एक वर्ग किलोमीटर में निर्मित है। इसके चारों ओर एक तडाग बनाया गया था क्योंकि इस मंदिर में जाने का अर्थ है विष्णु लोक में जाना, विष्णु लोक में जाने के लिए भवसागर को पार करना आवश्यक है। उसी दर्शन के आधार पर इस तडाग का निर्माण किया गया था, परंतु आज यहां का जल सूख चुका है।

कंबुज देश के साथ हमारे संबंधों का इतिहास दूसरी शताब्दी में आरंभ हो जाता है। 11वीं तथा 12वीं शताब्दी के आते आते कंबुज देश भारतमय हो गया था। जब वहां भारतीय लोग गए तो सबसे पहले उन्होंने भारतीय लिपि के आधार पर कंबुज लिपि का निर्माण किया। एक नई लिपि का निर्माण होते ही एक नवीन पथ उद्घाटित हुआ। कंबुज लोगों ने लिखना और पढऩा आरम्भ किया। इसका प्रमाण हमें स्थान स्थान से उपलब्ध हुए 12000 से अधिक संस्कृत के शिलालेखों से मिलता है। यहां के राजाओं ने अपनी राज्य व्यवस्था को भारतीय शा ों पर आधारित धर्म (नियमों) से सुदृढ़ किया। अपने महान कार्यों को शिलालेखों पर उत्कीर्ण किया। एक ओर वे अपनी विजय यात्राओं की रामायण और महाभारत से तुलना कर उन्हें मंदिरों की भित्तियों पर उत्कीर्ण कर शाश्वत करते रहे तो दूसरी ओर अपने स्वर्णिम इतिहास को संस्कृत भाषा में लिखते रहे। भव्य मंदिरों का निर्माण कर स्वयं को धन्य मानते रहे। जब किसी राजा का राज्यभिषेक होता था तो राज्यभिषेक के लिए एक भव्य मंदिर का निर्माण किया जाता था। उसमें उस देवता की प्रतिमा की स्थापना होती थी जिसका वह राजा भक्त होता था और अंत में उसके मरणोपरांत उसी मंदिर में उस राजा की उसी देवता के रूप में मूर्तिें स्थापित कर दी जाती थी।

आज इन मंदिरों से बड़ी संख्या में मूर्तियां उपलब्ध हुई हैं, जो इनकी श्रद्धा के प्रतीकस्वरूप हमारे समक्ष खड़ी है। 12वीं और 13वीं शताब्दी के लगभग संपूर्ण दक्षिण पूर्व एशिया में विष्णु भक्ति जन जन के हृदय में स्थान बना चुकी थी। ब्रह्मा, विष्णु और शिव में ब्रह्मा सृष्टा हैं तो विष्णु पालनकर्ता। भारतीय परंपरा में राजा को साक्षात् विष्णु माना गया है, क्योंकि एक राजा के लिए विष्णु से बड़ा कोई आदर्श नहीं हो सकता। अत: कंबुज में भी वहां के राजा विष्णु के अवतार के रूप में राज्य करते रहे। कंबुज के शिलालेख इन सभी राजाओं की कथा सुनाते हैं। एक शिलालेख में स्पष्ट वर्णन मिलता है कि मंदिरों में पाठ हेतु भारत से रामायण, महाभारत एवं पुराण मंगवाए जाते थे। इन ग्रंथों के स्वर शताब्दियों तक भव्य मंदिरों में गुंजायमान होते रहे। इन महाकाव्यों से लिए गए कथानक एक ओर ऐतिहासिक घटनाओं के प्रतिमान बने रहे तो दूसरी ओर राजा और राज परिवारों तथा श्रद्धालुओं के लिए जीवन में उच्च आदर्शों का पालन करने हेतु प्रेरणा के स्त्रोत बने रहे।

अंकोरवाट मंदिर भगवान विष्णु का बैकुंठधाम है। अत: इसका निर्माण मानव निर्मित सुमेरू पर्वत पर किया गया। आस्था एवं श्रद्धा उच्च शिखर तक पहुंच गई। राजा सूर्यवर्मन द्धितीय को मरणेापरांत विष्णु लोक में स्थान मिला। उनकी मूर्ति भगवान विष्णु के रूप में स्थापित की गई। इसी में उनका राज्याभिषेक हुआ था। वे सारा जीवन विष्णु भगवान के आदर्शों से प्रेरणा प्राप्त राष्ट्र की उन्नति के कार्यों में जुटे रहे।

विश्व में केवल कंबुज ही एक ऐसा देश है जहां 14वीं शताब्दी तक संस्कृत राजभाषा के रूप में प्रयुक्त होती रही। कंबुज ही एक ऐसा देश है जहां 14वीं शताब्दी तक संस्कृत राजभाषा के रूप में प्रयुक्त होती रही। संस्कृत ने कंबुज भाषा को प्राणवायु दी। उसे भावाभिव्यक्ति के उच्च स्तर तक पहुंचा दिया। आज भी उनकी भाषा में लगभग 60 प्रतिशत शब्द संस्कृत की देन हैं। उदाहरण के लिए कहा जाए तो वे आज भी महीनों को चैत्र, वैशाख आदि नामों से ही पुकारते हैं। जब वहां से उपलब्ध 1200 से अधिक संस्कृत के शिलालेखों में लिखित राजाओं के सब सत्कर्मों के विवरण पढ़ते हैं तो ज्ञात होता है कि वहां के लोग कितनी सुललित एवं उच्च स्तर की संस्कृत लिखने की योग्यता रखते थे। इन कृतियों में अनेक प्रकार के छंद प्रयोग किए गए हैं, जैसे, वसन्ततिलका, शार्दूल, मालिनी, स्रग्धरा आदि। वहां के राजाओं ने बड़े गर्व से भारतीय नाम धारण किए, जैसे सूर्यवर्मन, इंद्रवर्मन, ईशानवर्मन, राजेन्द्रवर्मन आदि। यह परंपरा शताब्दियों तक चलती रही, उन्होंने अपने नगरों के नाम यशेाधरपुर, ताम्रपुर, ध्रुवपुर, विक्रमपुर आदि रखे।

मंदिरों के साथ ब्राहमणों के लिए आश्रम बनवाए गए। यहां के राजा हिंदू राज्य व्यवस्था के अनुसार राज्य चलाते रहे। इनमें मनुस्मृति का सबसे बड़ा स्थान है। एक शिलालेख में पता चलता है कि उन्होंने भारत से मनुस्मृति भी मंगवाई थी। मेरे अनुसंधान के अनुसार अंकोरवाट को दार्शनिक आधार देने वाला ग्रंथ मनुस्मृति ही है।

अंकोरवाट जिस नगर में स्थापित है, उस नगर का प्राचीन नाम था अंकोर अर्थात नगर, राष्ट्रीय राजधानी जिसकी अस्मिता अंकोरवाट में स्थापित हुई। 15वीं शताब्दी में थाई आक्रमण के उपरांत यह मंदिर और इनके चारों ओर का स्थान, यह नगर सभी कुछ निर्जन हो गए, विस्मृति के गर्भ में लीन हो गए, इन्हें प्रकृति के भरोसे छोड़ दिया गया। अंकोरवाट 1860 तक शांत खड़ा रहा। अचानक हेनरी मूहो नामक एक प्रकृति प्रेमी फ्रांसीसी को इसके शिखरों ने निमंत्रण दे डाला। वन में खड़े विशालकाय वृक्षों की जड़ें लगभग चार शताब्दियों से इन्हें समूल उखाडऩे में समर्थ होती रही। अंकोरवाट तथा उसके आसपास बने भव्य मंदिरों की खोज ने विश्व को आश्चर्यचकित कर डाला। एक गौरवमय इतिहास उद्घाटित होने लगा, विद्यवान और पुरातत्ववेत्ता इस विषय पर कार्य करने लगे। अंकोरवाट के हर कोने से, चारों ओर भारतीय धर्म, दर्शन, कला, राज्य व्यवस्था तथा सामाजिकता आदि के दर्शन होने लगे। कहीं कंबोडिया के राजा स्वयं की भगवान कृष्ण से तुलना करने लगे। इस हेतु से नंद ग्राम की रक्षा करते गोवर्धन पर्वत को सभी मित्रों और ग्वालों के सहयोग से गोवर्धन पर्वत उठाते भगवान कृष्ण की मूर्तियां उत्कीर्ण की गर्इं।

कृष्ण रूप में विष्णु महाभारत के समय पांडवों की सहायता हेतु अवतरित हुए। अत: महाभारत युद्ध उनके लिए एक आदर्श बन गया। महाभारत युद्ध के दृश्य का विश्व का सबसे बड़ा 49 मीटर लंबा पैनल आज कंबुज लोगों की शूरता और वीरता से परिपूर्ण राष्ट्रीयता के स्मारक रूप में खड़ा है। अंकोरवाट में कहीं बाली-सुग्रीव युद्ध का चित्रण किया गया है तो कहीं राम-विभीषण के मिलन का, कही राम-रावण युद्ध का चित्रण है, तो कहीं देवी सीता की अग्नि परीक्षा का, कहीं गरूड़वाहन विष्णु तो कहीं समुद्र मंथन से रत्न निकालते देव और असुर, कहीं कैलाश उत्तोलन करते रावण तो कही बाणासुर का वध करते भीम, ऐसे ही चित्रणों से कंबुज भरा पड़ा है। चहुं ओर सशक्त राष्ट्र अपनी सैन्य शक्ति के साथ चरम उत्कर्ष प्राप्त करता दिखाई देता है। यह अंकोरवाट का भव्य मंदिर कंबुज लोगों के लिए केवल धर्म का स्थान ही नहीं था यहां धर्मोदय के साथ साथ राष्ट्रोदय और ज्ञानोदय भी सतत् चलता रहा।

सूर्यवर्मन द्वितीय अपने जीवन के 50 वर्ष तक युद्धों में जुटे रहे और एक सशक्त राष्ट्र को स्थापित करने में सफल हुए। 1980 के दशक में भारत की सरकारों का इस ओर ध्यान आकर्षित हुआ तो उन्होनें अंकोरवाट के जीर्णोद्धार में रुचि ली और उसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। आज पुन: देश में इस दिशा में अभूतपूर्व कार्य किया जा रहा है जो भारत और कंबुज के संबंधों में नींव के पत्थर का कार्य करेगा।

(लेखिका भारतीय विद्या भवन नई दिल्ली में इंडोलोजी विभाग की डीन हैं।)

साभार- https://www.bhartiyadharohar.com/ से

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