परमपिता परमात्मा ने समय समय पर आर्यों की अनेक परीक्षाएं लीं| इनमे सदा ही आर्य कुंदन बनकर निकले| आर्यों की ईश्वर द्वार ली गई ऐसी परीक्षाओं में हैदराबाद सत्याग्रह रूपी परीक्षा भी एक थी| इस परीक्षा में ईश्वर के आदेश से आर्यों को एक माला तैयार करनी थी| इस माला को बनाने के लिए किसी प्रकार के मोती नहीं अपितु बलिदानियों के नर मुंडों को पिरोना था| अपने हाथों से बलिदानियों ने अपने सिर इस माला में पिरोने थे| परमपिता की इस परीक्षा विधी को भी आर्यों ने सहर्ष स्वीकार कर एक के बाद एक, इतने नर मुंड इस माला में पिरो दिए कि मानो परम पिता प्रभु को यह कहने के लिए विवश होना पड़ा “ बस और नहीं”| इस माला को बनाने के लिए जिन आर्य वीरों ने अपना बलिदान देकर अपने शीश भेंट किये, देश व धर्म की बलिवेदी पर बलिदान होने वाले उन वीरों में भक्त अरुडामल जी भी एक थे|
भक्त अरुडामल जी एक कर्मठ आर्य युवक थे तथा आर्य समाज के होने वाले सत्संगों में सदा अपनी उपस्थिति दर्शाते थे| आप वर्तमान पाकिस्तान के सरगोधा नगर के रहने वाले थे| अंग्रेजी कंपनी लूसडाईफल में आप चपरासी के रूप में कार्य करते हुए अपना जीवन यापन कर रहे थे| अत्यधिक मितव्ययी होते हुए भी ऐसे दानी प्रवृति के थे कि कम से कम व्यय खर्च कर वेतन की पूरी की पूरी बचत दान कर देते थे|
सन् १९१० इस्वी में कुंवर सुखलाल जी आर्य मुसाफिर के भजनों को सुनकर नौकरी का त्याग कर दिया तथा खादी प्रचार के कार्य में जुट गए| इन दिनों जिला सरगोधा कांग्रेस के मंत्री पंडित ज्ञानचंद जी आर्य सेवक थे| उन्हीं के नेतृत्व में शराब पर पिकेटिंग लगाकर जेल गए| इस समय आप मुनादी करके अपने जीवन को चला रहे थे तथा सब पंथों के लोगों से प्रेम पूर्वक व्यवहार करते थे| जब भी कभी कोई सेवा का अवसर आता तो आप सेवा के लिए सब से आगे खड़े दिखाई देते थे|
आर्य समाज के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित भक्त अरुडामल जी हैदराबाद में सत्याग्रह का शंखनाद होते ही एक सत्याग्रही जत्थे के साथ सत्याग्रह के लिए हैदराबाद को रवाना हो गए| आप २२ मार्च को तृतीय सर्वाधिकारी म. खुशहाल चन्द जी के साथ गुलबर्गा से सत्याग्रह करके जेल गए| निजामी जेलों की कुव्यवस्था से तो सब परिचित ही हैं| मुस्लिम निजाम हैदराबाद की जेलों में अत्यधिक गंदी व्यवस्था तथा हिन्दुओं को समाप्त करने की निजाम की अभिलाषा के कारण कुछ ही दिनों में आप भयंकर रोग के पाश में आ गए| रोग ने जब भीष्ण रूप ले लिया, बचने की आशा न रही तो आपको अस्पताल भेज दिया गया| अस्पताल में रोग शैय्या पर पड़े हुए भी आप निरंतर वैदिक धर्म की जय के नाद निनादित करते रहते थे| रोग न ठीक हो पाने के कारण सत्याग्रही की मृत्यु होने के दोष से बचने के लिए आपको जेल से रिहा कर दिया गया|
जेल से बाहर आने के पश्चात् जो भी आर्य सज्जन आपका हाल पूछने आता तो आप एक यह ही उत्तर देते थे कि “ मैं धर्म की वेदी पर अपने प्राणों की आहुति देना चाहता था| पता नहीं मुझ में क्या न्यूनता रह गई, जिस के कारण मेरे बलिदान की भेंट को ईश्वर स्वीकार नहीं कर रहा| मैं जेल से बाहर नहीं आना चाहता था किन्तु निजाम सरकार ने मुझे ब्लात् जेल से बाहर निकाल दिया| रुग्ण होने के कारण आप लोग मुझे पुन: जेल जाने की आज्ञा नहीं दे रहे हैं| मेरी समझ में नहीं आता कि मैं क्या करूँ|” यहाँ से वापिस लौटते समय जेल से मिले इस रोग ने आपको घर न पहुँचने दिया और मार्ग में लाहौर में ही आप का १ अगस्त सन १९३९ ईस्वी को देहांत हो गया|
आपके अपने नगर सरगोधा से अत्यधिक संख्या में आर्य लोग शव लेने तथ लाहौर में निकाली जाने वाली शव यात्रा में भाग लेने के लिए लाजौर आये| बलिदानी की अभूतपूर्व शव यात्रा निकाली गई| लाहौर में शव यात्रा निकालने के पश्चात् आपके शव को सरगोधा ले जाया गया| सरगोधा में भी भारी संख्या में लोग आपकी शव यात्रा के साथ थे| सरगोधा नगर में यह अपने प्रकार की प्रथम शव यात्रा थी| नगर के सब बाजार पूरी तरह से बंद थे| सब सम्प्रदायों के लोग इस शवयात्रा के साथ चल रहे थे| अंत में आपके पार्थिव शरीर का पूर्ण वैदिक रीति से अंतिम संस्कार किया गया|
आर्यों के बलिदानों की भी एक विचित्र परिपाटी थी| बलिदान से लोगों को प्रेरणा तो मिलती ही थी, अंत्येष्ठी के समय और पश्चात् होने वाली क्रियाओं से भी आर्य समाज का प्रचार ही होता था और इन सब क्रियाओं को देख कर नवयुवकों में आर्य समाज में प्रवेश करने की उत्कंठा प्रबल होती थी तथा वेद पथ के पथिक बनने का मार्ग भी खुल जाता था| कुछ इस प्रकार की ही प्रेरणा भक्त अरुडामल जी की शवयात्रा तथा अंत्येष्ठी संस्कार को देखकर उन्हें मिली| सदियों तक इस प्रकार का बलिदान आर्यों के लिए ही नहीं पूरी जाति के लिए मार्ग दर्शन देने वाला तथा प्रेरणा का स्रोत बना रहेगा| इन बलिदानियों के बलिदान की गाथाएँ जन जन में नए रक्त का संचार करती ही रहेंगी| इनके जीवन से मार्गदर्शन लेकर आर्य समाज की भावी पीढ़ी प्रभावशाली ढंग से आर्य समाज का प्रचार करने में समर्थ हो सकेगी| शहीदों की याद से सदा ही नया उत्साह मिला करता है| अत: हम संकल्प लें कि हम अपने शहीदों को सदा स्मरण करते हुए उनके जन्म तथा बलिदान दिवसों पर उनसे अवश्य ही प्रेरणा लेते रहेंगे|
डॉ. अशोक आर्य
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