भारतीय संविधान के शिल्पकार डॉ. भीमराव रामजी अंबेडकर ने समाज में व्याप्त जातिभेद, ऊंच-नीच और छुआछूत को समाप्त कर समता और बंधुत्व का भाव लाने के लिए अपना जीवन लगा दिया। वंचितों, शोषितों एवं महिलाओं को उनके अधिकार दिलाने के लिए बाबासाहब अलग-अलग स्तर पर जागरूकता आंदोलन चला रहे थे। उन्होंने अनुभव किया कि उस समय प्रकाशित समाचार-पत्र दलितों की आवाज को स्थान नहीं दे रहे थे। उनके दु:ख, पीड़ा और उन पर होने वाले अन्याय को उचित एवं प्रभावी ढंग से उस वर्ग द्वारा प्रकाशित समाचार-पत्र भी प्रकाशित नहीं कर पा रहे थे। यह बात बाबासाहब भली प्रकार समझ चुके थे कि दीर्घकाल तक चलने वाली सामाजिक क्रांति की सफलता के लिए एक प्रभावी समाचार-पत्र का होना आवश्यक है। उन्होंने कहा भी- “जैसे पंख के बिना पक्षी होता है, वैसे ही समाचार-पत्र के बिना आंदोलन होते हैं।” मानवतावादी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए उन्होंने पत्रकारिता को अपना साधन बनाने का निश्चय किया। उनकी पत्रकारिता का दायरा दलितों तक सीमित नहीं था। बल्कि वे समाचार-पत्र के माध्यम से हिंदू समाज के सभी वर्गों का प्रबोधन करना चाहते थे। समतापूर्ण समाज का निर्माण करने के लिए दलित वर्ग में आत्मविश्वास जगाना आवश्यक था और सवर्ण समाज को आईना दिखा कर उनको यह समझाना कि मनुष्य के साथ भेद करने का कोई तर्क नहीं। बाबासाहब ने चार समाचार-पत्रों का प्रकाशन किया- मूकनायक, बहिष्कृत भारत, जनता और प्रबुद्ध भारत।
समाज को विषमता से समता की ओर ले जाने के महान लक्ष्य की पूर्ति के लिए समाचार-पत्र प्रकाशन के कार्य में राजर्षि शाहूजी महाराज ने उनका सहयोग किया। शाहूजी महाराज स्वयं भी समाज से भेद-भाव को समाप्त करने और इस वर्ग में शिक्षा के प्रसार के प्रयत्न में लगे हुए थे। महाराज ने बाबासाहब को न केवल समाचार-पत्र प्रकाशित करने के लिए प्रेरित किया, बल्कि इस कार्य के लिए 2500 रुपये की आर्थिक सहायता भी दी। आखिरकार 31 जनवरी, 1920 को ‘मूकनायक’ का पहला अंक प्रकाशित होकर आया। सूर्यनारायण रणसुभे अपनी पुस्तक ‘पत्रकारिता के युग निर्माता : भीमराव अंबेडकर’ में लिखते हैं- “जाने-अनजाने डॉ. बाबा साहेब ने इसी दिन से दीन-दलित, शोषित और हजारों वर्षों से उपेक्षित मूक जनता के नायकत्व को स्वीकार किया।” मूकनायक के प्रकाशन के समय बाबा साहब की आयु मात्र 29 वर्ष थी। वे तीन वर्ष पूर्व ही यानी 1917 में अमेरिका से उच्च शिक्षा ग्रहण कर लौटे थे। यहाँ एक प्रश्न उपस्थित होता है कि एक उच्च शिक्षित युवक ने अपना समाचार-पत्र मराठी भाषा में क्यों प्रकाशित किया? वह अंग्रेजी भाषा में भी समाचार-पत्र का प्रकाशन कर सकते थे। ऐसा करके वह कुलीनों के मध्य प्रसिद्ध पा सकते थे और अंग्रेज सरकार तक दलितों की स्थिति प्रभावी ढंग से रख सकते थे। इन प्रश्नों के उत्तर ढूंढते समय हमें ध्यान आता है कि दरअसल उन्होंने ‘मूकनायक’ का प्रकाशन वर्षों के शोषण और हीनभावना की ग्रंथि से ग्रसित दलित समाज के आत्म-गौरव को जगाने के लिए किया था। जो समाज शिक्षा से दूर था, जिसके लिए अपनी मातृभाषा मराठी में लिखा पढऩा भी कठिन था, भला ‘अंग्रेजी मूकनायक’ उनके मध्य जाकर क्या जाग्रति लाता? बाद के तीनों पत्र भी मराठी भाषा में ही प्रकाशित हुए।
उन दिनों बाबासाहब सिडनेहॅम कॉलेज, मुंबई में प्राध्यापक थे। शासकीय सेवा में होने के कारण वे मूकनायक के संपादक नहीं हो सकते थे। इसलिए उन्होंने पांडुरंग नंदराम भटकर को संपादक घोषित किया। परंतु, समाचार-पत्र में प्रकाशन हेतु सामग्री का चयन एवं संपादन बाबासाहब स्वयं करते थे। मूकनायक में बाबा साहेब ने 14 आलेख लिखे। पहले ही अंक में वे लिखते हैं- ‘हमारे इन बहिष्कृत लोगों पर हो रहे तथा भविष्य में होने वाले अन्याय पर उपाय सुझाने हेतु तथा भविष्य में इनकी होने वाली उन्नति के लिए जरूरी मार्गों पर चर्चा हो इसके लिए पत्रिका के अलावा और कोई दूसरी जमीन नहीं है।’
पत्रकारिता के उद्देश्य को ओर स्पष्ट करते हुए डॉ. अंबेडकर ने लिखा है- ‘सारी जातियों का कल्याण हो सके, ऐसी सर्वसमावेशक भूमिका समाचार-पत्रों को लेनी चाहिए। यदि वे यह भूमिका नहीं लेते हैं, तो सबका अहित होगा।’ स्वतंत्र भारत में समय के साथ समाचार-पत्र अपनी इस भूमिका से दूर होते गए हैं। आज पत्रकारिता के ज्यादातर संस्थानों पर वंचितों की आवाज होने का गौरव-तिलक नहीं लगा है, बल्कि कॉरपोरेट हितैषी होने का ठप्पा लगा है। वर्तमान समाज में कहीं अवनति दिखाई देती है, तो उसके लिए आज की पत्रकारिता भी कहीं न कहीं दोषी है। पत्रकारिता पर दायित्व है- समाज के प्रबोधन का, उसके शिक्षण का। बाबा साहब ने तो स्पष्ट तौर पर कहा कि भावी उन्नति एवं उसके मार्गों के वास्तविक स्वरूपों की चर्चा होने के लिए समाचार-पत्र जितना महत्व अन्य किसी का नहीं है। यानी समाचार-पत्र समाज की उन्नति के मूल में हैं। भारत के स्वतंत्रता से पूर्व समाचार-पत्रों की भूमिका इस बात को सिद्ध भी करती है कि कैसे पत्रकारिता सोते हुए समाज को जगाने का सामर्थ्य रखती है। मूकनायक के प्रकाशन की घटना का यह शताब्दी वर्ष है। इसलिए यह प्रासंगिक होगा कि हम मूकनायक में पत्रकारिता के उन मूल्यों एवं उत्तरदायित्व को टटोलें, जो बाबासाहब ने बताए थे। अर्थ के अभाव में 1923 में मूकनायक का प्रकाशन बंद हो गया। मूकनायक के अंत को देखकर बाबासाहब बहुत व्यथित हुए थे।
बाबासाहब ने 20 मार्च, 1927 को महाड़ के चवदार तालाब का प्रसिद्ध सत्याग्रह किया। तत्कालीन समाचार-पत्रों में सत्याग्रह के समर्थन और विरोध में समाचार प्रकाशित होने लगे। बाबासाहब उनका उत्तर देना चाहते थे। इसके लिए उन्हें एक स्वतंत्र समाचार-पत्र की आवश्यकता महसूस हो रही थी। 3 अप्रैल, 1927 को बाबा साहब ने ‘बहिष्कृत भारत’ का प्रकाशन प्रारंभ कर दिया। इस समाचारपत्र में चवदार तालाब सत्याग्रह के संबंध में भरपूर लेखन किया गया। ‘बहिष्कृत भारत’ को बाबासाहब के आंदोलन का मुखपत्र होने का गौरव प्राप्त हुआ। बहिष्कृत भारत को शुरू करने से पूर्व बाबासाहब ने आर्थिक सहायता प्राप्त करने के लिए ‘बहिष्कृत फंड’ में दान देने हेतु लोगों से आह्वान किया। किंतु, इसमें उन्हें वांछित सफलता प्राप्त नहीं हुई। एक वर्ष में ही समाचार-पत्र पर 500 रुपये का कर्ज हो गया। अंतत: 15 नवंबर, 1929 को बहिष्कृत भारत का अंतिम अंक पाठकों के हाथ में पहुँचा। यह पत्र अपनी स्पष्टवादिता और तेजतर्रार लेखन के लिए प्रसिद्ध रहा। बाबा साहब जाति-भेद समाप्त करने के लिए अंतरजातीय विवाह के पक्षधर थे। वे अंतरजातीय विवाह करने वाले दंपतियों की सूचना बहिष्कृत भारत में न केवल प्रकाशित करते, बल्कि उनका अभिनंदन भी करते थे।
बाबासाहब ने अपना तीसरा पत्र 24 नवंबर, 1930 को ‘जनता’ के नाम से प्रकाशित किया। यह पत्र 25 वर्ष तक प्रकाशित होता रहा। बाद में इसी समाचार-पत्र का नाम बदलकर ‘प्रबुद्ध भारत’ रख दिया गया। समाज के प्रबोधन के लिए समाचार-पत्र का क्या महत्व है, इसको समझाने के लिए बाबा साहब ने लंदन से ही ‘जनता’ के पाठकों के लिए पत्र लिखा – “अपने स्वावलंबन तथा भविष्य के राजनीतिक अधिकारों के लिए इस पत्रिका को बनाए रखना, इसे समृद्ध और संपन्न बनाना हमारी जिम्मेदारी है। आज भले ही ‘जनता’ पत्र का महत्व आप समझ नहीं पा रहे हो, तो भी उसका सही अहसास निकट भविष्य में होगा।”
जनता में बाबा साहब ने विविधतापूर्ण लेखन किया है। लंदन से लिखे गए पाठकों के नाम पत्र तो महत्वपूर्ण दस्तावेज हैं ही, अन्य लेख एवं प्रकाशित भाषण भी महत्वपूर्ण हैं। बाबा साहब के जो सात महत्वपूर्ण भाषण हैं, उन्हें भी जनता में प्रकाशित किया गया था। दलितों के प्रति सवर्णों के अमानवीय व्यवहार को लेकर डॉ. अंबेडकर ने बहुत ही कठोर भाषा में लिखा है। उनके तर्कों को काटने में सक्षम तर्क किसी और के पास नहीं थे। बाबा साहब ने अपनी इन सभी लेखों में भाषा की मर्यादा पर पूर्ण ध्यान दिया है। उनके लेखन की भाषा असंतुलित कभी नहीं हुई। दरअसल, वे किसी के विरोध में अपनी लेखनी नहीं चला रहे थे, बल्कि विशुद्ध रूप से मानवता के हित में अपने पत्रकारीय और लेखकीय कर्तव्य का निर्वहन कर रहे थे। उनके मन में किसी के प्रति ईर्ष्या या वैर नहीं था।
‘मूकनायक’ से लेकर ‘प्रबुद्ध भारत’ तक बाबा साहब की पत्रकारिता की यात्रा एक संकल्प को सिद्ध करने का वैचारिक आग्रह है। अपनी पत्रकारिता के माध्यम से उन्होंने दलितों एवं सवर्णों के मध्य बनी भेद-भाव, ऊंच-नीच और सामाजिक विषमता की खाई को पाटने का काम किया। उनकी पत्रकारिता में संपूर्ण समाज के लिए प्रबोधन है, उसे केवल दलित पत्रकारिता का सीमित कर देना अन्यायपूर्ण होगा। उनकी इस पत्रकारीय यात्रा में अनेक सवर्ण पत्रकार साथी सहयात्री बने। उनके समाचार-पत्रों का बाबा साहब की भावना के अनुरूप संपादन किया।
आज की पत्रकारिता को भी बाबा साहब जैसे संकल्पित पत्रकार-संपादक चाहिए, जो पत्रकारिता के सामाजिक महत्व को जानकर पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रवेश करते हैं और आजन्म समाजोत्थान के लिए ही पत्रकारिता का उपयोग करते हैं। भारत की यशस्वी पत्रकारिता के लिए यह दु:ख की बात है कि आज उसके पास डॉ. भीमराव रामजी अंबेडकर जैसा कृत-संकल्पित पत्रकार नहीं है। इस संदर्भ में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक दत्तोपन्त ठेंगड़ी ने अपनी पुस्तक ‘डॉ. अम्बेडकर और सामाजिक क्रान्ति की यात्रा’ में लिखा है – ‘भारतीय समाचार-पत्र जगत की उज्ज्वल परंपरा है। परंतु आज चिंता की बात यह है कि संपूर्ण समाज का सर्वांगीण विचार करनेवाला, सामाजिक उत्तरदायित्व को माननेवाला, लोकशिक्षण का माध्यम मानकर तथा एक व्रत के रूप में समाचार-पत्र का उपयोग करनेवाला डॉ. अम्बेडकर जैसा पत्रकार दुर्लभ हो रहा है।’ उक्त विचार ही बाबा साहब की पत्रकारिता का संदेश और सार है।
(लेखक विश्व संवाद केंद्र, मध्यप्रदेश के कार्यकारी संपादक हैं।)
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