बड़े परदे से लेकर टीवी की स्कीन पर और ओटीटी से लेकर इंटरनेट के लिए फिल्में तो हमारे देश में हज़ारों हर साल बनती हैं, लेकिन ‘1232 केएमएस’ जैसे भरपूर भाव, सत्य से सराबोर और समाज के प्रति ईमानदार तेवर उनमें अक्सर नहीं होते। अत्यंत महंगी लग्जरी गाड़ियों के सरपट दौड़ने के लिए सरकार ने जिन मजदूरों से हमारे हिंदुस्तान में एक्सप्रेस वे बनवाए थे, उन्हीं मजदूरों को उन्हीं हाईवे पर हर तरफ हजारों झुंडों में जिंदगी का सामान लादकर पैदल पलायन करते हम सबने पिछले साल पहली बार देखा। ये वे ही लोग थे, जिनको शहरों में आते हुए तो शायद ही किसी ने नहीं देखा था. लेकिन जाते हुए पूरी दुनिया ने दयनीयता के साथ देखा। इस पलायन में शहरों की बेरुखी, सपनों का मौत और अंतरात्मा की अंत्येष्टि के अंत्यलेख भी लोगों को दिखे।
विनोद कापड़ी की ‘1232 केएमएस’ को सिर्फ एक फ़िल्म भर कह देना उनके सृजन का अपमान होगा। यह दुनिया के दिलों पर दर्द की दस्तक देते दुखद दावानल का दस्तावेज है, पलायन की पीड़ा को प्रतिबिंबित करती वेदना का विचलित कर देनेवाला विस्तार है, और आनेवाली हमारी पीढ़ियों को यह संदेश भी, कि शासन द्वारा हड़बड़ी में की गई गड़बड़ी के कारण किस तरह से करोड़ों लोगों की ज़िंदगी अचानक से सैकड़ों किलोमीटर सड़क नापने को मजबूर हो जाती हैं! राजनीति और राजनेताओं के तो हर देखे हुए को अपने स्वार्थ के हिसाब से महसूस करने में भी अपने अलग निहितार्थ होते है। लेकिन आप में से जो लोग स्वयं को सामान्य संसार का हिस्सा मानते है, वे कम लिखा, ज्यादा समझना, और लॉकडाउन के असली दर्द को मासूमियत से महसूस करने के लिए, हमारे साथी विनोद कापड़ी की ‘1232 केएमएस’ जरूर देखना। अपना दावा है कि अपने आंसू भले ही आप रो लें, लेकिन दिल को दुखी होने से आप नहीं रोक पाएंगे। अगर, यह देखकर भी यदि आपका दिल न पसीजे, तो डॉक्टर से जांच करवा लीजिएगा कि दिल आपमें मनुष्य का ही है, या किसी और का!
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)