प्रभु का उपदेश है कि हम सत्य का व्रत लें, इसका पालन कर देवत्व को प्राप्त करें। देवत्व को प्राप्त कर के ही हम प्रभु प्राप्ति के अधिकारी बनते हैं। यह मन्त्र इस तथ्य पर इस प्रकार प्रकाश डालता है :-
अग्ने व्रतपते व्रतं चरिष्यामि तच्छकेयं तन्मे राध्यताम्।
इदमहमनृतात् सत्यमुपैमि ॥यजुर्वेद १.५ ॥
यजुर्वेद के प्रथम अध्याय के चतुर्थ मन्त्र पर विचार करते हुए बताया गया था कि वेदवणी हमारे सब प्रकार के कर्तव्यों का प्रतिपादन करती है। प्रस्तुत मन्त्र इस तथ्य को ही आगे बढाते हुए तीन बिन्दुओं के माध्यम से उपदेश करते हुए बताता है कि:-
१.हमारे सब कार्य सत्य पर आश्रित हों :-
मन्त्र कहता है कि विगत् मन्त्र के अनुसार जो स्पष्ट किया गया था कि हमारा अन्तिम ध्येय परमपिता की प्राप्ति है। इस पिता को पाने का माध्यम वेदवाणियों के अनुरुप अपने आप को चलाना है, इसके आदेशों को मानना है। इस के बिना हम प्रभु तक नहीं जा पाते। वेद में इस मार्ग के अनुगामी व्यक्ति के लिए कुछ कर्तव्य बताए हैं। इन कर्तव्यों में से एक है सत्य-मार्ग पर आश्रित होना, सत्य -मार्ग पर चलना ।
मन्त्र के आदेशानुसार प्रभु की समीपता पाने के लिए हमारे सब कर्तव्यों के अन्दर एक सूत्र का ओत-प्रोत होना बताया गया है तथा कहा गया है कि हमारे सब कर्तव्य सत्य पर ही आधरित हों। सत्य के बिना हम किसी भी कर्तव्य की इति श्री न कर सकें, पूर्ति न कर सकें। भाव यह है कि हम सदैव सत्य का आचरण करें, सत्य का ही प्रयोग करें ओर सत्य मार्ग पर ही चलें।
सत्य के इस कर्तव्य को सम्मुख रखते हुए हम प्रार्थना करते हैं कि हे इस संसार के संचालक! हे पग-पग पर सांसारिक प्राणी को मार्ग-दर्शन देने वाले, रास्ता दिखाने वाले प्रभो! मैं एक व्रत धारण करूंगा, मैं एक प्रतिज्ञा लेता हूं कि मैं लिए गए व्रतों का सदैव पालन कर सकूं, उस लिए गए व्रत के अनुरुप अपने आप को ढाल लूं, तदनुरुप अपने आप को चलाऊं। जो व्रत मैने लिया है, उसके अनुसार ही कार्य व्यवहार करुं। इस प्रकार प्रभु मेरा यह व्रत सिद्ध हो, जो मैंने प्रतिज्ञा ली है उस पर चलते हुए मेरी वह प्रतिज्ञा पूर्ण हो। मैं उसे सफ़लता पूर्वक इति तक ले जा सकूं।
इस प्रकार हे प्रभो! मैं सदा व्रती रहते हुए, उस व्रत पर आचरण करते हुए, इस सत्य-मार्ग पर चलते हुए मैं अनृत को, मैं गल्त मार्ग को, मैं झूठ के मार्ग को छोड कर इस सत्य मार्ग का, इस सज्जनों के मार्ग का आचरण करूं ऑर इसमें विस्तृत होने वाले, इस मार्ग पर व्यापक होने वाले सत्य को मैं अति समीपता से, अति निकटता से प्राप्त होऊं।
२. सत्य की प्राप्ति व्रस्त का स्वरुप :-
प्रश्न उठता है कि हमने जो व्रत लिया है, जो प्रतिज्ञा ली है, उसका स्वरुप क्या है? विचार करने पर यह निर्णय सामने आता है कि हम ने जो व्रत लिया है इस व्रत का संक्षेपतया स्वरूप यह है कि हम अन्रत को छोड दें, हम पाप के मार्ग को छोड दें। हम बुरे मार्ग पर चलना छोड दें। यह अन्रत का मार्ग हमें उन्नति की ओर नहीं ले जाता। यह मार्ग हमें ऊपर उठने नहीं देता। यह सुपथ नहीं है। यह गल्त मार्ग है। हमने अपने जिस ध्येय को पाने की प्रतिज्ञा ली है, यह पाप का मार्ग हमें उस ध्येय के निकट ले जाने के स्थान पर दूर ले जाने वाला है। इसलिए हमने इस मार्ग पर न जा कर सत्य के मार्ग पर चलना है। मानो हम ने गाजियाबाद से दिल्ली जाना है। इसके लिए आवश्यक है कि हम गाजियाबाद से दिल्ली की सडक पकडें। यदि हम मेरठ की सडक पर चलने लगें तो चाहे कितना भी आगे बढते जावें, चलते जावें, कभी दिल्ली आने वाली नहीं है। इसलिए हमने जो उस पिता को पाने की प्रतिज्ञा ली है, उसकी पूर्ति के लिए आवश्यक है कि हम असत्य मार्ग को छोड, सत्य मार्ग को प्राप्त हों, तब ही हमें उस पिता की समीपता मिल पावेगी।
३. सत्य से उत्तरोत्तर तेज बढता है :-
परमपिता परमात्मा को व्रतपति कहा गया है। वह प्रभु हमारे सब व्रतों के स्वामी हैं। हमारे किसी भी व्रत की इति श्री, हमारे किसी भी व्रत की पूर्ति, उस प्रभु की दया दृष्टि के बिना, उस प्रभु की कृपा दृष्टि के बिना पूर्ण होने वाली नहीं है। जब प्रभु की दया हम पर बनेगी तो ही हम अपने किए गए व्रतों को सिद्ध कर सकेंगे। इसलिए हमने सत्य पथ का पथिक बनने का जो व्रत लिया है, उसको सफ़लता तक ले जाने के लिए हमने सत्य-व्रत का पालन करना है तथा सुपथ- गामी बनना है। प्रभु का उपासन, प्रभु की समीपता, प्रभु के निकट आसन लगाना ही हमारी शक्ति का स्रोत है। इसलिए हमने प्रभु के निकट जाकर बैठना है। तब ही हम अपने लिए गए व्रत का पालन करने में सफ़ल हो सकेंगे। जब हम सत्य पर चलते हैं, जब हम सत्यव्रती हो, इस व्रत की पूर्ति का यत्न करते हैं तो धीरे-धीरे हमारा तेज भी बढता है जब कि अन्रत मार्ग पर चलने से,बुराईयों के, पापों के मार्ग पर चलने से हमारा तेज क्षीण होता है, नष्ट होता है। इसलिए अपने तेज को बढाने के लिए हमें सत्य मार्ग पर ही आगे बढना है। यह उपदेश ही यह मन्त्र दे रहा है।
डॉ. अशोक आर्य
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