नीलाद्रि विजय और रसगुल्लाभोग का सीधा संबंध जगन्नाथ भगवान के आषाढ शुक्ल त्रयोदशी के दिन बाहुडा यात्रा विजय कर श्रीमंदिर में पुनः रत्नसिंहासन पर आरुढ होने से है।सभी जानते हैं कि प्रतिवर्ष आषाढ शुक्ल द्वितीया के दिन महाप्रभु जगन्नाथ अपनी विश्व प्रसिद्ध रथयात्रा करते हैं और अपनी जन्मस्थली गुण्डीचा मंदिर जाकर वहां पर 9 दिनों तक विश्राम करते हैं। उसके उपरांत बाहुडा विजय कर वे पुनः अपने श्रीमंदिर के सिंहद्वार के सामने आते हैं जहां पर उनका सोना वेष होता है, अधरपणा होता है और अपनी नाराज पत्नी लक्ष्मीजी से उनकी नोक-झोक होती है और अपनी पत्नी लक्ष्मी जी को प्रसन्न करने के लिए जगन्नाथ जी उनको अपने होथों से रसगुल्ला भोग निवेदित कर उनको प्रसन्न करते हैं और तब जाकर लक्ष्मीजी उनको उनके रत्नवेदी पर पुनः आरुढ होने की अनुमति प्रदान करतीं हैं।
इसे ही जगन्नाथ लोकपरम्परा में नीलाद्रि विजय और रसगुल्लाभोग कहा जाता है। इस वर्ष 2023 का यह महोत्सव पहली जुलाई को है।लगभग एक हजार वर्ष से यह परम्परा पुरी के जगन्नाथ मंदिर में देखने को मिलती है। कलियुग के एकमात्र पूर्णदारुब्रह्म भगवान जगन्नाथ के नवकलेवर का आरंभ जब से श्रीमंदिर में हुआ तभी से नीलाद्रि विजय और रसगुल्लाभोग की सुदीर्घ परम्परा रही है।भगवान जगन्नाथ पुरी धाम में एक साधारण मानव की तरह ही सबकुछ करते हैं ।नारायण प्रतिदिन नरलीला करते हैं।इसीलिए जगन्नाथ जी के बाहुडा विजय के उपरांत श्रीमंदिर के सिंहद्वार पर पति-पत्नी यह नोक-झोक देखने लायक होती है क्योंकि लक्ष्मीजी श्रीमंदिर में क्रोधित अवस्था में रहतीं हैं क्योकि उनको श्रीमंदिर में छोडकर जगन्नाथजी अपने भाई-बहन के साथ रथयात्रा कर गुण्डीचा मंदिर चले जाते हैं और हेरापंचमी के दिन लक्ष्मीजी जब जगन्नाथ जी मिलने के लिए गुण्डीचा मंदिर जाती हैं तो जगन्नाथ जी के सेवायत उनको जगन्नाथ जी से मिलने नहीं देते हैं।
इसलिए नीलाद्रि विजय के दिन लक्षमी जी को प्रसन्नकर तथा उनकी सहर्ष अनुमति प्राप्तकर जगन्नाथजी अपने रत्नवेदी पर आरुढ होते हैं। भगवान जगन्नाथ के पास देवी लक्ष्मी को मनाने का एक ही तरीका अंत में काम आता है और वह है देवी लक्ष्मी को रसगुल्ला भोग निवेदितकर उनको प्रसन्न करने का।अपने मानवीय लीलाओं के तहत लीलाधर भगवान जगन्नाथ एक अति साधारण पति के रुप में अपनी पत्नी को मनाते हैं।वे उनको रसगुल्ला का भोग अपने हाथों से निवेदितकर उनको प्रसन्न करते हैं। भक्त बलराम दास,ओडिया रामायण के रचयिता के अनुसार दण्डी रामायण, जगमोहन रामायण के अनुसार भरतलालजी अपने भाई शत्रुध्नजी के साथ श्रीरामचन्द्रजी को उनके वनवास से अयोध्या वापस लौटाने के निवेदन के समय भारद्वाज मुनि के आश्रम में जब जाते हैं तो भारद्वाज मुनिजी माया ब्राह्मणों द्वारा उन्हें दूध से तैयार रसगुल्ला खिलाते हैं।
भक्त लेखक ब्रजनाथ बडजेना अपनी रचना अंबिका विलास में,अभिमन्यू सामंत सिंहारी ने अपनी रचना विदग्ध चिंतामणि में रसगुल्ला भोग का सुंदर वर्णन किया है। यही नहीं, प्रतिवर्ष ओडिशा में नीलाद्रि विजय दिवस के दिन को रसगुल्ला दिवस के रुप में मनाया जाता है। गौरतलब है कि श्रीमंदिर में कुल लगभग 205 प्रकार के सेवायत हैं जिनमें भीतरछु महापात्र सेवायत ही रसगुल्ला भोग तैयार करते हैं। भीतरछु महापात्र सेवायत देवी लक्ष्मी के सेवायत हैं इसीलिए जब अधरपणा संपन्न होता है उसके उपरांत बलभद्रजी,सुभद्राजी तथा सुदर्शनजी को रत्नवेदी पर आरुढ कराने की अनुमति देवी लक्ष्मीजी प्रदान कर देती हैं लेकिन जब जगन्नाथ जी उनको अपने हाथों से रसगुल्ला भोग निवेदित करते हैं तब प्रसन्न होकर देवी लक्ष्मीजी उनको रत्नवेदी पर आरुढ होने की अनुमति प्रदान करती हैं। लगभग एक हजार वर्ष से पुरी बड ओडिया मठ,उत्तर पार्श्व मठ,नेवलदास मठ,राधावल्लव मठ,राधेश्याम मठ और कटकी मठ आदि में रसगुल्ला तैयार किया जाता है। नीलाद्रि विजय के समय रसगुल्ला तैयार करने को ओडिशा में पवित्र कार्य माना जाता है।
ओडिशा के पुरी,कटक,नयागढ,भुवनेश्वर, और भुवनेश्वर-कटक राजमार्ग के समीप पहल में बहुतायत मात्रा में रसगुल्ला तैयार कर उसे बेचा जाता है। सच कहा जाय तो एक तरफ पुरी श्रीमंदिर में नीलाद्रि विजय के दिन भगवान जगन्नाथ द्वारा देवी लक्ष्मी को प्रसन्न करने के लिए अपने हाथों से उनको रसगुल्ला भोग निवेदित करने का इंतजार रहता है तो ठीक उसी प्रकार उस अलौकिक अवलोकन हेतु भी समस्त जगन्नाथ भक्तगण भी प्रतीक्षारत रहेंगे।
(लेखक भुवनेश्वर में रहते हैं और ओड़िशा की साहित्यिक, सांस्कृतिक, धार्मिक व ऐतिहासिक घटनाओं पर नियमित लेखन करते हैं)