भजन शंख घंटे चुभते हैं बस सत्ता के कानो में,
पर्यावरण शुद्ध लगता है केवल बूचड़खानो में
गंगा माता बिलख रही थी लाचारी के घाटों पर,
क्रूर लाठियां बरस रही थीं चन्दन लगे ललाटों पर,
खाकी,लगता थूक रही थी संतो के सम्मानों पर,
यूं लगता था मुहर लगी थी बाबर के फरमानों पर,
वर्दी वाले बर्बरता की सीमाओं को तोड़ गए,
केसरिया को नोच फाड़कर डला सड़क पर छोड़ गए,
सत्ता पट्टी बांध आँख पर बेसुध होकर सोई है,
काशी इनकी करतूतों पर फूट फूट कर रोई है,
अपनी परम्पराओं का आधार मांगने बैठे थे,
सन्त पुजारी पूजा का अधिकार मांगने बैठे थे,
ना भारत को गाली दी थी,फूंका नही तिरंगा था,
पत्थरबाजी नही हुयी थी किया न कोई दंगा था,
बलवे बाज नही थे,ना ही जेहादी नौटंकी थे,
ना दाऊद के गुर्गे थे,ना लश्कर के आतंकी थे,
धर्म सनातन की गाथा का मान मांगने बैठे थे,
वो तो गंगा माँ के प्यारे महादेव के बेटे थे,
हर हर महादेव का नारा क्यों उन्मादी लगता है?
सत्ता को हर भगवा धारी क्यों अपराधी लगता है?
सिर्फ सनातन कर्मों पर ही क्यों पाबन्दी होती है?
गणपति विसर्जनो से ही क्यों गंगा गन्दी होती है,
भजन शंख घंटे चुभते हैं बस सत्ता के कानो में,
पर्यावरण शुद्ध लगता है केवल बूचड़खानो में.
नही फड़कती कभी भुजाये,देशद्रोह के नारों पर,
वीर बहादुर मौन रहे,गौ माता के हत्यारों पर,
ये गौरव चौहान कहे ,कुछ बेडा पार नही होगा,
खून बहाकर संतो का बिलकुल उद्धार नही होगा,
घड़ा आपका भर जाएगा एक दिवस इन पापों से,
कोई नही बचा पायेगा संतों के अभिशापों से.