संन्यासी को देखकर लोगों के मन में उनके त्याग तथा अध्यात्म के प्रति श्रद्धा जाग्रत होती है। कई बार लोग इन्हें कम पढ़ा-लिखा समझते हैं; पर इनमें से अनेक उच्च शिक्षा विभूषित होते हैं। आद्य शंकराचार्य द्वारा स्थापित चार पीठों में से एक श्री गोवर्धन पीठ (जगन्नाथ पुरी) के जगद्गुरु शंकराचार्य पूज्य श्री भारती कृष्णतीर्थ जी ऐसी ही विभूति थे।
14 मार्च, 1884 को #तिन्निवेलि, #मद्रास (#तमिलनाडु) में तहसीलदार श्री पी. नृसिंह शास्त्री के घर जन्मे इस बालक का नाम #वेंकटरमन रखा गया। यह पूरा परिवार बहुत शिक्षित और प्रतिष्ठित था। वेंकटरमन के चाचा श्री चंद्रशेखर शास्त्री महाराजा कालिज, विजय नगर में प्राचार्य थे। इनके परदादा श्री रंगनाथ शास्त्री मद्रास उच्च न्यायालय में न्यायाधीश रह चुके थे।
कुशाग्र बुद्धि के स्वामी वेंकटरमन सदा कक्षा में प्रथम आते थे। गणित, विज्ञान, समाजशास्त्र तथा भाषा शास्त्र में उनकी विशेष रुचि थी। धाराप्रवाह संस्कृत बोलने के कारण 15 वर्ष की किशोरावस्था में उन्हें मद्रास संस्कृत संस्थान ने ‘सरस्वती’ जैसी उच्च उपाधि से विभूषित किया। 1903 में उन्होंने अमरीकन कालिज ऑफ़ साइन्स, रोचेस्टर के मुम्बई केन्द्र से एम.ए. किया।
1904 में केवल 20 वर्ष की अवस्था में उन्होंने एक साथ सात विषयों (संस्कृत, दर्शन, अंग्रेजी, गणित, इतिहास, भौतिकी एवं खगोल) में एम.ए की परीक्षा उच्चतम सम्मान के साथ उत्तीर्ण कीं। यह कीर्तिमान सम्भवतः आज तक अखंडित है।
समाज सेवा की ओर रुचि होने के कारण उन्होंने गोपालकृष्ण गोखले के साथ राष्ट्रीय शिक्षा आन्दोलन तथा दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों की समस्याओं के लिए काम किया। 1908 में वे राजमहेन्द्रि में नवीन कालिज के प्राचार्य बने; पर उनका अधिक रुझान अध्यात्म की ओर था। अतः 1911 में वे शृंगेरी पीठ के पीठाधीश्वर जगद्गुरु शंकराचार्य श्री नृसिंह भारती के पास मैसूर पहुँच गये और आठ साल तक वेदान्त दर्शन का गहन अध्ययन किया।
इसके साथ उन्होंने ध्यान, योग एवं ब्रह्म साधना का भी भरपूर अभ्यास किया। इस दौरान वे स्थानीय विद्यालयों और आश्रमों में संस्कृत एवं दर्शनशास्त्र भी पढ़ाते रहेे। अमलनेर के शंकर दर्शन संस्थान में आद्य शंकराचार्य के दर्शन पर दिये गये उनके 16 भाषण बहुत प्रसिद्ध हैं। मुंबई, पुणे और खानदेश के कई महाविद्यालयों में उन्होंने अतिथि प्राध्यापक के नाते भी व्याख्यान दिये।
4 जुलाई, 1919 को शारदा पीठ के शंकराचार्य त्रिविक्रम तीर्थ जी ने उन्हें काशी में संन्यास की दीक्षा देकर उनका नाम #भारती_कृष्ण_तीर्थ रखा। 1921 में उन्हें #शारदापी_के_शंकराचार्य पद पर विभूषित किया गया। 1925 में जब #गोवर्धन_पीठ_के_शंकराचार्य श्री मधुसूदन तीर्थ का स्वास्थ्य बहुत खराब हो गया, तो उन्होंने इस पीठ का कार्यभार भी श्री भारती को ही सौंप दिया।
1953 में उन्होंने नागपुर में ‘विश्व पुनर्निमाण संघ’ की स्थापना की। वे भारत से बाहर जाने वाले पहले शंकराचार्य थे। 1958 में अमरीका, ब्रिटेन कैलिफोर्निया आदि देशों के रेडियो, दूरदर्शन, चर्च एवं महाविद्यालयों में उनके भाषण हुए।
स्वामी जी ने अथर्ववेद में छिपे गणित के 16 सूत्र खोज निकाले, जिनसे विशाल गणनाएँ संगणक से भी जल्दी हो जाती हैं। उन्होंने इन पर 16 ग्रन्थ लिखे, जो 1956 में हुई एक अग्नि दुर्घटना में जल गये। तब तक उनकी आंखें पूरी तरह खराब हो चुकी थीं; लेकिन उन्होंने स्मृति के आधार पर केवल डेढ़ माह में उन सूत्रों की संक्षिप्त व्याख्या कर नई पुस्तक ‘वैदिक गणित’ लिखी, जो अब उपलब्ध है।
इसके अतिरिक्त उन्होंने धर्म, विज्ञान, विश्व शांति आदि विषयों पर अनेक पुस्तकें लिखीं। 1959 में उनका स्वास्थ्य बहुत बिगड़ गया और 2 फरवरी, 1960 को मुंबई में उन्होंने शरीर छोड़ दिया।
(संदर्भ : पांचजन्य 1.12.2002 एवं विकीपीडिया)