नई दिल्ली: अंडमान और निकोबार द्वीप समूह में सेटेंलनीज आदिवासियों पर कथित रूप से एक अमेरिकी नागरिक की हत्या का आरोप लगा है. पुलिस के मुताबिक अमेरिकी पर्यटक जॉन एलेन चाऊ (27) की तीर मारकर हत्या उस वक्त कर दी गई जब वह 16 नवंबर को सेंटेनलीज आदिवासी समूह के इलाके में घुसने की कोशिश कर रहे थे. दिन गुजरने के साथ जब वह नहीं लौटे तो उनके एक दोस्त ने उसकी गुमशुदगी की रिपोर्ट दर्ज कराई. चाऊ को उस इलाके तक पहुंचाने वाले सात मछुआरों को पकड़ा गया. अब उसकी बॉडी को वहां से निकालना बड़ी चुनौती है.
अंडमान पुलिस के मुताबिक अमेरिकी नागरिक के शव की तलाश को लेकर रणनीति बनाने के लिये मानविकी विज्ञानियों और विशेषज्ञों की मदद ली जा रही है क्योंकि बड़ा सवाल यह उठ रहा है कि उस खास इलाके में जाया कैसे जाए, जहां कोई नहीं जा सकता और चारों तरफ खतरा ही खतरा है. इस संबंध में मानव विज्ञानी (एंथ्रोपॉलिजिस्ट) टीएन पंडित (83) ने इंडियन एक्सप्रेस से बात करते हुए कहा कि नारियल, लोहे के टुकड़े और ढेर सारी सावधानियों के जरिये नॉर्थ सेंटीनल आइलैंड के उस इलाके में जाकर अमेरिकी पर्यटक की बॉडी को खोजा जा सकता है.
टीएन पंडित, अंडमान और निकोबार द्वीप समूह में स्थित नॉर्थ सेंटीनल आइलैंड में पहुंचने वाले और इस आदिम समूह से संपर्क करने वाले पहले मानव विज्ञानी हैं. 1966-91 के दौरान भारत के एंथ्रोपॉलिजिकल सर्वे के तहत उन्होंने वहां अनेक यात्राएं कीं. इस दौरान उन्होंने सेंटेनलीज समूह से संपर्क विकसित किया और बदले में वे भी टीएन पंडित पर भरोसा करने लगे.
अमेरिकी पर्यटक की बॉडी को उस आइलैंड से निकालने के सवाल पर द इंडियन एक्सप्रेससे उन्होंने कहा, ”यदि दोपहर और शाम को छोटा दस्ता वहां जाता है, जब समुद्र तट के करीब आदिवासी नहीं जाते और यदि साथ में बतौर गिफ्ट नारियल, लोहे के टुकड़ों के साथ तीरों की रेंज से बाहर नाव को रोक दिया जाए तो इस बात की संभावना है कि वे वहां से बॉडी को ले जाने की अनुमति दें. इस काम में स्थानीय मछुआरों की मदद भी ली जानी चाहिए.” उन्होंने अपने अनुभव साझा करते हुए कहा कि 1991 में वह सेंटेनलीज लोगों का भरोसा जीतने में कामयाब रहे और वे नारियल के गिफ्ट स्वीकार करने लगे. लोहे के टुकड़े ले जाने के मसले पर उन्होंने कहा कि दरअसल इससे तीर की नोक बनाने में सुविधा होती है इसलिए यह इस आदिवासी समूह के लिए उपयोगी होता है.
सेंटेनलीज आदिवासी
2004 की भयकंर सुनामी में अंडमान-निकोबार द्वीप समूह का बड़ा हिस्सा तहस-नहस हो गया था. उस सुनामी में हजारों जानें गई थीं लेकिन यहां के नॉर्थ सेंटीनल आइलैंड पर रहने वाले आदिवासी बाहरी दुनिया की किसी मदद के बिना जीवित बच गए थे. ये बड़ी बात इसलिए है क्योंकि सेंटीनल आइलैंड की इस संरक्षित आदिवासी समुदाय का बाहरी दुनिया से कोई लेना-देना नहीं है.
साल 2004 की जनगणना के अनुसार, जनगणना अधिकारी केवल 15 सेंटेनलीज लोग 12 पुरुष और तीन महिलाओं का ही पता लगा सके. हालांकि विशेषज्ञों के अनुसार उनकी संख्या 40 से 400 के बीच कुछ भी हो सकती है. सेंटीनलीज लोग प्री-नियोलिथिक आदिवासी समूह हैं. ये बंगाल की खाड़ी में स्थित नॉर्थ सेंटीनल आइलैंड में रहते हैं. भौगोलिक लिहाज से ये हिस्सा अंडमान आइलैंड का हिस्सा है. इस कारण इनको अंडमान आदिवासी समूह भी कहा जाता है.
आनुवांशिक लिहाज से निग्रिटो श्रेणी का ये आदिम समूह सेंटेनलीज भाषा बोलता है. इस भाषा के बारे में भी बाहरी दुनिया को कोई जानकारी नहीं है क्योंकि आस-पास ऐसी भाषा बोले जाने के कोई साक्ष्य नहीं मिलते.
सबसे पहले 1880 में ब्रिटिश नौसेना अधिकारी मॉरीश वीडल पोर्टमैन ने इस समुदाय से संपर्क करने की कोशिश की थी. उन्होंने इस आदिम समूह के कई लोगों को पकड़ लिया लेकिन बाहरी दुनिया के संपर्क में आने से संक्रमण के चलते दो सेंटेनीलीज की मौत हो गई. बाद में बाकी लोगों को उनके इलाके में ले जाकर छोड़ दिया गया. इस तरह वह प्रयास असफल साबित हुआ. उसके बाद से लेकर कई प्रयासों के बावजूद आज तक इस समुदाय का बाहरी दुनिया से केवल सीमित संपर्क ही हुआ है.
साल 2006 में समुद्र में शिकार करने के बाद दो भारतीय मछुआरों ने सोने के लिए इस द्वीप के समीप अपनी नौका बांध दी थी लेकिन नौका की रस्सी ढीली होकर तट की ओर बह गई जिससे उनकी हत्या कर दी गई. जोशी ने कहा कि यह चिंता का विषय है कि इस द्वीप को हाल ही में दर्शकों के लिए खोला गया. यहां सेंटेनलीज सैकड़ों वर्षों से रहते आए हैं.
हाल तक इस आइलैंड पर बाहरी लोगों का जाना मना था. इस साल एक बड़ा कदम उठाते हुये सरकार ने संघ शासित इलाकों में इस द्वीप सहित 28 अन्य द्वीपों को 31 दिसंबर, 2022 तक प्रतिबंधित क्षेत्र आज्ञापत्र (आरएपी) की सूची से बाहर कर दिया था. आरएपी को हटाने का आशय यह हुआ कि विदेशी लोग सरकार की अनुमति के बिना इन द्वीपों पर जा सकेंगे.
दिल्ली विश्वविद्यालय में मानव विज्ञान विभाग के प्रोफेसर पीसी जोशी का इस मामले में कहना है कि यह जनजाति अब भी बाहरी दुनिया से पूरी तरह कटी हुई है और भारतीय मानव विज्ञान सोसायटी के प्रयासों के बावजूद इनसे संपर्क नहीं किया जा सका. सोसायटी ने उनके लिए केले, नारियल छोड़कर अप्रत्यक्ष तौर पर उनसे संपर्क की कोशिश की थी.
प्रोफेसर ने कहा, ‘‘हमने कोशिश की थी लेकिन जनजाति ने कोई रुचि नहीं दिखाई. वे अंडमान में सबसे निजी आदिवासियों में से एक हैं. वे आक्रामक हैं और बाहरी लोगों पर तीरों तथा पत्थरों से हमला करने के लिए पहचाने जाते हैं. मुझे नहीं पता कि यह अमेरिकी द्वीप पर क्यों गया लेकिन यह जनजाति लंबे समय से अलग-थलग रह रही है जिसके लिए मैं उन्हें जिम्मेदार नहीं ठहराता क्योंकि वे इसे घुसपैठ और खतरे के तौर पर देखते हैं.’’
उन्होंने कहा, ‘‘ये लोग पर्यटकों के देखने के लिए आदर्श नहीं हैं. ये रोगों के लिहाज से अति संवेदनशील हैं और किसी तरह के संपर्क से ये विलुप्त हो सकते हैं. हम कुछ डॉलर के लिए उनसे संपर्क नहीं बना सकते. हमें उनकी पसंद का सम्मान करना होगा.’’