इस्लामी सीखों में बेढ़ब बातें अपवाद नहीं हैं। उन्हें सारी मानवजाति और ‘सदा के लिए’ एक मात्र ‘अनुकरणीय’ बताया जाता है! स्त्रियों के प्रति व्यवहार लें। कुरान के अनुसार स्त्रियों पुरुषों की मनमानी भोग्या, सेविका भर हैं, क्योंकि पुरुष ‘उन का खर्चा उठाता’ है। इसलिए लगे कि स्त्री सही व्यवहार नहीं कर रही, तो पुरुष उसे पीट सकता है (कुरान, 4-34)। हदीसों में मुहम्मद ने कहा है कि स्त्री को पीटने के लिए पुरुष से कारण नहीं पूछा जा सकता। फिर, स्त्रियों को बुर्का पहनना इसलिए जरूरी है, कि ‘उन्हें पहचान कर सताया न जाएगा।’ (कुरान, 33-59)। मानो बाकी को सताना ठीक हो!
स्त्री-संबंधी इस्लामी निर्देश बड़े हीन और वस्तुवाचक हैं। वह पुरुष के जूते, फर्नीचर, जैसी है जिसे इच्छानुसार रखा जा सकता है। जहाँ पसंद आ जाए उसे लाया, फेंका, बाँटा, भोगा जा सकता हैं। यह अल्लाह का कहना है! (कुरान 33-37, 4-24)। अपनी बीवी को इसलिए भी तलाक दे सकते हैं क्योंकि बाप को पसंद आ गई। ताकि बाप उससे शादी कर सके। बीवियों के साथ-साथ गुलामों, कब्जा की गई दूसरों की स्त्रियों को भी भोगने की मंजूरी है। यह सब ‘सदा के लिए अल्लाह के नियम’ कहना आज इस्लामी विद्वानों को भी संकोच में डलाता है। इसलिए वे इन की गोल-मोल व्याख्या करते हैं।
यह सब कायदे प्रोफेट मुहम्मद के अनुकरण पर आधारित हैं। कुरान में अधिकांश प्रसंग मुहम्मद के जीवन से जुड़े हैं। उन की जीवनी जानने वाले उसे अधिक समझ सकते हैं। पहली बीवी खदीजा के देहांत के बाद मुहम्मद ने जीवन के अगले 13 वर्षों में 23 स्त्रियों के साथ शादी की या भोग किया। सभी का सिलसिलेवार वर्णन हैरिस ने अपनी पुस्तक ‘द कर्स ऑफ गॉड: ह्वाय आई लेफ्ट इस्लाम’ में किया है (पृ. 86-101)। कुछ संबंध ऐसे भी थे, जिन्हें सही ठहराने हेतु मुहम्मद को इलहाम हुआ, यानी अल्लाह ने आयत भेजी। ऐसी ही एक आयत (कुरान, 33-51) पर मुहम्मद की सब से पसंदीदा बीवी आएशा ने मानो तंज करते कहा कि ‘‘लगता है अल्लाह आपकी इच्छाओं, कामनाओं को पूरा करने के लिए अधीर रहता है।’’ (सहीह बुखारी, 6-60-311)। मुसलमानों में गोद न लेने की परंपरा भी मुहम्मद के एक प्रसंग से जुड़ी है। नतीजन मुस्लिम विश्व में लाखों बच्चे सदैव यतीम के यतीम बने रहते हैं। उन्हें कोई गोद नहीं ले सकता, क्योंकि इस्लाम में इस की मनाही है!
इस प्रकार, स्त्रियों, बच्चों, और परिवार का इस्लाम में बहुत नीचा स्थान है। इस के लिए दी गई दलीलें मुहम्मद के समय भी सबको ठीक नहीं लगती थी। गुलाम स्त्रियों, और कब्जा की गई काफिरों की स्त्रियों से किसी मुसलमान का संभोग करना जायज कहा गया। इस की मंजूरी हदीस में है, पर उस से पैदा होने वाले अवैध बच्चे पर कुछ नहीं मिलता, कि उन का क्या होना है? स्पष्टतः उन बलात्कारों से उत्पन्न अनिच्छित, बेपहचान बच्चों की कोई फिक्र अल्लाह या प्रोफेट को नहीं थी। स्त्रियों, बच्चों के प्रति ऐसा दृष्टिकोण कैसा धर्म है – यह पूछना क्या मनुष्य का अधिकार नहीं?
दूसरी ओर, कुरान की उस दलील को परख सकते हैं कि स्त्रियाँ न केवल आत्मनिर्भर हैं, बल्कि वे हजारों पुरुषों को नौकरी दे सकती हैं। अतः कुरान की बातें ‘सदा के लिए’ सही नहीं हैं। (इस्लाम से पहले भी स्वतंत्र कारोबार चलाने वाली स्त्रियाँ अरब में थीं। खुद मुहम्मद ऐसी ही एक स्त्री खदीजा के कर्मचारी थे, जिस ने बाद में उन से विवाह कर लिया। खदीजा का प्रभाव ही था कि प्रोफेट बन जाने के बाद भी खदीजा के जीवित रहते अगले 25 वर्षों तक मुहम्मद दूसरी बीवी नहीं लाए। जबकि उन के गुजरते ही कुछ ही वर्षों में अनेकानेक बीवियाँ आ गईं।)
इसी तरह, बुर्के का तर्क भी विचित्र है। किसी लोभी की नजर न पड़े, इसलिए मुसलमान स्त्रियाँ बुर्का पहनें कुछ ऐसा ही है मानो अपनी कार हमेशा ढँके रखें ताकि चोर न देखे। या धन नहीं कमाएं, ताकि लुटेरे छीन न लें। पर ऐसी ही विचित्र, और डराने वाली दलीलें ही इस्लाम में भरी हैं। अनेक निर्देशों के साथ केवल डर और धमकी का तर्क है।
गैर-मुसलमानों यानी काफिरों के लिए इस्लामी सिद्धांत-व्यवहार सबसे क्रूर हैं। उन के ‘गले में रस्सी’ व ‘जंजीर’ बाँधने, ‘खौलते पानी और आग में डालने’ की बातें हैं। (कुरान, 40-70, 71, 72)। सिर्फ इसलिए कि वे अन्य धर्म मानते हैं। यह ‘सदा के लिए अल्लाह का नियम’ तो दूर, उस समय भी अनुचित था, जब इसे अरबों पर लादा गया। असंख्य आयतें काफिरों पर हिंसा से भरी हुई हैं (कुरान, 22-19,20, 22)। हैरिस के अनुसार, ‘जहन्नुम की आग’ वाली धमकी और वर्णन लगभग 500 आयतों में हैं। लगभग 36 आयतों में काफिरों से लड़कर उन्हें मुसलमान बनाने के आवाहन हैं। (पृ. 74)
यह सब किसी सर्वशक्तिमान अल्लाह के नाम पर बैसिर-पैर की बातें लगती हैं। उपमा देते हुए हैरिस लिखते हैं कि यह ऐसा ही है कि कोई आदमी जाकर चींटियों की बाँबी में इसलिए आग लगा दे क्योंकि उस के पहुँचने पर चींटियों ने बाहर निकल कर उस की जयकार नहीं की। इस्लामी निर्देशों को अनुपयुक्त ठहराने वाले हैरिस के तर्क विश्वासी मुसलमानों के लिए भी विचारणीय हैं। (पृ. 79-81)।
प्रोफेट मुहम्मद को मानवता के लिए सर्वश्रेष्ठ अनुकरणीय व्यक्ति मानने को हैरिस ने अज्ञान से जोड़ा है। पाकिस्तान (भारत भी) में मुस्लिम बच्चों को मुहम्मद की उदारता के बारे में झूठी कहानियाँ सुनाई जाती हैं। जब हैरिस ने उन कहानियों की खोज की तो उलटा पाया, जिसे जानकर उन्हें बड़ा धक्का लगा। (पृ. 82-85)। दयालुता के बदले भयंकर क्रूरता, जिस में दूध-पीते बच्चे की माँ असमा बिन्त मरवान को सोते हुए में मार डालना भी था। बेचारी का कसूर सिर्फ यह था कि उस ने मुहम्मद की आलोचना में एक कविता लिखी थी! ऐसे सभी कवि, आलोचक चुन-चुन कर मुहम्मद के हुक्म से मार डाले गए। तब मृतकों के परिवार वाले मुसलमान बन गए। यह शुरु से ही आतंक द्वारा इस्लाम फैलाने का सबूत है।
ऐसे कई विवरण देकर हैरिस कहते हैं कि अनेक आधुनिक मुसलमान अज्ञान के कारण इस्लाम को ‘शान्ति का मजहब’ कहते हैं। वे इतिहास नहीं जानते। हैरिस ने अपने परिवार के लोगों, दोस्तों, आदि ने असमा बिन्त मरवान जैसे लोगों का नाम लेकर पूछा कि क्या वे उन के बारे में जानते हैं? सब ने इंकार किया। लेकिन मुहम्मद की दयालुता वाली वह झूठी कहानी सब जानते थे! हैरिस के अनुसार, ‘‘मुसलमानों को नियोजित रूप से झूठी बातें सिखाई जाती हैं। जब तक वे सचाई जानने में समर्थ होते हैं तब तक उन की दिलचस्पी खत्म हो चुकती है।’’(पृ. 86)
प्रोफेट मुहम्मद की जीवनी पढ़कर सामान्य मुसलमान को भी कहने में दो बार सोचना पड़ेगा कि वे पूरी मानवता के, सदैव अनुकरणीय, त्रुटिहीन मॉडल थे। आज के पैमाने से तो उन्हें अच्छा कहना भी मुश्किल है। सैन्य जीत, राज्य विस्तार, नरसंहार, बाद में भी मुहम्मदी अनुयाइयों द्वारा काफिरों पर हमले कर-करके बड़ी संख्या में उन की सभ्यता, संस्कृति, चर्च, मंदिर, पुस्तकालय, विश्वविद्यालय, आदि का नाश करके उन्हें मार डालना या जबरन मुसलमान बनाना, आदि सदियों के इतिहास में कुछ भी अनुकरणीय नहीं है। वैसी सीखें ठुकराने का हक मुसलमानों को होना चाहिए। यही हैरिस की माँग है।
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