Saturday, November 23, 2024
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बीआरडी मेडिकल कालेज: उसी शहर में हम भी हैं गिरते मकानों की तरह

( आक्सीजन संकट के कारण बड़ी संख्या में बच्चों की मौत से चर्चा में आए बीआरडी मेडिकल कालेज पर यह लेख आज से 17 वर्ष पूर्व वर्ष 2000 में छपा था। नगर निगम गोरखपुर के सवा सौ वर्ष पूरे होने के मौके पर वरिष्ठ पत्रकार हर्षवर्धन शाही के सम्पादन में एक वृहद स्मारिका ‘ आकलन ’ प्रकाशित हुई थी। यह स्मारिका गोरखपुर के सांस्कृतिक, सामाजिक व राजनीतिक इतिहास और वर्तमान पर केन्द्रित थी। बीआरडी मेडिकल कालेज पर यह लेख उस वक्त बाल रोग विभाग के शिक्षक डा. केपी कुशवाहा ने लिखा था जो इस कालेज में छात्र के रूप में पढने आए थे और यहां शिक्षक, बाल रोग विभाग के अध्यक्ष और फिर प्राचार्य पद पर कार्य कर रिटायर हुए। इस लेख में बीआरडी मेडिकल कालेज की स्थापना और उसके बाद के ढाई दशक के बेहतरीन समय का जिक्र तो है ही, उसके बाद एक संस्था के रूप में इसको नष्ट करने के प्रयासों का भी संकेत मिलता है. )

शहर में हैं घर कई मजबूत चट्टानों की तरह
उसी शहर में हम भी हैं गिरते मकानों की तरह

सदी की शुरूआत में पूर्वांचल में एक महान संत एवं समाजसेवी मनीषी बाबा राघवदास का प्रादुर्भाव हुआ। उनका सपना था पूर्वांचल में एक मेडिकल कालेज की स्थापना का क्योंकि उस समय अधिकतर मेडिकल कालेज पश्चिमी जिलों में चल रहे थे। नेताओं के अथक प्रयास से तत्कालीन मुख्यमंत्री चन्द्रभान गुप्त के समय में कैबिनेट ने पूर्वांचल में मेडिकल कालेज खोलने की सहमति दे दी। स्व. गेंदा सिंह उसे कुशीनगर में और महंत जी गोरखपुर में खोलवाने के पक्षधर थे। कुशीनगर के कुछ नेताओं ने कुशीनगर में मेडिकल कालेज खोलने का विरोध भी किया। अन्ततः वर्ष 1968 में मेडिकल कालेज को गोरखपुर में खोलने की स्वीकृति मिल गई। गोरखपुर शहर से हटकर मोगलहा, फत्तेहपुर, झुंगिया, नौतन एवं शाहपुर गांवों के बीच 147.6 एकड़ जमीन का अधिग्रहण हुआ और मेडिकल कालेज खोलने के लिए पीडब्ल्यूडी प्रांतीय शाखा मुख्यालय को हस्तान्तरित कर दिया गया।
आठ नम्वबर 1969 को मुख्यमंत्री श्री चन्द्रभानु गुप्त द्वारा मेडिकल कालेज के भवन का शिलान्यास किया गया। पीडब्ल्यूडी ने गोरखपुर और आस-पास के ठेकेदारों से भवन निर्माण कार्य शुरू कराया जिनमें मुख्य भवन, ओपीडी एवं इन्डोर, नेहरू अस्पताल, हास्टल एवं आवास प्रमुख थे। वर्ष 1971 में गौतम हास्टल 98 लाख रूपए में बनकर तैयार हुआ। उसी वर्ष मेडिकल कालेज के लिए प्रधानाचार्य, उनके प्रारम्भिक छह सहायकों व आठ कर्मचारियों की नियुक्ति की गई। कालेज के प्रथम प्रधानाचार्य डा. प्यारेलाल शुक्ल बने जो एनाटमी विभाग के अध्यक्ष थे। सन् 1972 में प्रथम बार 50 मेडिकल छात्रों जिनमें आठ छात्राएं भी थीं, का अगस्त माह में प्रवेश लिया गया। उस समय सिर्फ गौतम हास्टल ही तैयार था। इस कारण सभी अध्यापक, छात्र और कर्मचारी इसी हास्टल में एक साथ रहने लगे।

पठन-पाठन के लिए प्रधानाचार्य डा. शुक्ला एवं तत्कालीन जिलाधिकारी के सहयोग से राजकीय पालीटेक्निक रेलवे वर्कशाप के सामने ने एक लेक्चर थियेटर, एक फिजियालोजी लैब, एक एनाटमी लैब, एक कार्यालय, डिमांस्टेशंस के लिए एक कमरा, एक अध्यापक कक्ष और एक प्रधानाचार्य कक्ष उपलब्ध कराया। वहां पर अगस्त 1972 से शिक्षण कार्य प्रारम्भ हो गया। प्रधानाचार्य के अतिरिक्त 1972 में फिजियालोजी के विभागाध्यक्ष डा प्रभाकर सेठ, लेक्चरर डा. आरपी पांडेय और डा एसआई बी रिजवी, एनाटमी विभाग में डा. वीसी जोशी, लेक्चरर डा. आरपी सिंह एवं डा. श्रीमती रूखसाना रूशदी डिमांस्ट्रेटर सहित कल छह अध्यापक थे।

गौतम हास्टल का माहौल एक परिवार जैसा था जिसमें छात्र-छात्राएं, अध्यापक और कर्मचारी मिलजुल कर रहते थे। कहीं कोई बांटने की दीवार नहीं थी। प्रधानाचार्य डा. शुक्ल शहर में सिविल लाइन्स में रहते थे। प्रदेश सरकार ने एक वर्ष पहले प्राइवेट रूप से खुले सम्पूर्णानन्द मेडिकल कालेज वाराणसी को उसी वर्ष बंद कर देने का निर्णय ले लिया जिसका वहां के छात्रों ने जबर्दस्त विरोध किया और वाराणसी से लखनउ तक तहलका मचा दिया। विधानसभा का घेराव भी किया और सरकार को बाध्य किया कि वह उन्हें राजकीय मेडिकल कालेजों में ले ले। शासन ने तय किया कि उन छात्रों को कोचिंग कराके विशेष सीपीएमटी परीक्षा कराकर ही मेडिकल कालेज में दाखिल किया जाय। उस समय केजी मेडिकल कालेज सहित प्रदेश के राजकीय मेडिकल कालेजों के किसी भी प्रधानाचार्य ने उक्त जिम्मेदारी लेने की सहमति नहीं दी। अंत में प्रधानाचार्य डा. शुक्ला ने प्रो, सेठ, डा, जोशी, डा. आरपी सिंह, जयप्रकाश बाबू व भगवान साहू को लेकर वाराणसी मेें डेरा डाल दिया और छात्रों से वार्ता करके कालेज में कोचिंग शुरू करायी। कुछ छात्र इसका भी विरोध कर रहे थे। प्रधानाचार्य को बम से मारने की धमकी दी गई। एक छात्र ने रिवाल्वर भी निकाल ली थी। ये छात्र बिना कोचिंग के सीधे भर्ती चाहते थे। दो छात्रों को प्रधानाचार्य पर कातिलाना हमला करने के आरोप में निलम्बित कर दिया गया। उस समय प्रधानाचार्य की टीम के सदस्यों में इतना भय था कि वे शहर में भी नहीं निकलते थे।

उसी भय के वातावरण में डा. शुक्ला ने उन छात्रों का टेस्ट लिया। टेस्ट के पश्चात 50 छात्र गोरखपुर, 50 छात्र झांसी और 20 छात्र कानपुर मेडिकल कालेज में दाखिला के लिए संस्तुत किए गए जिनका दाखिला 1973 के सीपीएमटी बैच के छात्रों के साथ किया गया। 1972-73 में गौतम हास्टल में एक मेस था जहां सभी लोग एक साथ भोजन करते थे। मेस की जिम्मेदारी मोहम्मद अजीजुल्लाह अंसारी पर थी। पूरे मेडिकल कालेज में बरसात में घुटने भर पानी लग जाता था और बिजली चली जाती थी। शहर में आने के लिए साइकिल या रिक्शा ही साधन थे। 1973 में सबसे पहले एक छात्र ने मोटरसाइकिल खरीदी।

कालेज में पठन-पाठन का माहौल था, अनुशासन था, भाईचारा था। पुराने माडल की कार संख्या यूपी 8383 प्रधानाचार्य की गाड़ी को देखकर छात्र सड़क छोड़ देते थे। 1973 दिसम्बर में कालेज का मुख्य भवन बनकर तैयार हो गया और कालेज राजकीय पालीटेक्निक से मुख्य भवन में स्थानान्तरित हो गया। उसी समय डा. एके गुप्ता, डा. उर्मिला गुप्ता, प्रोफेसर केएस भार्गव के कार्यभार ग्रहण करने के उपरांत कालेज के मुख्य भवन जहां इस समय भारतीय स्टेट बैक की शाखा है, के कमरे में रोगियों को देखने का कार्य प्रारम्भ हुआ। उसी समय एनाटमी विभाग में दो और अध्यापक डा. ओपी खंडूरी, डा. परमानंद जैन, बायोकमेस्ट्री विभाग मंे डा. एसपी सिंह, डा. एवी नरसिम्हाराव और नेत्र विभाग में डा. वीएन प्रसाद ने कार्यभार ग्रहण किया। फिर एक-एक करके पैथालाजी, फार्माकालोजी, एसपीएम, फोरेन्सिक मेडिसिन के विभागों में अध्यापकों की संख्या बढ़ती गई जिसमें डा बीपी जाजू, डा. वीपी मिततल, डा. बलदेव राज के नाम उल्लेखनीय है।

फारेन्सिक मेडिसिन की पढ़ाई के लिए तत्कालीन जिला अस्पताल के अधीक्षक डा.एन सिंह को नियुक्त किया गया। देखते-देखते 1975 तक पूरे कालेज व अस्पताल के अध्यापकों एवं कर्मचारियों के पद भर गए। 1977 में प्रधानाचार्य डा. शुक्ला ने कालेज के आडीटोरियम में छात्र-छात्राओं की एक सभा को सम्बोधित करते हुए कहा था कि यह मेडिकल कालेज देश के सर्वोत्तम मेडिकल कालेजों में से एक है और यहां का फार्माकोलोजी विभाग विश्व के मानचित्र में स्थान रखता है।

उसी वर्ष प्रधानाचार्य के विरोध में छात्रों का पहली बार संघ बनाने का आन्दोलन शुरू हुआ और 1973 बैच के डा. एसपी सिंह को मेडिकल कालेज छात्र संघ का अध्यक्ष चुना गया। 1973 में इस प्रकार से 100 छात्र, 1974 एवं 75 में 50 छात्र फिर 100 छात्र प्रत्येक वर्ष आते रहे। कतिपय कारणों से 1978 में सरकार ने एक साथ 100 छात्राओं को इस मेडिकल कालेज में भर्ती कर लिया। 1979 में एमबीबीएस का पहला बैच उत्तीर्ण होकर निकला जिसमें कुल 9 छात्रों को स्नातकोत्तर शिक्षा के लिए प्रदेश के अन्य मेडिकल कालेजांे में जगह मिली। 1979 में ही छात्रों ने इस मेडिकल कालेज में पोस्ट ग्रेजुएट शिक्षा के लिए आंदोलन किया। फलस्वरूप 1980 में मेडिसिन, सर्जरी, पीडियाटिक्स, आर्थोपेडिक्स, एसपीएम, एनाटमी एवं फार्मोकालोजी सहित आठ एमडी एमएस के लिए संस्तुति मिली। इनकी संख्या 1981 में बढ़कर 36 हो गई। 1975 में मेडिकल कालेज और 1978 में सम्बद्ध नेहरू अस्पताल कार्य करने लगा। ख्यातिप्राप्त अध्यापक कार्य कर रहे थे और पठन-पाठन का दौर पूरे जोर पर था। शुरू के तीन चार बैचों के जा डाॅक्टर निकले उनकी आज देश और विदेश में ख्याति है। एमबीबीएस डिग्री की मान्यता प्रो शुक्ला के कार्यकाल में 1979 में मिली थी जो 1995 तक कायम रही।

इसके बाद से स्थितियां बदलने लगीं। कालेज आगे बढ़ने के बजाय पीछे जाने लगा। इसके साथ घातक प्रयोगों का सिलसिला शुरू हो गया।
शिक्षकों, नर्सों, कर्मचारियों व शैयाओं की कमी को लेकर 1995 से ही मेडिकल कौंसिल आफ इंडिया बार-बार चेतावनी दे रहा है। हाल में फिर चेतावनी मिली है। प्रो शुक्ला के 1985 में रिटायर होने के बाद से आज तक सात प्रधानाचार्य इस जिम्मेदारी को थोडे-थोड़े समय के लिए निभाते रहे जिसमें सिर्फ डा. आरएन श्रीवास्तव एवं डा. वीएन प्रसाद स्थायी थे, शेष सभी कार्यवाहक थे।

मेडिकल कालेज वर्तमान मंे समिति, स्वायत्तशासी संस्था और राजकीय मेडिकल कालेज के बीच में झूल रहा है। अध्यापकों और कर्मचारियों का वेतन टीआर-27 मद से मिल रहा है। अध्यापकों के आधे से अधिक पद रिक्त हैं। दो विभाग एक परीक्षा विषय बिना अध्यापक के हैं। यहां का मेडिसिन विभाग एक अध्यापक के सहारे चल रहा है। पिछले 15 वर्षों में कालेज के दो अध्यापकांें की मृत्यु, 12 की सेवानिवृत्ति और 20 का स्थानान्तरण हो चुका हैं अब तक 12 कर्मचारियों की मृत्यु हो चुकी है और छह सेवा निवृत्ति हो चुकी है। यहां की 15 स्टाफ नर्सें स्थानान्तरित हो गई हैं। न तो कर्मचारियों न ही स्टाफ नर्सों के मद भरे गए हैं। प्रधानाचार्य डा. वीएन प्रसाद ने 12 कर्मचारियों की भर्ती की थी जिन्हें निकालने का मामला अब भी शासन के समक्ष विचाराधीन है।

1985 तक मेडिकल कालेज में शिक्षा के अलावा खेलकूद व सांस्कृतिक कार्यक्रम भी हर वर्ष होते रहे थे, जो अब न के बराबर हैं। हास्टलों में नियमित उपस्थिति होती थी और आठ बजे तक हास्टल में आ जाना आवश्यक होता था लेकिन अब उपस्थिति लेने से वार्डेन डरते हैं। नेहरू अस्पताल 1984-1985 तक एक उन्नत संस्थान की तरह से कार्यरत था। अब उसकी हैसियत गौण हो गई है। मेडिकल कालेज की दूसरी समस्या कोर्ट केसों की वजह से हो गई है। हर वर्ष सीपीएमटी से आने वाले छात्रों के अलावा माननीय अदालत के आदेशों से कई छात्र दाखिले लेते हैं। मेडिकल कालेज में कोर्ट केसों की संख्या 50 से उपर पहुंच गई है।

यह मेडिकल कालेज अनियोजित विकास का दंश भी सह रहा है। किसी महत्वपूर्ण कार्य के एक हिस्से के लिए धन आ जाता है और शेष हिस्से का धन काफी मांगने पर नहीं मिलता। इसलिए मिले धन से हुआ कार्य भी किसी तरह के काम नहीं आता। भवन निर्माण के लिए कभी-कभी अच्छा-खासा धन मिल जाता है, मगर उसका भी सुपरिणाम नहीं निकलता। उदाहरण के रूप में लाखों रूपए की लागत से वर्षों पहले प्राइवेट वार्ड बन गया मगर स्टाफ न होने से उसका इस्तेमाल आज तक शुरू नहीं हो सका। अब वार्ड खराब भी होने लगे हैं। उसमें की गई बिजली की वायरिंग दुर्गति को प्राप्त हो रही है। इसी प्राकर नौ साल पहले नेत्र विभाग बन गया।

पिछले साल प्रदेश के चिकित्सा शिक्षा मंत्री शिवाकान्त ओझा ने उसकी स्थापना का पत्थर लगाया। उस विभाग में आज तक काम शुरू नहीं हो सका क्योंकि कर्मचारियों की नियुक्ति की ही नहीं गई। दो नए छात्रावासों के निर्माण के लिए 25 लाख रूपए मिले। पिछले साल एक छात्रावास की नींव पड़ी। आगे का काम धनाभाव में बंद हो गया।

मेडिकल कालेज की वर्तमान दयनीय स्थिति पर नेता खामोश है और बाकी सभी लाचार हैं। सरकार का रूख उसे स्वायत्त शासी संस्था बनाने का है। मेडिकल कालेज से पांच गुना अधिक जमीन और बीस गुना अधिक सम्पत्ति वाले गोरखपुर के बंद हो चुके खाद कारखाने को कोई प्राइवेट संस्था वर्तमान रूप में लेना नहीं चाहती। फिर मेडिकल कालेज के भविष्य की कल्पना आसानी से की जा सकती है। 1969 में दस करोड़ खर्च करके बना कालेज आज डेढ करोड़ रूपए से अधिक का बिजली बिल बकाया झेल रहा है।

मेडिकल कालेज के भविष्य को सिर्फ सरकार सुधार सकती है जिसके लिए दृढ़ इच्छा शक्ति, बहुमुखी दृष्टि और अपार धन की आवश्यकता होगी। अगर सरकार ने इसे किसी और के जिम्मे किया तो यह संस्थान भी भविष्य में ढह जाएगा।

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गोरखपुर न्यूज़ लाइन से साभार

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