हम जो कुछ खाते हैं वह आधुनिकता के दायरे में हमारी सामाजिक स्थिति को परिलक्षित करता है। गरीब देशों में स्वास्थ्य की दिक्कतें इसलिए होती हैं क्योंकि वहां पर्याप्त खाना नहीं होता। जैसे-जैसे लोग अमीर होते जाते हैं वे खाने की उपलब्धता के कारण स्वास्थ्यगत समस्याओं के शिकार होने लगते हैं। वे ज्यादा नमक, चीनी और वसा वाला प्रसंस्कृत खाना खाते हैं। यह उन्हें मोटा और बीमार बनाता है। जब समाज अत्यधिक अमीर हो जाता है तब दोबारा उनको यह पता लगता है कि वास्तव में समुचित भोजन करने और उसमें स्थायित्व लाने के लाभ क्या हैं।
विडंबना यह है कि हमारे देश में यह सबकुछ एकसाथ हो रहा है। हमारे सामने कुपोषण की गंभीर चुनौती है और अब मोटापा तथा उससे जुड़ी मधुमेह तथा उच्च रक्तचाप जैसी बीमारियां। परंतु हमें एक फायदा भी है। हमारे यहां अभी भी वास्तविक खाद्य पदार्थों की संस्कृति बरकरार है। पोषण, प्रकृति और आजीविका के रिश्ते अभी भी मौजूद हैं क्योंकि भारत के लोग स्थानीय, पोषक, घर पर बना खाना खाते हैं। लेकिन ऐसा इसलिए है क्योंकि हम गरीब हैं। हमारे सामने सवाल और चुनौती यही है कि क्या हम अमीर होने के बाद भी जैव विविधता से भरपूर खाद्य पदार्थ लेना जारी रखेंगे। यही हमारी असली परीक्षा होगी।
अगर हम ऐसा करना चाहते हैं तो हमें अपनी खानेपीने की आदतों को दुरुस्त करना होगा। हमें यह समझना होगा कि अमीर हो चले समाज में खानपान संबंधी लाभ गंवा बैठना न तो अनिवार्य है और न ही ऐसा किसी दुर्घटनावश होता है। ऐसा खानपान उद्योग की वजह से होता है और इसलिए भी क्योंकि सरकार ने पोषण को ध्यान में रखकर किया जाने वाला नियमन बंद कर दिया है। उसने ताकतवर खाद्य उद्योग को हमारे जीवन के सबसे अहम पहलू यानी खानपान पर नियंत्रण का अधिकार दे दिया है।
हमें यह भी समझना होगा कि खराब चीजें खाने का असर हमारी कृषि संबंधी गतिविधियों पर भी पड़ता है ताकि कारोबार को एकीकृत और औद्योगिक स्वरूप प्रदान किया जा सके। यह मॉडल खाने की सस्ती आपूर्ति पर बना है जहां रासायनिक कच्चा माल ज्यादा इस्तेमाल होता है। ऐसे में नाम बदलते हैं लेकिन खाद्य पदार्थ में एक कीटनाशक या एंटीबायोटिक का स्थान दूसरा ले लेता है। पिछले कुछ सालों से सेंटर फॉर साइंस ऐंड एन्वॉयरनमेंट में बोतलबंद पानी और कोला में कीटनाशक, खाद्य तेल में ट्रांस फैट, शहद में एंटीबायोटिक और चिकन में एंटीबायोटिक अवशेष की जांच हुई है। इन परीक्षणों ने उपभोक्ताओं को हिलाकर रख दिया और सरकार ने कार्रवाई भी की। इन परीक्षणों के बाद इन खाद्य पदार्थों में कीटनाशक अवशेषों के मानक और सख्त किए गए, कीटनाशक निगरानी की व्यवस्था सख्त की गई, ट्रांसफैट के नियमन (अनिच्छापूर्वक ही सही) पर सहमति बनी, शहद के लिए शून्य एंटीबायोटिक मानक बना और अभी हाल में पोल्ट्री उद्योग में एंटीबायोटिक का इस्तेमाल बंद हुआ। परंतु केवल इतना करना पर्याप्त नहीं है।
सच तो यह है कि हमें कृषि विकास का एक ऐसा मॉडल चाहिए जिसमें स्थानीय खाद्य उत्पादन को अहमियत दी जाए न कि पहले रसायनीकरण करने और बाद में सुधार करने के। ऐसा करना कठिन है लेकिन यही करने की आवश्यकता है ताकि हमें पोषक तत्त्व भी मिलें और आजीविका भी सुरक्षित रहे। अब तक खाद्य सुरक्षा का कारोबार स्वच्छता और मानक को ध्यान में रखकर तैयार किया गया है लेकिन नियमन के लिए खाद्य निरीक्षकों की आवश्यकता है और इससे लागत में इजाफा हो जाएगा। विडंबना यह है कि इस मॉडल में वे सारी चीजें हाशिये पर रह जाती हैं जो हमारे स्वास्थ्य और शरीर के साथ-साथ छोटे किसानों और स्थानीय खाद्य कारोबार के लिए बेहतर हैं। बाकी रहता है भारी भरकम कृषि कारोबार जिसकी वास्तव में हमें आवश्यकता नहीं।
परंतु इसके साथ-साथ जरूरत यह भी है कि हम खराब खानेपीने से अपना बचाव करें। सरकार यह नहीं कह सकती है कि प्रसंस्कृत खाना खाना चयन का मामला है। चूंकि यह उद्योग लाखों डॉलर की रकम खर्च करके ग्राहकों पर दबाव डाल रहा है और उन्हें लुभा रहा है कि वे ऐसी चीजें खाएं जो वास्तव में खाद्य पदार्थ नहीं बल्कि अस्वास्थ्यकर जंक फूड है। ऐसे में सरकार खड़े खड़े देखती तो नहीं रह सकती।
सबसे पहले तो अत्यधिक प्रसंस्कृत, ज्यादा नमक, शकर या वसा वाले खाद्य पदार्थों को स्कूलों में बेचे जाने पर प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए या फिर इस पर तगड़ा नियंत्रण कायम किया जाना चाहिए। दूसरी बात, लोगों को इस बारे में सूचित किया जाना चाहिए कि वे क्या खा रहे हैं। इसके लिए खाने पर ऐसे लेबल लगे होने चाहिए जिन पर लिखा हो कि वे जो खा रहे हैं उसमें कितनी वसा, चीनी अथवा नमक पड़ा है और इन पदार्थों का हमारी दैनिक खुराक में क्या हिस्सा होना चाहिए। तीसरी बात, सरकार को चाहिए कि अस्वास्थ्यकर जंक फूड के विज्ञापन और उनको बढ़ावा देने का नियमन करे। क्रिकेटरों से लेकर फिल्मी सितारों जैसे सेलिब्रिटी को इनका प्रचार करने से रोकना चाहिए।
हालांकि ऐसा कहना आसान है और करना कठिन। ऐसे में आगे की राह बहुत चुनौतीपूर्ण है। भारत में जरूरत इस बात की है कि हम अपने समृद्घ व्यंजनों को बढ़ावा दें। इन मसालेदार रंगीन और खुशबूदार व्यंजनों में प्रकृति की विविधता होती है। हमें समझना होगा कि अगर जंगल में जैव विविधता खत्म हो जएगी तो हमारी प्लेट से भी तमाम खानेपीने की चीजें गायब हो जाएंगी। तब पैकेट में एक ही आकार और स्वाद का खाना सबको मिलेगा। आज यही हो रहा है। हमने फस्र्ट फूड नामक एक व्यंजन पुस्तिका निकाली है जो हमें बताती है हम क्या और क्यों खाते हैं। क्योंकि अगर हम स्थानी व्यंजनों की संस्कृति और उनसे जुड़ा ज्ञान गंवा देंगे तो हम सिर्फ उनका स्वाद और सुगंध ही नहीं बल्कि बहुत कुछ खो देंगे। हम अपना जीवन खो देंगे, अपना आने वाला कल गंवा देंगे।
साभार-बिज़नेस स्टैंडर्ड से