सादगी की प्रतिमूर्ति रहे कलाम अपनी मां को ही अपना प्रेरणा स्रोत मानते थे। मां के प्रति असीम स्नेह का उन्होंने अपनी किताब 'अदम्य साहस' में भी वर्णन किया है।
किताब में उन्होंने अपने बचपन और उनके प्रति मां के विशेष दुलार से जुड़े कई किस्सों का जिक्र किया है। बाद में अपनी मां के निधन के बाद कलाम ने एक कविता लिखकर उनके प्रति अपनी भावनाओं का इजहार किया।
उनकी किताब 'अदम्य साहस' के वो खास अंश जिन्हें इस महान वैज्ञानिक ने अपनी मां को समर्पित किया है आपको झकझोर कर रख देंगे।
'द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान हमारा परिवार कठिनाइयों के बीच से गुजर रहा था। मैं उस समय दस साल का था और युद्ध रामेश्वरम में हमारे दरवाजे तक प्रायः पहुंच चुका था। सभी वस्तुओं की किल्लत हो गई थी।
हमारा परिवार एक विशाल संयुक्त परिवार था, जिसमें मेरे पिता एवं चाचाओं के परिवारजन एक साथ रहते थे। इस विशाल कुनबे को मेरी दादी और मां मिलकर संभालती थीं। घर में कभी-कभी तीन-तीन पालनों पर बच्चे झूलते रहते थे। खुशी और गम का आना-जाना लगा रहता था।
मैं अपने शिक्षक श्री स्वामीयर के पास गणित पढ़ने जाने के लिए प्रायः चार बजे जग जाता था। वे एक अद्वितीय गणित-शिक्षक थे। वे निःशुल्क ट्यूशन पढ़ाते थे और एक साल में पाँच ही बच्चों को पढ़ाते थे। अपने सभी छात्रों पर उन्होंने एक कठोर शर्त लगा रखी थी।
शर्त यह कि सभी छात्र स्नान करके सुबह पांच बजे उनकी कक्षा में उपस्थित हो जाएं। मेरी मां मुझसे पहले जग जाती थी। वह मुझे नहलाती और ट्यूशन के लिए तैयार करती। मैं साढ़े पांच बजे घर वापस लौटता। उस समय नमाज अदा करने तथा अरबी स्कूल में कुरान शरीफ सीखने के लिए मुझे ले जाने को पिता मेरी प्रतीक्षा कर रहे होते।
उसके बाद मैं अपने घर से तीन किलोमीटर की दूरी पर स्थित रामेश्वरम रोड़ रेलवे स्टेशन पैदल जाता। वहां से होकर गुजरने वाली धनुषकोडि मेल से समाचार-पत्रों का बंडल लेता और तेजी से शहर लौटता। शहर में सबसे पहले मैं ही लोगों तक समाचार-पत्र पहुंचाता था।
यह जिम्मेदारी निभाने के बाद मैं आठ बजे तक घर वापस आ जाता। उस समय मेरी मां मुझे सामान्य नाश्ता देतीं, जो मेरे अन्य भाई-बहनों को दिये जाने वाले नाश्ते की तुलना में कुछ विशेष होता, क्योंकि मैं पढ़ाई और कमाई एक-साथ करता था। स्कूल की छुट्टी के बाद शाम को मैं फिर ग्राहकों से बकाया राशि की वसूली के लिए निकल पड़ता।
उन दिनों की एक घटना मुझे अभी भी याद है। हम सभी भाई-बहन साथ बैठकर खाना खा रहे थे और मां मुझे रोटी देती जा रही थी (चूंकि हम भात खाने वाले लोग हैं इसलिए चावल तो खुले बाज़ार में उपलब्ध था किंतु गेंहूं पर राशनिंग थी)।
जब मैं खाना खा चुका तो मेरे बड़े भाई ने मुझे एकांत में बुलाकर डांटा, ‘‘कलाम, जानते हो क्या हुआ ? तुम रोटी खाते जा रहे थे और माँ तुम्हें रोटी देती जा रही थी। उसने अपने हिस्से की भी सारी रोटी तुम्हें दे दीं। अभी घर की परिस्थिति ठीक नहीं है। एक जिम्मेदार बेटा बनो और अपनी मां को भूखों मत मारो।’’
उस दिन पहली बार मुझे सिहरन की अनुभूति हुई। मैं अपने आपको रोक नहीं सका। दौड़कर अपनी मां के पास गया और भावावेश में उससे लिपट गया।
मैं अब भी पूनम की रात में अपनी मां को याद करता हूँ। उस स्मृति की छवियां मेरी पुस्तक ‘अग्नि की उड़ान’ में संग्रहीत ‘मां’ कविता में उभरी हैं।
मेरी यादों में वे क्षण
हैं जीवंत अभी भी !
दस बरस का बालक मैं-
पूरनमासी की निशि-वेला में
नींद के आगोश में
बड़े भाई-बहनों की इर्ष्या का पात्र बना
सोया हुआ था तुम्हारी गोद में।
तुममें ही सिमटा था
मेरा पूरा जहान।
माँ, ओ माँ, तू महान !
जाग कर आधी रात में लगता मैं बिलखने
उनींदी आँखों से आँसू लगते झरने
और भीग जाते मेरे घुटने।
भाँप लेती थी तब तू मेरे दर्द को, और
तेरी स्नेहिल पुचकार से
हो जाता दर्द सहज ही छूमंतर।
तेरे वत्सल स्नेह से
मिली अपार शक्ति मुझे-
कि बेख़ौफ़ निकल पड़ा
उसी एक आस-विश्वास के सहारे-
ज़िंदगी की डगर पर
जीतने जहान को।
है मुझको विश्वास-पूरा है विश्वास
कि हम फिर मिलेंगे कयामत के दिन
रहूँगा नहीं मैं, माँ,
तब भी अकेला-तुम्हारे बिन।