एक नजरिया यह भी:
राजनीति ( पॉलिटिक्स ) यूनानी भाषा के ‘पोलिस’ शब्द से बना है, जिसका अर्थ है – समुदाय, जनता या समाज .आमतौर पर हम लोग जनता की नुमाइंदगी करके सत्ता तक पहुँचने, बड़ा ओहदा हथियाने , जनता और सरकार का बिचौलिया बनकर अपने छल बल से जनता का पैसा अपने खाते में पहुँचाने या फिर जनता को लुभावने सपने दिखाकर गुमराह करने को ही राजनीति समझते हैं. परन्तु यदि हम अतीत पर गौर करें तो पाएगें कि बीते जमानें में अफलातून ( प्लूटो ) और अरस्तु ( एरिस्टोटल ) जैसे महान चिंतको ने ऐसे प्रत्येक विषय को राजनीति कहा, जिसका सम्बंध पूरे समुदाय को प्रभावित करने वाले सामान्य प्रश्नों से है. खैर यह भी सत्य है कि प्रत्येक मानव प्राणी की आत्म-सिद्धि के लिए समाजिक जीवन में सहभागिता आवश्यक है. गर हम बुनियादी तौर पर कहें तो मनुष्य एक राजनीतिक प्राणी है. इसका मतलब यह है कि हमारे रोजमर्रा की जिन्दगी में किया जाने वाला कार्य भी राजनीति का एक हिस्सा होता है. फर्क बस इतना है कि हमारे राजनीतिक कार्य राष्ट्र राजनीति न होकर स्वयं के लिए आत्म राजनीति होती है, जो हमें दिन प्रतिदिन सम्भालती है, सँवारती है और एक अच्छा इंसान बनाकर बेहतर जीवन की ओर अग्रसित करती है.
कुछ प्रेरक विचार :
1- बर्नार्ड़ क्रिक – राजनीति ऐसा क्रिया कलाप है जिसके द्वारा शासन के किसी खास इकाई के अन्दर आने वाले अलग अलग हितों को, सम्पूर्ण समुदाय की भलाई और अस्तित्व के लिए उनके अलग अलग महत्व को ध्यान में रखते हुए, उसी अनुपात में सत्ता में हिस्सा देकर उनके बीच सामंजस्य स्थापित किया जाता है.
2- उदारवादी दृष्टिकोण – राजनीति सामंजस्य की खोज की एक प्रक्रिया है.
3- राबर्ट ए. डैड्ल – राजनीति वह व्यवस्था है जिसका सम्बंध नियंत्रण, प्रभाव शक्ति और प्राधिकार से होता है.
4- रैफेल के अनुसार – राजनीति वह है, जिसका सम्बंध राज्य से होता है.
5- पाल जैनेट के अनुसार – राजनीति समाज का वह अंग है जिसमें राज्य का आधार तथा सरकार के सिद्धान्तों पर विचार करके जनता के बीच सुचारू रूप से लागू किया जाता है.
मौजूदा हालात:
यकीनन् हम यह कह सकते हैं कि आज आजाद भारत में राजनीति को अपना हथियार बनाने वाले जनता के चुने हुए अधिकतर नुमाइंदें ओछी राजनीति करके अपना उल्लू सीधा करने में दिन रात लगे हुए हैं. इन्होनें अपने काले करतूतों से स्वच्छ राजनीति की परिभाषा ही बदल ड़ाली है. आज तो राजनीति को साम्प्रदायिकता का जामा पहनानें का नया दौर चल रहा है. राजनीति में अपने को प्रबुद्ध वर्ग मानने वाला तबका भी निजी स्वार्थ के लिए सामाजिक ताने-बाने को बिगाड़नें के लिए तैयार बैठे हैं. जिधर देखिए, उधर बस भाषा, परिधान व नये नये वादों को हथियार बनाकर भारत की भोली भाली जनता की भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है. हर एक राजनीतिक व्यक्ति सेक्युलर बनने की होड़ में “अल्पसंख्यक राजनीति ” का सहारा ले रहा है. नतीजन आज स्थिति अत्यन्त भयावह है, साफ़ सुथरी छवि वाले राजनीतिक लोगो की सँख्या हाशिए पर आ खड़ी है. जरा सोचिए , जिस देश में जनता के चुने हुए नुमाइंदे ही दागदार हों, तो उस देश की राजनीति कितनी स्वच्छ होगी……???
जरा शर्म करो :
अपने उस वक्त को याद कीजिए, जब आप जनता को गुमराह करके सत्ता के गलियारों में पहुँचने में सफल हो जाते हैं. हत्या, चोरी, भ्रष्टता आदि आरोपों में घिरे होने के बावजूद भी जनता ने आपको एक मौका दिया है. वह आप ही तो थे, जो जाति धर्म को दरकिनार करके अपने निजी स्वार्थ के लिए लोगों की चरण वन्दना करते दिख रहे थे. उस वक्त क्या आपको शर्म नहीं आती है, जब आप सरपंच, विधायक, सांसद या ओहदेदार पद के लिए निष्ठा, इमानदारी व देशप्रेम की शपथ ले रहे होते हैं ? आपका अतीत और भविष्य दोनों इसके विपरीत ही रहने वाला है. क्या यह बापू या फिर मिसाइल मैन के सपनों का भारत है ? मंत्री, अफसर, धन्नासेठ सब अर्थजगत के शीर्षस्थ स्वामियों के हाथ की कठपुतली नज़र आते है. जनता के खून पसीनों के पैसों से मौज मस्ती व पानीदारी दिखाने वाले दागी नेताओं को शर्म से ड़ूब मरना चाहिए. आपका शायद एक सूत्री एजेण्ड़ा है कि अन्याय व अत्याचार से धन इकट्ठा करके चुनाव लड़ना, साम-दाम-दण्ड़-भेद अपनाकर कुर्सी हासिल करना और फिर घोटाला करके पैसों को स्विस बैंकों में भरना. याद रखिए ! नेता जी इसका हिसाब आप ही चुकता करोगे, जनता तो जवाब देगी ही, उससे कहीं अधिक वक्त बखूबी आपको सबक सिखाएगा. परन्तु मुझे यकीन है कि आप फिर भी जस के तस रहोगे, क्योंकि आप निर्लज्य हो. ऐसे भ्रष्ट नेताओं पर हमें धिक्कार है, धिक्कार है….!!
अतीत कुछ यूँ था:
वह भी एक वक्त था, जब लोग राष्ट्र को सही दिशा में ले जाने हेतु जान की बाजी खेलने तक को तैयार थे. इसके एक नहीं , सैकड़ो उदाहरण हमारे सामने हैं. राष्ट्र प्रेमी नेताओं के मन में एक अटल संकल्प था कि हम वतन के गौरव को शीर्ष पर पहुँचा कर ही दम लेंगे. ये वही क्रान्तिकारी राजनेता थे जिन्होंने अपने प्राणों की आहुति देकर भारत माता को बेड़ियों से मुक्त कराया. ‘तुम मुझे खून दो, मै तुम्हें आजादी दूँगा’, ‘ जय जवान जय किसान’, ‘हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान’, ‘ भारत माता अमर रहें , हम दिन चार रहें न रहें’….. के नारे और संकल्पों को साकार करने वाले नेताओं के बाद देश में उनके जैसा दूसरा नेता न होना बड़े दुर्भाग्य और दुःख की बात है. आज भारत माता अन्याय व अत्याचार से लाचार होकर चीख़ रहीं हैं कि कहाँ गए वो महात्मा गाँधी, सुभाष चन्द्र बोष, चन्द्रशेखर आजाद, भगत सिंह, चाचा नेहरू, अटल बिहारी वाजपेयी, ड़ा अब्दुल कलाम… जिन्होंने अपने समूचे जीवन को भारत माता के चरणों में न्यौछावर करके सार्थक राजनीति की एक मिशाल पेश की थी.
फिर ऐसा क्यूँ :
आजादी के कई दशक गुजर जाने के बाद भी रोटी के लाले क्यूँ ? नतीजन हजारो हजार लोग भुखमरी से मर रहें हैं. आम आदमी आज भी मूलभूत सुविधाओं से वंचित क्यूँ ? बेरोजगारी का आलम इस कदर है कि कुछ लोगों को मजबूरी में अपनी रोजमर्रा चलाने के लिए वतन छोड़ना पड़ता है. अन्नदाता कहा जाने वाला किसान आत्म हत्याएँ कर रहा है, गरीबी से जूझ रहा है , फिर भी अपना खून पसीना एक करके हमारे लिए अन्न पैदा करता ही है. परन्तु अन्नदाता की स्थिति दिन प्रतिदिन बदतर होती जा रही है, ऐसा क्यूँ ? इस मुल्क के अधिकारी, राजनेता, कर्मचारी, व्यापारी, उद्योगपति यहाँ तक कि न्यायाधीश पर भी बिकने का आरोप लगा हो, इतना ही नहीं, यहाँ कुछ लोग ऐसे भी है जो दो वक्त की रोटी के लिए अपना खून बेचते फिरते है, आखिर ऐसा क्यूँ ? यह विशेष गौरतलब है कि मुल्क की अर्थव्यवस्था महज कुछ एक लोगों के हाथों सिमटती जा रही है, जोकि भविष्य के लिए बेहद चिंतनीय है.
कुछ आप ही विचारिए:
यह सर्वमान्य हैं कि व्यक्ति से बड़ा परिवार, परिवार से बड़ा समाज, समाज से बड़ा राष्ट्र होता है. आवश्यकता पड़ने पर परिवार के लिए स्वयं को, समाज के लिए परिवार को और राष्ट्र के लिए समाज को प्रत्येक पल समर्पित रहना चाहिए. मगर आज का मंजर बिल्कुल विपरीत है, लोग स्वयं को परिवार , समाज और वतन से भी ज्यादा ऊपर समझने लगे हैं. “वसुधैव कुटुम्बकम” की व्यापक विचारधारा वाला देश महज व्यक्ति विशेष तक सिमटता नज़र आ रहा है.
यही वजह है कि राजनेता, अधिकारी , कर्मचारी, व्यापारी सब के सब भ्रष्टता में लिप्त दिख रहें हैं. स्वयं को इमानदार और गाँधीवादी बताने वाले लोग जनता की गाढ़ी कमाई से गुलछर्रे उड़ा रहे हैं. जिधर देखो उधर सिर्फ अवसरवादी, लोलुप, धूर्त लोगों का बोलबाला नज़र आ रहा है. स्थिति यह है कि सत्ता के गलियारों तक पहुँचने वाले अधिकतर राजनेता, राजनीतिक शुचिता और राजधर्म पालना से कोसों दूर नज़र आते है.
स्वयं के विचार बदलिए:
एक बात तो साफ है कि सत्ता की लौ में रोटी सेंकने वाले लोग स्वयं को नहीं बदल पाएगें, इसलिए आप ही उनको बदल दीजिए. वास्तविकता तो यह है कि इन नेताओं ने तो राजधर्म की परिभाषा ही बदल ड़ाली है. आलम यह है कि अधिकतर नेता राजधर्म को जानते तक नहीं हैं तो राष्ट्र सेवा ही कितना कर पाएगें …?? रामचरित मानस में बाबा तुलसी दास जी ने बिल्कुल सटीक लिखा है कि “राजा वही हो सकता है, जो प्रजा को त्रिताप से मुक्त करे”. चारो ओर परिवर्तन की अलख जग रही है, देर मत कीजिए, स्वयं के विचार बदलिए, नज़रिया तो स्वतः बदल जाएगा. स्वच्छ छवि, इमानदार, जुझारू, योग्य नेता चुनिए, जो समाज की विषमताओं को हुक्मरानों तक पहुँचाकर उसका निवारण करें, भारत माँ के गौरव को बढ़ाए और एक नई क्रान्ति लाए.
लेखिका परिचय –
“अन्तू, प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश की निवासिनी शालिनी तिवारी स्वतंत्र लेखिका हैं । पानी, प्रकृति एवं समसामयिक मसलों पर स्वतंत्र लेखन के साथ साथ वर्षो से मूल्यपरक शिक्षा हेतु विशेष अभियान का संचालन भी करती है । लेखिका द्वारा समाज के अन्तिम जन के बेहतरीकरण एवं जन जागरूकता के लिए हर सम्भव प्रयास सतत् जारी है ।”
सम्पर्क – shalinitiwari1129@gmail.com