परमपिता परमात्मा हमारा पिता है | पिता ही नहीं ,वह हमारा माता भी है | इतना ही नहीं संसार में जितने भी सम्बन्ध हैं , वह सब सम्बन्ध हम परमपिता परमात्मा से बना सकते हैं और इन संबंधों के आधार पर हम उस प्रभु के पास बैठ कर उसकी प्रेम पूर्वक स्तुति रूप प्रार्थना हम कर सकते हैं | ईश्वर स्तुति प्रार्थना और उपासना के लिए आर्य समाज के सत्संगों में गायन करने की परंपरा महर्षि दयानंद जी ने की है | भाव यह है कि हम प्रतिदिन उस पिता के निकट बैठ कर उसका परिचय प्राप्त करते हुए , उससे कुछ मांगें | इन आठ मन्त्रों में से प्रथम मन्त्र यजुर्वेद के अध्याय ३० से लिया है | मन्त्र इस प्रकार है :-
ओउम् ! विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव यद् भद्रं तन्न आसुव ||१|| यजु.३०.३
इस मन्त्र का अर्थ कराते हुए महर्षि उपदेश करते हैं कि हे सकल जगत् के उत्पत्तिकर्ता, समग्र एश्वर्ययुक्त ,शुद्धस्वरूप ,सब सुखों के दाता परमेश्वर ! आप कृपा करके हमारे सम्पूर्ण दुर्गुण , दुर्व्यसन और दु:खों को दूर कर दीजिये | जो कल्याणकारक गुण, कर्म, स्वभाव और पदार्थ हैं वह सब हमको प्राप्त कीजिये |
स्वामी जी की इस भावना को समाने रखते हुए हम इस मन्त्र को समझाने के लिए इस मन्त्र की इस प्रकार व्याख्या करते हैं : –
१ . जगत् का उत्पत्तिकर्ता परमेश्वर
मन्त्र में जो प्रथम उपदेश किया गया है वह यह है कि इस चलायमान् जगत् को उत्पन्न करने वाला परमपिता परमात्मा ही है | इस संसार में हमें सूर्य , चन्द्र , तारे दिखाई देते हैं , वह सब बनाने वाला वह परमात्मा ही है | जितनी वनस्पतियाँ फल और फूल दिखाई देते हैं , इन सब का निर्माता भी परमात्मा ही है | इन सब के अतिरिक्त जितने भी जीव हैं , चाहे वह जलचर हों, नभचर हों या फिर इस भूमि पर रहने वाले प्राणी हों , इन सब को जन्म देने वाला भी वह परमात्मा ही है | भाव यह है कि संसार के आकाश में , पाताल में अथवा इस भूमि पर हमें जो कुछ भी दिखाई देता है , उन सब का निर्माण परमपिता परमात्मा ने ही किया है | इन सब का निर्माता होने के कारण हम उस प्रभु के निकट बैठकर , उसकी स्तुति रूप प्रार्थना करें , उस से कुछ मांगें |
२. समग्र एश्वर्ययुक्त परमेश्वर
जिस परमपिता परमात्मा ने इस सृष्टि का निर्माण किया है , जलचर नभचर और भूचर प्राणियों का निर्माण किया है और इन प्राणियों के जीवन यापन के लिए फल ,फूल ,वनस्पतियों और ऑषधियों का निर्माण किया है , वह परमात्मा सब प्रकार के धनों और सब प्रकार के ऐश्वर्यों का स्वामी है | इस संसार में जितने भी प्रकार के ऐश्वर्य संपन्न करने वाले धन हैं , उन सब को देने वाला वह प्रभु ही है | उस के भण्डार प्रत्येक क्षण भरे रहते हैं , कभी खाली नहीं होते | एसे सब प्रकार के धनों के स्वामी की निकटता को पाने से ही हम भी कुछ न कुछ संपन्न हो सकते हैं , हम भी उन धनों में से कुछ भाग पा सकते हैं | इसलिए हम प्रतिदिन दोनों समय उस प्रभु के निकट बैठ कर उसकी प्रार्थना रूप स्तुति किया करें |
३ . शुद्धस्वरूप परमेश्वर
परमपिता परमात्मा सदा ही शुद्ध , पवित्र रहता है , उसमें कभी कोई दोष नहीं आता | हम दिन में अनेक बार स्वयं को शुद्ध करते हैं, पवित्र करते हैं | प्रात: उठते ही शौचादि से निवृत हो कर दन्त धावन करते हैं | इस प्रकार हम अपना अन्दर शुद्ध करते हैं | फिर हम शुद्ध – पवित्र होने के लिए स्नान करते हैं , परमपिता की निकटता पाने के लिए अपने आपको पवित्र करते हैं | भोजन के लिए बैठने से पूर्व भी हाथ मुंह धोते हैं | बाहर से आते ही हाथ मुंह आदि धोते हैं | इस प्रकार हमें अनेक प्रकार से अपने आप को एक ही दिन में अनेक बार पवित्र करना होता है किन्तु परमपिता परमात्मा को यह सब करने की कुछ भी आवश्यकता नहीं होती क्योंकि वह शुद्धस्वरूप होने के कारण सदा ही पवित्र रहता है , शुद्ध रहता है |
४ . सब सुखों के दाता परमेश्वर
ऋषि के शब्दों में और वेदमंत्र के अर्थों में यह स्पष्ट होता है कि उपर्युक्त तीनों विशेषताओं का स्वामी वह पिता हमारे लिए सब सुखों का दाता है | हमारे लिए जितने भी सुख हैं यथा माता – पिता या संतान का सुख, जीवन को सुखमय बनाने के लिए हमारे लिए बड़ी – बड़ी अटालिकाओं स्वरूप भवनों का सुख , जीवन यापन के लिए सब प्रकार के फल , फूल , वनस्पतियों व धनों का सुख अर्थात् इस संसार में जितने भी प्रकार के सुख हैं , उन सब सुखों का दाता होने के कारण वह प्रभु ही सुखों का उद्गम केंद्र है | हमें सुख चाहियें | इसलिए हम उस प्रभु के निकट बैठ कर उसकी प्रार्थना रूप उपासना करते हैं| अंत में हम कह सकते हैं कि उपर्युक्त विशेषणों के अतिरिक्त भी जितने प्रकार के भी सुखदायक विशेषण हो सकते हैं , वह सब प्रभु के आधिपत्य में ही संभव है | प्रभु के बिना हम कुछ भी नहीं पा सकते | इस कामना से हम उस प्रभु के निकट बैठकर उस से कुछ मांगने के लिए उसकी प्रार्थना रूप स्तुति सदा करते हैं |
५ . प्रभु ! हमारे सम्पूर्ण दुर्गुण , दुर्व्यसन और दु:खों को दूर कर
हम परमपिता परमात्मा केनिकट अपना आसन लगाते ही इस लिए हैं कि हम उससे कुछ मांग सकें | यह अबोध प्राणी अल्प बूढी रखता है | लोभी तथा स्वार्थी भी है | इस कारण इस प्राणी में अनेक प्रकार के दुर्गुण आ जाते हैं | वह लालच में आकर अनेक प्रकार के दुर्व्यसन भी अपने जीवन में ले आता है | इन दुगुनों और दुर्व्यसनों के कारन उस के जीवन में लड़ाई – झगडा, कलह – क्लेश तथा अनेक प्रकार के रोग भी आने लगते हैं जो उसको दू:खी करने का कारण बनाते हैं | हम पिटा कि निकटता पा कर उससे यह प्रार्थना करते हैं कि हमारे इन सब दुर्गुण , दुर्व्यसन और दु:खों को दूर कर दीजिये |
परमपिता परमात्मा दाता होने के कारण सदा कुछ न कुछ देता रहता है | कर्म करने में उसने जीव को स्वतन्त्र रखा है किन्तु फल भोगने की व्यवस्था उसने अपने हाथ में रखी है | किये गए प्रत्येक अच्छे व बुरे कर्म का फल उस के अनुरूप ही वह देता है | इसे कोई रोक नहीं सकता किन्तु हम बुरे कर्मों के करने से तब ही बच पाते हैं , जब हमें प्रभु का आशीर्वाद प्राप्त हो | बस यह आशीर्वाद पाने के लिए ही हम उसके निकट बैठ कर उसकी स्तुति रूप प्रार्थना करते हैं | इस कारण ही हम दुर्गुण और दुर्व्यसन करने से बच पाते हैं , जिस कारण हमें दु:ख नहीं आ पाते |
६. कल्याणकारक गुण, कर्म, स्वभाव और पदार्थ प्राप्त कीजिये
जब हमारे अन्दर के दुर्गुण, दुर्व्यसन तथा दु:ख परमपिता परमात्मा की निकटता पाने से दूर हो जाते हैं तो इस खाली हुए स्थान को भरने के लिए शेष जो रह जाता है , वह स्वयं ही हमारी झोली में आ जाता है और वह है कल्याणकारक गुण, कर्म, स्वभाव और पदार्थ | अत: हमारे अन्दर कल्याण करने वाले गुणों का आघान होता है हम सुख देने वाले कर्म करने की और अग्रसर होते है , हमारा स्वभाव भी एसा बन जाता है जो उत्तम गुणों से भरपूर होकर उत्तम कर्म करने की ओर प्रेरित करता है तथा हम मद्य मांसादी अपवित्र पदार्थों का सेवन छोड़कर उत्तम व सुख देने वाले पदार्थों का सेवन करने लगते हैं |
डा.अशोक आर्य
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