कार्तिक अय्यर सनातन धर्म को अपमानित करने के लिए प्रायः यह कहा जाता है कि ब्रह्मा जी ने अपनी पुत्री से जबर्दस्ती की। इस लेख में हम चर्चा करेंगे कि महर्षि दयानंद का किया अर्थ सर्वथा निरुक्त और ब्राह्मण ग्रंथों के अनुकूल है जोकि वेद के प्राचीन पारंपरिक ऋषियों के बनाए हुए व्याख्यान ग्रंथ हैं। इन्होंने ‘हिंदी ऋग्वेद’ नामक पुस्तक के पेज को प्रस्तुत करके कहा है कि इस मंत्र पर सायण भाष्य देखो जबकि सायणाचार्य के भाषा में भी इस मंत्र में कोई अश्लीलता नहीं दिखाई देती। प्रजापतिर्वै स्वां दुहितरमभ्यध्यायद् दिवमित्यन्य आहुरुषसमित्यन्ये। तामृश्यो भूत्वा रोहितं भूतामभ्यैत्। तस्य यद्रेतसः प्रथममुददीप्यत तदसावादित्योऽभवत्॥ – ऐ॰ पं॰ 3। कण्डि॰ 33, 34॥ प्रजापतिर्वै सुपर्णो गरुत्मानेष सविता॥ – शत॰ कां॰ 10। अ॰ 2। ब्रा॰ 7। कं॰ 4॥ तत्र पिता दुहितुर्गर्भं दधाति पर्जन्यः पृथिव्याः॥ – निरु॰ अ॰ 4। खं॰ 21॥ द्यौर्मे पिता जनिता नाभिरत्र बन्धुर्मे माता पृथिवी महीयम्। उत्तानयोश्चम्वो3र्योनिरन्तरत्रा पिता दुहितुर्गर्भमाधात् ॥1॥ – ऋ॰ मं॰ 1। सू॰ 164। मं॰ 33॥ (प्रजापतिर्वै स्वां दुहितरम॰) अर्थात् यहां प्रजापति कहते हैं सूर्य को, जिस की दो कन्या एक प्रकाश और दूसरी उषा। क्योंकि जो जिस से उत्पन्न होता है, वह उस का ही सन्तान कहाता है। इसलिये उषा जो कि तीन चार घड़ी रात्रि शेष रहने पर पूर्व दिशा में रक्तता दfख पड़ती है, वह सूर्य की किरण से उत्पन्न होने के कारण उस की कन्या कहाती है। उन में से उषा के सम्मुख जो प्रथम सूर्य की किरण जाके पड़ती है, वही वीर्यस्थापन के समान है। उन दोनों के समागम से पुत्र अर्थात् दिवस उत्पन्न होता है॥ ‘प्रजापति’ और ‘सविता’ ये शतपथ में सूर्य के नाम हैं॥ तथा निरुक्त में भी रूपकालङ्कार की कथा लिखी है कि-पिता के समान पर्जन्य अर्थात् जलरूप जो मेघ है, उस की पृथिवीरूप दुहिता अर्थात् कन्या है। क्योंकि पृथिवी की उत्पत्ति जल से ही है। जब वह उस कन्या में वृष्टि द्वारा जलरूप वीर्य को धारण करता है, उस से गर्भ रहकर ओषध्यादि अनेक पुत्र उत्पन्न होते हैं॥ इस कथा का मूल ऋग्वेद है कि- (द्यौर्मे पिता॰) द्यौ जो सूर्य का प्रकाश है, सो सब सुखों का हेतु होने से मेरे पिता के समान और पृथिवी बड़ा स्थान और मान्य का हेतु होने से मेरी माता के तुल्य है। (उत्तान॰) जैसे ऊपर नीचे वस्त्र की दो चांदनी तान देते हैं, अथवा आमने सामने दो सेना होती हैं, इसी प्रकार सूर्य और पृथिवी, अर्थात् ऊपर की चांदनी के समान सूर्य, और नीचे की बिछौने के समान पृथिवी है। तथा जैसे दो सेना आमने सामने खड़ी हों, इसी प्रकार सब लोकों का परस्पर सम्बन्ध है। इस में योनि अर्थात् गर्भस्थापन का स्थान पृथिवी, और गर्भस्थापन करनेवाला पति के समान मेघ है। वह अपने विन्दुरूप वीर्य के स्थापन से उस को गर्भधारण कराने से ओषध्यादि अनेक सन्तान उत्पन्न करता है, कि जिन से सब जगत् का पालन होता है॥1॥ ( महर्षि दयानंद कृत ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, ग्रंथप्रमाण्याप्रमाण्य विषय) पाठकों!महर्षि दयानंद का किया हुआ यह भाष्य निरुक्त, ऐतरेय और शतपथ ब्राह्मण के अनुसार है।महर्षि ने यहां पर एक रूपक अलंकार की कथा को माना है। ब्राह्मण ग्रंथों के अनुसार यहां पर प्रजापति का अर्थ ‘सूर्य’ उचित है तथा यहां पर दुहिता का शब्द का अर्थ ‘पृथ्वी’ करना उचित है।जहां सूर्य पिता है यानी पालन करने वाला। ‘पिता’ शब्द का यौगिक अर्थ वाला है। वह अपनी दुहिता यानी दूर में रहना जिसका हित है,यानी पृथ्वी– के गर्भ में अपनी सूर्य किरणें अथवा वर्षा जल रूपी वीर्य से गर्भ स्थापन करता है। जिससे औषधि आदि पुत्र उत्पन्न होते हैं यहां पर सारे के सारे शब्द योगिक हैं। मंत्र में किसी भी ऐतिहासिक व्यक्ति की चर्चा नहीं है, बल्कि प्राकृतिक पदार्थों का मानवीकरण अलंकार व रूपकालंकार सिद्ध है। इस मंत्र पर निरुक्तकार का अर्थ भी हम आगे प्रस्तुत करेंगे। यहां यह जान लेना चाहिए कि पृथ्वी का सूर्य से उचित दूरी पर होना है उसके हित में है क्योंकि इस दूरी के कारण ही पृथ्वी पर जीवन संभव है ;यदि पृथ्वी सूर्य के निकट होती तो इसका जीवन भी बस में हो जाता है नष्ट हो जाता।इसलिए पृथ्वी को पिता,”पालक” जन्म देने वाला ‘जनयिता’ रूप सूर्यलोक की ‘दुहिता’ कहा गया है।लेकिन लोग पिता और दुहिता का अर्थ लौकिक संस्कृत के अनुसार करते हैं,जोकि भूल है। क्यों दुहिता लौकिक संस्कृत में “पुत्री” को कहते हैं, इसलिये इस मंत्र के अर्थ में भ्रांति हुई। वेद के शब्द यौगिक-धातुपरक होते हैं, रूढ़ लौकिक संस्कृत के अनुसार नहीं होते- ये ऋषि परंपरा का मत है। एक बात का और उल्लेख करते हैं।
यहां पर ऐतरेय ब्राह्मण में भी प्रजापति का अर्थ सूर्य ही है इसलिए उसमें भी किसी पौराणिक ब्रह्मा का इतिहास सिद्ध नहीं होता। हम सायणाचार्य के संस्कृत भाषण और उसके हिंदी भावार्थ को उद्धृत करते हैं- सायणाचार्य कृत भाष्य- दीर्घतमा ब्रवीति। मे मम द्यौर्लोकः पिता पालकः। न केवलं पालकत्वमात्रं अपितु जनिता जनयितोत्यादयिता। तत्रोपरत्तिमाह।नाभिश्च नाभिभूतो भौमो रसोsत्र तिष्ठतीति शेषः। ततश्चात् जायते।अनाद्रेतः रेतसो मनुष्य इत्येवं पारम्पर्येण ननसम्बंधिनो हेतो रस्यात्र सद्भावात्।अनेनैवाभिप्रायेण जनितेत्युच्यते,अतएव बंधुर्बंधिका तथेयं मही महती पृथिवी मे माता मातृस्थानीया स्वोद्भूतौष व्यादिनिर्मित्रीत्यर्थः।…..अत्रीस्मिन्नन्तरिक्षे पिता द्युलोकः।अधिष्ठात्रधिष्ठानभेदनादित्यो द्यौरुच्यते।स्वरश्मिभिः।अथवा इंद्रः पर्जन्यो वा। दुहितादूर्रेनिहिताया भूम्या गर्भं सर्वोत्पादनसमर्थं वृष्ट्यदकलक्षणमाधात्। सर्वतः करोति। ( ऋग्वेद १/१६४/३३, सायणभाष्य)
द्यौ मेरा पालक पिता है। न केवल पालक पिता है ,बल्कि जनिता भी है यानी उत्पन्न करने वाला।नाभि से उत्पन्न भूमि रस यही है ,जिससे अन्य उत्पन्न होता है ।अन्न से वीर्य और वीर्य से मनुष्य आदि क्रम है। इस उत्पत्ति संबंध के कारण ही इसे जनिता कहा गया है यानी उत्पन्न करने वाला। ये मातृ स्थानीय पृथ्वी औषधि आदि उत्पन्न करने वाली है। यहां अंतरिक्ष का पिता द्युलोक है।अधिष्ठान और अधिष्ठाता भेद से आदित्य को जो भी कहते हैं यह अपनी रश्मि अथवा पर्जन्य यानी वर्षा के जल से दुहिता अर्थात् दूर पर स्थित पृथ्वी के गर्भ में सर्वोत्पादन समर्थ वर्षा जल से गर्भ धारण करता है। सायणाचार्यने स्पष्ट रूप से यहां पर पिता का अर्थ पालक लिया है क्योंकि पिता पति यह दोनों शब्द ‘पा-रक्षणे’धातु से बने हैं,जिसकाका अर्थ रक्षण और पोषण करने वाला होता है। रक्षण और पोषण -यह दोनों काम पिता और पति करते हैं इसलिए यहां पर सूर्यलोक को पिता यानी पालक कहा गया है यहां पर लौकिक पिता यानि जन्म देने वाला बाप यह अर्थ नहीं है अपितु यौगिक अर्थ लिया गया है। पृथ्वी को यहां पर दुहिता कहा गया है दुहिता का अर्थ आचार्य सायण निरुक्त कार महर्षि यास्क के अनुसार “दूर में स्थित लेते हैं ,या दूर में स्थित होुा जिसके हित में है” करते हैं। लौकिक संस्कृत में दुहिता का अर्थ पुत्री होता है यानी बेटी। लेकिन वेद के शब्द यौगिक होते हैं।वेद के शब्द लौकिक अर्थ देने वाले नहीं हैं। इसलिए सायण ने पिता और दुहिता का निरुक्त के आधार पर जो अर्थ किया है वह सत्य है और विपक्षी का यह कहना आर्य समाजियों ने जानबूझकर के इस मंत्र के अर्थ को बदल दिया है,बिलकुल गलत है और यह सायण आचार्य के लेख से ही झूठ प्रमाणित होता है। देखिये, पिता का यौगिक अर्थ-पाति रक्षतीति पिता जनको वा;पाति रक्षतीति पति:स्वामी वा।- उणादि कोश ४/५८ सायन भाष्य के साथ हम एक और पौराणिक आचार्य वेंकट माधव के भाषा को भी उद्धृत करते हैं द्योर्मेपिता जनयिता वर्षणान्मम सन्महनकृत्। तेजो दिवि भवति पार्थिवैर्धातुभिः शरीरं बध्यते। यतश्च महती इयं पृथिवी मम बंधुः माता भवति।उत्तानयोः द्यावापृथिव्योः मध्य अवकाशरूपमंतरिक्षं भवति। तत्र दुहितुः अद्भ्यः पृथिवी जातेति पर्जन्यस्य दुहिता भवति। स तस्या गर्भं दधाति। ततः शुक्रशोणितसंसर्गज्जीवः प्रादुर्भवतीति। ( वेंकटमाधव कृत भाष्य, ऋग्वेद १/१६४/३३, वि.वै.शोधसंस्थान होश्यारपुर संस्करण, भाग ३, पृष्ठ ३६७) वेंकट माधव भाष्य, जो कि एक प्राचीन काल के पौराणिक भाष्यकार का अर्थ है।उन्होंने भी कुछ ऐसा ही अर्थ किया यहां वेंकट माधव,सायण, निरुक्त कार और महर्षि दयानंद “दुहिता” शब्द से “पृथ्वी” अर्थ लेते हैं ।हां,महर्षि दयानंद पृथ्वी अर्थ के साथ साथ ऐतरेय ब्राह्मण के प्रमाण से ‘उषा’ अर्थ भी लेते हैं। यह दोनों अर्थ सर्वथा प्रामाणिक और युक्ति संगत ह।ै इस प्रकार ब्रह्मा सरस्वती विषयक जो पौराणिक कथाएं हैं उसका इस मंत्र से कोई संबंध नहीं है। इस मंत्र पर निरुक्त में यही बात लिखी है जो महर्षि दयानंद ने भी किया । द्यौ को पिता पालन करने वाला,जन्म देने वाला इन अर्थों के संदर्भ में लेते हैं।बंधु शब्द का अर्थ बंधन यानी बांधने वाला करते हैं। दुहिता का अर्थ निरुक्तकार पहले ही कर चुके हैं:-
तत्र पिता दुहितुः गर्भं दधाति पर्जन्यः पृथिव्याः ।
ऊर्ध्वतानः वा ।द्यौः मे पिता पाता वा पालयिता वा जनयिता ।
बन्धुः संबन्धनात् ।नाभिः संनहनात् ।नाभ्या सन्नद्धाः गर्भाः जायन्ते ।
इति आहुः ।एतस्मात् एव ज्ञातीन् सनाभयः इति आचक्षते ।
सबन्धवः इति च ।उत्तानयोः चम्वो३ðङ योनिः अन्तः अत्र पिता दुहितुः गर्भं आ अधात् । । ४.२१ निरुक्त ।।
दुहिता-दुर्हिता दूरे हिता दोग्धेर्वा।।
( निरक्त ३/१)
दुहिता का अर्थ ,दूर रहना जिसके हित में है, या जो (ऐश्वर्य आदि) काी दोग्ध्री=दोहन करने वाली है, किया है।
इस पूरे व्याख्यान का सार यह है कि इस मंत्र में सूर्य को पिता यानी पालक पृथ्वी को दुहिता यानी दूर रहना जिस के हित में है ,कहा गया है । यह पालक पिता अपनी सूर्य किरणें या वर्षा जल रूपी वीर्य से पृथ्वी में औषधि आदि को जन्म देता है।कुल मिलाकर इस मंत्र में किसी भी ऐतिहासिक मनुष्य जिसका नाम ब्रह्मा था और जिसने अपनी बेटी सरस्वती से मैथुन किया का कोई उल्लेख नहीं है ।महर्षि दयानंद का अर्थ निरुक्त ,ब्राह्मण ग्रंथ,सायण,वेंकट माधव के अनुकूल है।
इस भ्रान्ति का प्रचार व्यर्थ में वेदों की निंदा के लिए किया जाता हैं।