स्वच्छ भारत अभियान एक अधिक उन्नत भारत का पैगाम बनकर आया है। स्वच्छता के कई पहलू हैं, जिनमें खुले में शौच की चुनौती वास्तव में अहम है। एक नए शोध के आने के बाद, जिसका यह निष्कर्ष था कि साफ-सफाई में लापरवाही भी बच्चों में कुपोषण बढ़ाती है, इसमें यूनिसेफ का एक सम्मलेन लोगों में स्वच्छता के प्रति जागरूकता फैलाने के उद्देश्य से आयोजित गया ताकि बच्चों को अपूर्ण शारीरिक विकास जैसी समस्याओं से बचाया जा सके। इस सम्मलेन में खुले में शौच का मुद्दा पूरी गंभीरता से उठाया गया।
सम्मलेन में बताया गया कि भारत की आबादी का आधा हिस्सा या कम से कम 62 करोड़ लोग खुले में शौच करते हैं। और हालिया शोध यह बताता है कि बच्चों की करीब आधी आबादी के शारीरिक विकास के अवरुद्ध होने का यह बड़ा कारण हो सकता है। हालांकि कई शोधकर्ता इससे सहमत हैं कि असंतुलित आहार और खानपान की आदतें भी भारत में कुपोषण के लिए जिम्मेदार हैं, पर कइयों का यह मानना है कि गंदगी कुपोषण के महत्वपूर्ण कारकों में एक हो सकता है। इसकी वजह यह है कि मानव और पशुओं के मल से जीवाणु संबंधी ऐसा संक्रमण फैलता है, जो बच्चों में पोषक तत्व अवशोषित करने की क्षमता को कमजोर कर देता है। ऐसे ‘मोबाइल टॉयलेट’ से मुक्ति हमारे लिए बड़ी चुनौती है।
मज़बूरी
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जरा सोचें तो सही कि आश्चर्यकारी संचार क्रांति से लेकर मंगल ग्रह में भारतीय मंगलयान की दस्तक तक की रोमांचक उपलब्धियों के बावजूद इक्कीसवीं सदी का हमारे भारत की आधी से अधिक आबादी खुले में शौच जाने को मजबूर है। इसके परिणामस्वरूप अनेक बीमारियां जिनमें उल्टी-दस्त प्रमुख हैं, बड़े पैमाने पर फैलती हैं, जिनकी परिणति कई बार मृत्यु पर ही होती है। योजनाओं में शौचालय निर्माण की बात तो जोर-शोर से की जाती है, लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और ही तस्वीर हमारे सामने रख रही है, उससे मुंह फेर लेना अपने पांवों पर कुल्हाड़ी मारने की तरह है।
हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में पॉपुलेशन हेल्थ के प्रोफेसर डॉ एस.वी. सुब्रमण्यम ने खुलासा किया है कि यह समस्या गरीब घरों में ही नहीं, संपन्न तबकों के बच्चों में भी है। इसकी वजह यह है कि बेशक संपन्न घरों में शौचालय की सुविधा होती है, पर उनके आसपास के विपन्न घरों में ऐसा नहीं होता। नतीजतन मक्खियों और पानी के माध्यम से वह भी इस बैक्टीरिया से संक्रमित होते हैं। इसलिए सुब्रमण्यम ठीक कहते हैं कि आपके घर में शौचालय का होना भी आपकी सुरक्षा की गारंटी नहीं है।
बौनापन
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बौनेपन की वजह से बच्चा शारीरिक और मानसिक रूप से कमजोर होता है। दुनिया भर में शारीरिक रूप से अपूर्ण बच्चों में से 40 फीसदी बच्चे दक्षिण एशिया में हैं। दक्षिण एशिया में अपेक्षाकृत कम शौचालय और दुनिया के अन्य भागों की तुलना में यहां जनसंख्या का घनत्व काफी ज्यादा होना इसके कारण हो सकते हैं। दक्षिण एशिया में यूनिसेफ की क्षेत्रीय निदेशक कैरिन हल्शॉफ कहती हैं -अगर हमने खुले में शौच करना बंद नहीं किया, तो इसका कोई मतलब नहीं रह जाएगा कि बच्चों को कितना भोजन दिया जाए, क्योंकि उनका विकास अवरुद्ध ही रहेगा।
सेनिटेशन केवल मानवीय स्वास्थ्य के लिए ही महत्वपूर्ण नहीं है, बल्कि यह आर्थिक और सामाजिक विकास के लिए भी निहायत जरूरी है। बावजूद इसके भारत में पूर्ण स्वच्छता के सामने बहुत सारी चुनौतियां हैं। सरकारी पहल से लेकर, खुले में शौच और साफ-सफाई से संबंधित आदतों तक की। लोगों की आदतों और लापरवाह व्यवहार को बदलना इतना आसान नहीं होता। आदतों में बदलाव तो एक चुनौती है ही पर समझदार लोगों की समझदारी भी सवालों के घेरे में है। ठीक है कि सरकारें सबको शौचालय देना चाहती हैं लेकिन इस बात का भी ध्यान रखना होगा कि अधकचरी समझ से बन रहे शौचालय कहीं देश के भूजल को न प्रदूषित कर दें। इसके अलावा उनके रख-रखाव के लिए ठोस कदम उठाना भी जरूरी है।
त्रासदी
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वाटर कीपर एलायंस की कर्मठ स्तम्भ मीनाक्षी अरोड़ा बताती हैं कि दुनिया में सर्वाधिक लोग दूषित जल से होने वाली बीमारियों से पीड़ित हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के आकड़े बताते हैं कि दुनिया में प्रतिवर्ष करीब 6 करोड़ लोग डायरिया से पीड़ित होते हैं, जिनमें से 40 लाख बच्चों की मौत हो जाती है। डायरिया और मौत की वजह प्रदूषित जल और गंदगी ही है। अनुमान है कि विकासशील देशों में होने वाली 80 प्रतिशत बीमारियां और एक तिहाई मौतों के लिए प्रदूषित जल का सेवन ही जिम्मेदार है। प्रत्येक व्यक्ति के रचनात्मक कार्यों में लगने वाले समय का लगभग दसवां हिस्सा जलजनित रोगों की भेंट चढ़ जाता है। यही वजह है कि विकासशील देशों में इन बीमारियों के नियंत्रण और अपनी रचनात्मक शक्ति को बरकरार रखने के लिए साफ-सफाई, स्वास्थ्य और पीने के साफ पानी की आपूर्ति पर ध्यान देना आवश्यक हो गया है। निश्चित तौर पर साफ पानी लोगों के स्वास्थ्य और रचनात्मकता को बढ़ावा देगा। कहा भी गया है कि सुरक्षित पेयजल की सुनिश्चितता जल जनित रोगों के नियंत्रण और रोकथाम की कुंजी है।
उम्मीदें
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हालांकि दिल्ली विश्वविद्यालय में दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से जुड़े डॉ. डीन स्पीयर्स काफी आशान्वित हैं। उनकी मानें, तो वक्त तेजी से बदल रहा है। वाकई पांच वर्ष पहले तक कुपोषण पर होने वाली बहसों में गंदगी की समस्या बमुश्किल ही शामिल होती थी, मगर अब हम इसके बारे में बात करने लगे हैं। और यह निश्चय ही भविष्य के लिए सुखद संकेत है। अध्ययन से पता चलता है कि शौचालय के इस्तेमाल से संबंधित आदत और सोच को बदलना खुले में शौच की प्रवृति को रोकने के लिहाज से अत्यंत महत्वपूर्ण साबित हो सकता है। यदि भारत साल 2019 तक खुले में शौच की परिघटना को समाप्त करना चाहे तो ग्रामीण इलाकों में शौचालय के निर्माण के साथ-साथ उसके उपयोग और रखरखाव को बढ़ावा देना बहुत जरुरी होगा।
इक्कीसवीं सदी के चमत्कारिक विकास की चकाचौंध में मर्यादा-पोषक समाज के निर्माण का स्वप्न तक अधूरा रहेगा जब तक खुले में शौच जैसी अवरोधक स्थिति कायम रहेगी।
(लेखक स्टेट रिसोर्स पर्सन, यूथ रेडक्रास एवं ,शासकीय दिग्विजय कालेज राजनांदगांव, में प्राध्यापक हैं)
मो.9301054300