Tuesday, December 24, 2024
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कौए बनाम कोयलः अपने देश में हिंदी को बोलियों और कटु बोलों से बांटने की साजिश

इधर सोशल मीडिया पर ‘कौए-कोयल’ के नाम पर जारी नये पुराने हिसाब चुकाने का खेल देख कर लगता है जैसे इस बार शीत के बाद ‘बसंत’ नहीं ‘पतझड़’ आ गया हो। पिछले दिनों बेशक कुछ अलग कारणों से ही सही लेकिन साहित्य जगत में कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न उठाये गये लेकिन वे विवादों में उलझ कर अपने उद्देश्य से भटक गए। नरेन्द्र कोहली ने कवियों की योग्यता पर प्रश्न सवाल उठाये। हालांकि कोहली जी ने स्वयं को भी ‘कविता के नासमझों’ की सूची में रखा है। दिल्ली सरकार की हिंदी अकादमी की उपाध्यक्षा पुष्या मैत्रयी ने ‘अन्तर्राष्ट्रीय सेमिनारों’ की गुणवत्ता पर टिप्पणी की तो व्यंग्य यात्रा के संपादक प्रेम जन्मेजय ने भास्कर में प्रकाशित अपने व्यंग्य लेख में शरद ऋ़तु में भारत आने वाले प्रवासी पक्षियों की तुलना प्रवासी हिंदी साहित्यकारों से की।

जाहिर है हर बात के अनेक पहलु होते हैं। इस बात से शायद ही किसी गंभीर रचनाकार की असहमति होगी कि सोशल मीडिया पर इधर हिंदी साहित्य जगत में कवियों की बाढ़ सी आ गई है। अनेक मित्रों ने कविता की ‘फैक्ट्री’ लगाते हुए एक ही दिन में कई-कई कविताओं का ‘उत्पादन’ करना आरम्भ कर दिया है। छन्द, लय, तुकबंदी तो दूर ऐसी अधिकांश कविताओं में कोई संदेश नहीं। न ही शब्द सौंदर्य। केवल सपाट बयानी। अतः ऐसी कविता के जनक ‘महाकवियों’ को गंभीर होने की सलाह देना कोई अपराध नहीं है। लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं कि आज अच्छी कविता हो ही नहीं रही है। यदि हम देखे तो सोशल मीडिया से लघुपत्रिकाओं तक अनेक बहुत अच्छे कवि, ग़ज़लकार, गीतकार, दोहाकार भी मौजूद हैं। उन सभी का अभिनन्दन। लेकिन हम अभिनन्दनीय कैसे बने इस पर विचार की आपेक्षा भी।

यह सभी ‘अनुभवी’ जानते हैं विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) से प्राप्त अनुदान को किस प्रकार ठिकाने लगाया जाता है। देश भर में आयोजित होने वाले इन सेमिनारों में लगभग वहीं चेहरे। यानि तेरे कालेज में ‘मैं’ और मेरे कालेज में ‘तू’। एक ही दिन में एक से अधिक ‘अन्तर्राष्ट्रीय सेमिनारों’ में सहभागिता के उदाहरण भी सहज मिल जायेंगे। उद्घाटन सत्र अथवा भोजन के बाद के सत्रों में सभागार के श्रोताओं से अधिक मंच पर वक्ता होते है। यह विशेष उल्लेखनीय है कि श्रोताओं में अनेक अगले सत्रों के वक्ता भी शामिल होते हैं।

महत्वपूर्ण प्रश्न यह कि आखिर किसी सेमिनार को आप आधार पर ‘राष्ट्रीय’ अथवा ‘अन्तर्राष्ट्रीय’ घोषित करते हैं? वातानुकुलित क्लास अथवा वायुयान का किराया तथा अन्य सुविधाएं आदि प्राप्त करने वाले वक्ताओं को आमंत्रित करने का आधार क्या है? यही न कि उन्होंने मुझे बुलाया था इसलिए यह मेरा कर्तव्य है कि मैं उस ऋण को चुकाऊ। ‘तूने मेरी पीठ खुजलाई, मैं तरी पीठ।’

ऐसे सेमिनारों में कितने शोधपत्र प्राप्त हुए इसे उपलब्धि माना जाता है लेकिन ‘शोधपत्र’ या तो पढ़े ही नहीं जाते या फिर समय अभाव में कुछ पंक्तियां पढ़कर उसे पढ़ा हुआ मान लिया जाता है। मंच पर विराजित अध्यक्ष से मुख्य अतिथि और विशिष्ट अतिथि तक विषय पर बोले या जो मन में आये यह उनकी ‘तैयारी’ पर निर्भर करता है। वैसे शोधपत्र क्या है इसे भी पारिभाषित किया जाना चाहिए। क्या किसी आलेख को केवल पाद टिप्पणी और कुछ यहां- वहां से संदर्भों के आधार पर ‘शोध पत्र’ कहा जा सकता है?

अब प्रश्न यह भी है कि जब हर तरफ सेमिनारों की धूम मची हो तो इतनी कोयले कहां से आएगी कि जो हर सेमिनार को गुलशन बना सकें। जाहिर है जब ‘मांग और पूर्ति’ का नियम काम करेगा तो अपने संबंधों अथवा गणेश परिक्रमा के नाम पर कौए भी अपना स्थान बनाने में सफल हो जाते हैं। ये कौए ‘पराये आसमान’ के कम और अपने ‘घोसलों’ के ज्यादा हैं।

पराये आसमान में भी दो प्रकार के कौए बनाम कोयलें हैं। एक वे जो थे तो हमारे लेकिन कई पीढ़ियों से वहीं बस गये हैं। सदियों से इस धरती, इस हवा, इस फिज़ा से दूर रहते हुए भी यदि वे अपने पूर्वजों की धरती के ‘स्वर’ (हिंदी) नहीं भूले तो वे निश्चित रूप में वन्दनीय हैं। ईमानदारी से कहे तो जो विपरीत परिस्थितियों में रहते हुए भी गा रहे हैं वे संरक्षण प्राप्त ‘कोयल’ से अधिक सम्मानित होने चाहिए।

दूसरे प्रकार के कौए बनाम कोयल वे हैं जो हमारे थे और अब भी हमारे ही हैं। यानी कुछ वर्षों से आर्थिक कारणों से पराये आसमान में उड़ान भरने वाले अब भी लगातार यहां आते-जाते रहते हैं। उनके अनेक परिजन यहां हो सकते हैं। उनसे सम्पर्क और संवाद के कारण उन्हें निज भाषा और संस्कृति का अभ्यास बना हुआ है। ये कौए बनाम कोयल अगर कुछ रचनातमक लेखन कर रहे हैं तो उनका भी अभिनन्दन होना चाहिए। परंतु प्रथम और द्वितीय वर्गों के अंतर का समझना होगा। अगर कौए के कई प्रकार के होते हैं तो कोयलों में भी अनेक आकार और प्रकार हैं।

5 फरवरी, 2017 फेसबुक प्रेम जन्मेजय जी के ‘कौए बनाम कोयल’ वाले व्यंग्य पर मॉरिशस के हिन्दी सेवी विद्वान रामदेव धुरन्धर जी की प्रतिक्रिया और उसपर अनेक अन्य मित्रों की प्रति-प्रतिक्रियाएं और विभाजन देख कष्ट हुआ कि आखिर हम कहां जा रहे हैं? स्वयं भारत में, हिदी भाषी क्षेत्रों में साहित्य के प्रति रूचि लगातर रसातल में जा रही है। इलैक्ट्रोनिक मीडिया के बाद सोशल मीडिया के आगमन के बाद आज स्थिति यह है कि अधिकांश घरों में टेबल पर रखें समाचार पत्र- पत्रिकाएं खुल भी नहीं है कि अगली आ जाती हैं। हम रचनाकार भी तो अपने छपे को खुद पढ़कर अथवा आपस में एक दूसरे को जबरदस्ती पढ़वाकर स्वयं को कोयल घोषित कर फूले नहीं समाते।

पिछले दिनों एक जाने-माने प्रतिष्ठान में जाना हुआ। वह प्रतिष्ठान अनेक पत्रिकाओं की खरीद भी करता है। वहां ढ़ेरो पुरानी पैकड पत्रिकाओं को खोल कर फाड़ते देखा तो कारण जानना चाहा। उन्होंने बामुश्किल बताया कि ये विभिन्न पुस्तकालयों में भेजी जानी थी पर पर पर पर ……! इसलिए अब इन्हें फाड़कर नष्ट किया जा रहा है।
‘इन्हें बिना फाड़े भी तो रद्दी में बेचा जा सकता है। ताकी कम से कम यह ‘श्रेष्ठ’ साहित्य लिफाफे बनाने के काम तो आ सके’ के जवाब में ‘उन्होंने’ जो उत्तर दिया वह स्वयं को ‘श्रेष्ठ कोयल’ समझने वालों की आंखे खोल सकता हैं। परंतु उन्होंने स्वयं को अपने ‘चमचों- चेलो’ से बांध रखा हैं। वे केवल उन्हीं की जय-जयकार सुनते हैं। और चेले भी मुंह पर जय जयकार पीठ पीछे……. खैर छोड़ो जाने दो।

‘अपुन’ नामधारी एक सज्जन(?) जो सरकारी नौकर हैं। उनके हर महीने कई कई संग्रह प्रकाशित होंते हैं। ये तो राम ही जाने कि कब अपने पद की जिम्मेवारी निभाते हैं और कब कवितायें लिखते हैं क्योंकि दिनभर सोशल मीडिया पर उनकी सक्रियता देखी अनुभव की जा सकती है। ये एक उदाहरण भर है, ऐसे अनेक ‘प्रतिभा संपन्न’ अपुन हैं।

मेरा सभी मित्रों और मित्रों द्वारा कब्जाई गई संस्थाओं से आग्रह है कि वे साहित्य के साथ साथ सेमिनारों के प्रभावों, और उनके स्वरूप की गुणवत्ता पर गंभीर विमर्श आरंभ करें।

विशेष आग्रह यह कि जब हम अपने परिवेश में रहते हुए भी साहित्य को लोकप्रिय बनाने के लिए कुछ विशेष नहीं कर पा रहे हैं, ऐसे में अगर कोई कई पीढ़ियों से भारत से दूर रहकर भी कुछ ‘भारतीय’ करता है तो हमें उसका उत्साहवर्धन करना चाहिए। साहित्य में ‘अमरसिंहों’ की भूमिका तभी कम हो सकती है जब ‘मुलायम’ कम हो। जब तक अपने और अपनों को प्रोजेक्ट करने का खेल चलता रहेगा यानी साहित्य के नाम पर सम्मान, पुरस्कारों’ से सेमिनारों की राजनीति रहेगी। यह सर्व विदित है कि ऐसे कौए बनाम कोयले ही अपने आकाओं के इशारे पर ‘पुरस्कार वापसी’ करते हैं। फसल अलग हो सकती है पर नस्ल वहीं है। कल भी परिणाम वहीं होंगे।

अपने देश में हिंदी को बचाना और बढ़ाना है तो उसे बोलियों के नाम पर उसे तोड़ने की कोशिशों से भी अधिक खतरानाक ‘कोयल बनाम बौए’ जैसे ‘कटु बोलों’ से बचाना होगा। तभी हम यह ध्यान दे पायेंगे कि विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने हिंदी और भारतीय भाषाओं की शोध पत्रिकाओं को नहीं बल्कि अंग्रेजी के शोध पत्रिकाओं को ही मान्यता प्रदान की है। ये संकेत है कि बोलियों और बोलो के नाम पर बांटकर भविष्य की क्या योजना अंग्रेजी दा अधिकारियों के मन-मस्तिष्क में है।

आशा है स्वम्भु कोयलें मुझ ‘कर्कश कौए’ की आवाज अनुसनी नहीं करेगी।

डा. विनोद बब्बर
संपर्क- 09868211911, 7892170421
rashtrakinkar@gmail.com
संपादक– राष्ट्र किंकर,
ए-2/9ए, हस्तसाल रोड,
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वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुंबई
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