जैसे जैसे 2024 का आम चुनाव नज़दीक आता जा रहा है, वैसे-वैसे देश में देश में समान नागरिक संहिता (UCC) लागू करने की संभावना बढ़ती जा रही है। समान नागरिक संहिता दरअसल, भारतीय जनता पार्टी की पार्टी के गठन के बाद से ही तीन प्रमुख चुनावी वादा यानी एजेंडा रहा है, जिसमें से दो वादे को भाजपा पहले ही पूरा कर चुकी है।
केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह कहते रहे हैं कि भारतीय जनता पार्टी सभी लोकतांत्रिक चर्चाओं और बहसों के पूरा होने के बाद देश में समान नागरिक संहिता (UCC) लागू करेगी। अमित शाह के अनुसार न सिर्फ भाजपा, बल्कि संविधान सभा ने भी संसद और राज्यों को उचित समय आने पर समान नागरिक संहिता लागू करने की सलाह दी थी, क्योंकि किसी भी धर्मनिरपेक्ष देश में कानून धर्म के आधार पर नहीं होने चाहिए।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दूसरी बार प्रधानमंत्री बनने के बाद 5 अगस्त 2019 को जम्मू-कश्मीर के विशेष दर्जे के साथ अनुच्छेद 370 एवं अनुच्छेद 35 ए को ख़त्म करके भारतीय जनता पार्टी का कई दशक पुराना वादा पूरा कर दिया। इसी तरह कश्मीर का विशेष दर्जा ख़त्म करने की पहली सालगिरह यानी दूसरे 5 अगस्त 2020 को प्रधानमंत्री ने अयोध्या में भगवान श्री राम मंदिर के निर्माण की आधारशिला रख करके भाजपा दूसरा वादा भी पूरा कर दिया। इसके बाद लोग सवाल करने लगे कि क्या प्रधानमंत्री अपने दूसरे कार्यकाल में देश में समान नागरिक संहिता भी लागू कर देंगे?
दरअसल, बल्कि भारतीय जनसंघ की स्थापना के बाद से ही इस जनसंघ और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दो प्रमुख मुद्दे रहे थे। पहला जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 और 35 ए का खात्मा और दूसरा देश में समान नागरिक क़ानून यानी यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू करना। 1980 के दशक में अयोध्या में राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवादित स्थल का ताला खोलने के बाद आरएसएस ने अपने तीसरे एजेंडे के रूप में अयोध्या में भगवान श्रीराम के मंदिर का निर्माण का मुद्दा शामिल कर लिया और जनसंघ के बाद अस्तित्व में आई भाजपा ने संघ के इन तीन प्रमुख मुद्दों को अंगीकार कर लिया।
भाजपा अपने हर चुनाव घोषणा पत्र में इस तीनों मुद्दों का ज़िक्र करती रही है। तीनों वादों में से नरेंद्र मोदी ने दो वादे को पहले ही पूरा कर दिया है। अब केवल तीसरा वादा पूरा करना बाक़ी रह गया है। सितंबर 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने समान नागरिक संहिता का जिक्र किया था। देश की सबसे बड़ा अदालत ने इस बात पर निराशा जताई थी कि भारत में अब तक समान नागरिक संहिता लागू करने के लिए कोई प्रयास नहीं किया गया। इससे पहले अक्टूबर 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से कहा था, कि देश में अलग अलग पर्सनल लॉ की वजह से भ्रम की स्थिति बन जाती है। इसलिए सरकार एक समान कानून बना कर इस विसंगति को दूर कर सकती है। यह अदालत चाहती है कि सरकार को यह काम कर देना चाहिए। हालांकि संविधान बनाते समय समान नागरिक संहिता पर विस्तृत चर्चा हुई थी। अनुच्छेद 44 में नीति निदेशक तत्व के तहत उम्मीद जताई गई थी कि भविष्य में ऐसा क़ानून बनाया जाएगा।
आज़ादी मिलने के बाद देश में केवल हिंदुओं के लिए इस तरह का क़ानून बनाया गया। सन् 1954-55 में भारी विरोध के बावजूद तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू हिंदू कोड बिल लेकर आए। इसी आधार पर हिंदू विवाह कानून और उत्तराधिकार कानून जैसे क़ानून बनाए गए। देश में हिंदू, बौद्ध, जैन और सिख धर्म के लिए विवाह, तलाक और उत्तराधिकार जैसे कानून संसद ने बना दिए, लेकिन मुस्लिम, ईसाई और पारसी समुदायों को अपने-अपने धार्मिक कानून यानी पर्सनल लॉ के आधार पर ही शादी, तलाक और उत्तराधिकार की परंपरा चलाने की छूट दी गई। हालांकि इस तरह की छूट नगा ट्राइबल समेत देश के कई आदिवासी समुदायों को भी हासिल है।
समान नागरिक संहिता का मतलब है विवाह, तलाक, बच्चा गोद लेने और संपत्ति के बंटवारे जैसे विषयों में देश के सभी नागरिकों के लिए एक जैसे नियम बनाना। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि इसका मतलब परिवार के सदस्यों के आपसी संबंध और अधिकारों को लेकर समानता। लिंग, जाति, धर्म, परंपरा के आधार पर कोई रियायत न देना। फ़िलहाल भारत में नागरिकों को धर्म और परंपरा के नाम पर अलग नियम मानने की छूट मिली हुई है। मसलन, किसी समुदाय में बच्चा गोद लेने पर रोक है, तो किसी समुदाय में पुरुषों को एक से अधिक शादी करने की इजाज़त है। कहीं-कहीं विवाहित महिलाओं को पिता की संपत्ति में हिस्सा न देने का नियम लागू है। समान नागरिकता क़ानून लागू होने पर किसी समुदाय विशेष के लिए अलग से कोई नियम नहीं होंगे। सबके लिए एक ही क़ानून होगा।
इतिहास गवाह है कि जब भी यूनिफॉर्म सिविल कोड की बात होती है, तब धार्मिक कट्टरपंथी इस क़दम को सीधे अपने मज़हब पर हमले की तरह पेश करने लगते हैं, जिससे मुद्दा दूसर ही स्वरूप ले लेता है। दरअसल, समान नागरिक संहिता का यह मतलब कतई नहीं है कि इसकी वजह से विवाह मौलवी या पंडित नहीं करवा पाएंगे। समान नागरिक संहिता लागू होने पर भी परंपराएं बदस्तूर बनी रहेंगी। इतना ही नहीं नागरिकों के खान-पान, पूजा-इबादत और रहन-सहन पर इसका कोई असर नहीं होगा।
सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद सरकार ने भारतीय विधि आयोग (लॉ कमीशन) को समान नागरिक संहिता पर रिपोर्ट देने के लिए कहा था। 31 अगस्त 2019 को दी गई अपनी रिपोर्ट में लॉ कमीशन ने यूनिफार्म सिविल कोड और पर्सनल लॉ में सुधार पर सुझाव दिए थे। अलग-अलग लोगों से विस्तृत चर्चा और कानूनी, सामाजिक स्थितियों की समीक्षा करने के बाद लॉ कमीशन ने कहा था कि अभी देश में समान नागरिक संहिता लाना मुमकिन नहीं है। इसलिए नया क़ानून लाने की बजाय मौजूदा पर्सनल लॉ में सुधार किया जाए। इसके अलावा मौलिक अधिकारों और धार्मिक स्वतंत्रता में संतुलन बनाने की ज़रूरत है। सभी समुदाय के बीच में समानता लाने से पहले एक समुदाय के भीतर स्त्री-पुरुष के अधिकारों में समानता लाने की कोशिश की जानी चाहिए।
समझा जा रहा है कि भाजपा 2024 तक समान नागरिक संहिता लागू कर सकती है। कम से कम अमित शाह के बयान से तो यही लगता है। हालांकि अगर सरकार अगर इस तरफ़ आगे बढ़ती है तो सरकार के इस कदम से राजनीतिक विवाद हो सकता है क्योंकि देश में समान नागरिक संहिता लागू करने को लेकर राजनीतिक पार्टियां एकमत नहीं हैं। कंग्रेस की अगुवाई में सेक्यूलरवादी दल इसका शुरू से विरोध करते रहे हैं। समान नागरिक संहिता पर राजनीतिक दलों के अपने-अपने तर्क हैं। संसद समान नागरिक संहिता विधेयक को यदि पारित कर देती है तो देश भर में सभी नागरिकों के लिए एक समान कानून लागू होगा। अगर नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में ऐसा होता है तो कश्मीर में अनुच्छेद 370 व 35ए की तरह भारत एक और नासूर की सर्जरी करने में सफल माना जाएगा और नरेंद्र मोदी का नाम इतिहास में दर्ज़ हो जाएगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और ब्लॉगर हैं)