(17 जून 2020 – विश्व मरुस्थलीकरण एवं सूखा रोकथाम दिवस पर विशेष )
पनप रहे मरुस्थलीकरण की भयावह स्थिति
संयुक्त राष्ट्र का अनुमान है कि प्रतिवर्ष विश्व में 1.20 करोड़ हेक्टेयर कृषि उपजाऊ भूमि ग़ैर-उपजाऊ भूमि में परिवर्तित हो जाती है। दुनियाँ में 400 करोड़ हेक्टेयर ज़मीन डिग्रेड हो चुकी है। एशिया एवं अफ़्रीका की लगभग 40 प्रतिशत आबादी ऐसे क्षेत्रों में रह रही है, जहाँ मरुस्थलीकरण का ख़तरा लगातार बना हुआ है। इनमें से अधिकतर लोग अपनी आजीविका के लिए कृषि एवं पशु-पालन जैसे व्यवसाय पर निर्भर हैं। भारत की ज़मीन का एक तिहाई हिस्सा, अर्थात 9.7 करोड़ से 10 करोड़ हेक्टेयर के बीच ज़मीन डिग्रेडेड है। ज़मीन के डिग्रेड होने से ज़मीन की जैविक एवं आर्थिक उत्पादकता कम होने लगती है। दूसरा, पैदावार की लाभप्रदता एवं किसान की आय पर भी असर होता है। तीसरा, छोटे एवं सीमांत किसान जिनके पास बहुत ही कम ज़मीन है उनकी तो रोज़ी रोटी पर ही संकट आ जाता है। रोज़गार के अवसर कम होते जाते हैं एवं लोग गावों से शहरों की ओर पलायन करने लगते है। पूरी पर्यावरण प्रणाली ही बदलने लगती है। ज़मीन के डीग्रेड़ेशन की वजह से देश को 4600 करोड़ अमेरिकी डॉलर का नुक़सान प्रतिवर्ष हो रहा है। यदि समय रहते इस गम्भीर समस्या के समाधान की ओर नहीं सोचा गया तो वह दिन दूर नहीं जब विश्व में ज़मीन का एक बढ़ा हिस्सा मरुस्थल में परिवर्तित हो जाएगा।
कोप का 14वाँ सम्मेलन
उक्त विषय की गम्भीरता को समझते हुए भारत की मेज़बानी में 2 सितम्बर से 13 सितम्बर 2019 के बीच नई दिल्ली के पास ग्रेटर नॉएडा में यूनाइटेड नेशन्स कन्वेन्शन टू कॉम्बैट डीजरटीफिकेशन (UNCCDCOP) का 14वाँ सम्मेलन आयोजित किया गया था। विश्व में UNCCDCOP के 197 देश, सदस्य हैं। दुनिया भर के 9000 से अधिक विशेषज्ञों एवं सदस्य देशों के प्रतिनिधियों ने इस सम्मेलन में भाग लिया। यह सम्मेलन, विश्व के एक बहुत बड़े भाग के मरुस्थलीकरण में परिवर्तित होने के कारणों एवं इसे रोकने के उपायों पर चर्चा करने के उद्देश्य से आयोजित किया गया था। इस सम्मेलन को, दिनांक 9 सितम्बर 2019 को, सम्बोधित करते हुए भारत के प्रधान मंत्री माननीय श्री नरेन्द्र मोदी ने बताया कि भारत वर्ष 2030 तक 2.10 करोड़ हेक्टेयर ज़मीन को उपजाऊ बनाने के लक्ष्य को बढ़ाकर 2.60 करोड़ हेक्टेयर करेगा। प्रधान मंत्री ने आगे बताया कि भारत ने मरुस्थलीकरण को बढ़ने से रोकने के लिए वर्ष 2015 एवं 2017 के बीच देश में पेड़ एवं जंगल के दायरे में 8 लाख हेक्टेयर की बढ़ोतरी की है। इतना ही नहीं प्रधान मंत्री ने आगे कहा कि हमें बंजर भूमि के साथ-साथ पानी की समस्या पर भी ध्यान देना होगा। साथ ही, भारत सिंगल यूज़ प्लास्टिक के इस्तेमाल को रोकने की और भी अपने क़दम बढ़ा चुका है और दुनिया को भी इस और ध्यान देना चाहिए। विश्व में भूमि के मरुस्थलीकरण को रोकने के उद्देश्य से कोप14 के सदस्य देशों ने मिलकर एक घोषणा पत्र भी जारी किया था।
भूमि के बंजर होने के कारण
देश में कृषि एवं ग़ैर-कृषि उपयोग के लिए ज़मीन की माँग बढ़ती जा रही है। लेकिन, यदि देश की बंजर हो चुकी भूमि को पुनः उपजाऊ नहीं बनाया गया तो उक्त माँग को पूरा करना नामुमकिन सा ही है क्योंकि नई ज़मीन की आपूर्ति तो हो नहीं सकती बल्कि उपजाऊ ज़मीन भी बंजर भूमि में परिवर्तित होती जा रही है। उपजाऊ भूमि के बंजर भूमि में परिवर्तित होने के कई कारण हैं, जैसे, मिट्टी का कटाव – तेज़ हवा के चलते, धूल की वजह से, मिट्टी उड़ जाती है एवं इलाक़ा रेतीला बनता जाता है। तेज़ बारिश के चलते भी मिट्टी, पानी के साथ बह जाती है एवं इलाके की भूमि कम उपजाऊ हो जाती है। दूसरे, रासायनिक उर्वरकों एवं कीट नाशक दवाओं के अत्यधिक उपयोग से भी मिट्टी क्षारीय हो जाती है। तीसरे, नहरों में जमा पानी से सिंचाई की जाती है, पानी सही तरीक़े से निकल नहीं पाता है, पानी के जमाव के चलते, ज़मीन ख़राब होने लगती है। अन्य भी कई कारण हैं, यथा, वनों का कटाव एवं जल स्त्रोतों को नष्ट करना, शहरीकरण के चलते कंकरीट के जंगल खड़े करना, औद्योगिकीकरण के चलते वातावरण में गरमी का बढ़ना, हमारे देश में पिछले 50-60 वर्षों में नए पेड़ों का रोपण बहुत ही कम मात्रा में होना एवं पानी का अंधाधुँध उपयोग होना, (देश में, कृषि के क्षेत्र में खुली नहर नीति के अन्तर्गत 80 प्रतिशत पानी का उपयोग कृषि सिंचाई के लिए हो रहा है एवं इससे पानी का बहुत ज़्यादा अपव्यय हो रहा है)। पोशक तत्वों का असंतुलित उपयोग होना, जैसे – यूरिया खाद (नाइट्रोजन) पर सरकार की ओर से बहुत ज़्यादा सब्सिडी उपलब्ध कराया जाना एवं किसान द्वारा यूरिया का अधिक मात्रा में उपयोग करना। फ़ोस्फोरेस एवं पोट्टास का उपयोग कम करना अतः खाद का असंतुलित प्रयोग होना। साथ ही, सूक्ष्म पोषक तत्वों, जैसे ज़िंक, मैगज़ीन का भी बहुत अधिक उपयोग होना। हम लोग मिट्टी को खनिज में परिवर्तित करते जा रहे हैं। इससे पैदावार कम होती जा रही है एवं ज़मीन डिग्रेड होती जा रही है। देश में रासायनिक उर्वरकों-कीटनाशकों के अंधाधुंध इस्तेमाल से एक ओर धरती की उर्वरा शक्ति नष्ट हो रही है तो दूसरी ओर अनाजों-सब्जियों के माध्यम से यह जहर लोगों के शरीर में भी पहुंच रहा है और वे तरह-तरह की बीमारियों का शिकार बन रहे हैं।
उक्त वर्णित सभी कारणों की वजह से हम तेज़ी से मरुस्थलीकरण की ओर बढ़ते जा रहे हैं।
देश में रासायनिक उर्वरक एवं कीटनाशक आधारित खेती
देश की भूमि के मरुस्थल में तब्दील होने के ऊपर वर्णित कई कारणों में सबसे महत्वपूर्ण कारण है, देश में रासायनिक उर्वरक एवं कीटनाशक आधारित खेती की पद्धति को अपनाना। कम भूमि में अधिक पैदावार हासिल करने के उद्देश्य से रासायनिक उर्वरक-कीटनाशक आधारित खेती की शुरूआत यूरोप में औद्योगिक क्रांति के दौरान हुई थी। बाद में, भारत सहित, विकासशील देशों ने भी खेती की इस पद्धति को अपना लिया।
विदेशों से आयात करने के स्थान पर, देश में ही रासायनिक उर्वरक की आपूर्ति सुनिश्चित करने के उद्देश्य से रासायनिक उर्वरक के उत्पादन करने के लिए कारख़ानों की स्थापना की गई। इस प्रकार देश में धान, गेहूँ तथा अन्य उत्पादों की फ़सलों को, संकरित बीजों, रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों, सिंचाई का उपयोग कर उगाया जाने लगा। इससे शुरू में तो उत्पादकता बढ़ी लेकिन आगे चलकर मिट्टी के नमीपन-भुरभुरेपन में कमी आई और कृषि मित्र जीव-जंतुओं का बड़े पैमाने पर विनाश हुआ। जैसे-जैसे मिट्टी की प्राकृतिक शक्तियां घटी वैसे-वैसे रासायनिक उर्वरकों की जरूरत बढ़ी, दूसरी ओर उत्पादकता में ढलान आनी शुरू हुई। उदाहरण के लिए 1960 में एक किलोग्राम रासायनिक खाद डालने पर उत्पादन में 25 किग्रा की बढ़ोत्तरी होती थी जो कि 1975 में 15 किग्रा तथा 2009 में मात्र 6 किग्रा रह गई। इस प्रकार रासायनिक उर्वरकों की खपत बढ़ने से जहां एक ओर लागत बढ़ी वहीं दूसरी ओर उत्पादकता में गिरावट आने से लाभ में कमी आई।
नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटाश का आदर्श अनुपात 4:2:1 है लेकिन पंजाब में यह अनुपात 31:8:1 और हरियाणा में 28:6:1 तक बिगड़ चुका है। कमोबेश यही स्थिति दूसरे राज्यों की भी है। यूरिया के अत्यधिक इस्तेमाल ने नाइट्रोजन चक्र को बुरी तरह प्रभावित किया। नाइट्रोजन का दुष्परिणाम केवल मिट्टी-पानी तक सीमित नहीं रहा। नाइट्रस आक्साइड के रूप में यह ग्रीनहाउस गैस भी है और वैश्विक जलवायु परिवर्तन में इसका बड़ा योगदान है। गौरतलब है कि ग्रीन हाउस गैस के रूप में कार्बन डाइऑक्साइड के मुकाबले नाइट्रस ऑक्साइड 300 गुना अधिक प्रभावशाली है।
हरित क्रांति के दौर में रासायनिक उर्वरकों के अंधाधुंध इस्तेमाल, फसल चक्र की उपेक्षा, जल संरक्षण पर ध्यान न दिए जाने से देश में मरुस्थलीकरण का दायरा बढ़ने लगा। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) की रिपोर्ट के अनुसार राजस्थान तक सिमटे थार मरुस्थल ने अब हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश तथा मध्य प्रदेश को अपनी चपेट में लेना शुरू कर दिया है। थार के विस्तार का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि 1996 तक 1.96 लाख वर्ग किमी में फैले रेगिस्तान का विस्तार अब 2.10 लाख वर्ग किमी तक हो गया है। इसी तरह देश के सभी हिस्सों में मिट्टी की उर्वरता में तेजी से कमी आ रही है।
15 अगस्त 2019 को, स्वतंत्रता दिवस पर, लाल किले की प्राचीर से देश के नागरिकों को संबोधित करते हुए देश के माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने पर्यावरण अनुकूल खेती पर जोर देते हुए रासायनिक उर्वरकों-कीटनाशकों के उपयोग को धीरे-धीरे कम करने और अंतत: इनका इस्तेमाल बंद करने का आह्वान किया। केंद्र सरकार ने देश की ज़मीन के तेज़ी से मरुस्थल में तब्दील होने के मामले को बहुत ही गम्भीरता से लिया है एवं इसे प्रभावी रूप रोकने के लिए कई योजनाओं को लागू किया है जिनमें से कुछ योजनाओं का वर्णन निम्न प्रकार किया जा रहा है।
रासायनिक उर्वरकों-कीटनाशकों के अन्तर्गत यूरिया के दुष्प्रभाव को देखते हुए केंद्र सरकार ने फास्फोरस और पोटाश पर सब्सिडी बढ़ाई है, जिससे किसान,उर्वरकों का संतुलित इस्तेमाल करें। केंद्र सरकार, दूरगामी कदम उठाते हुए, अब चरणबद्ध तरीके से रासायनिक उर्वरकों-कीटनाशकों का इस्तेमाल बंद करके जैविक खेती को प्रोत्साहन देने का प्रयास कर रही है। इससे न केवल पर्यावरण का संरक्षण होगा बल्कि किसानों की आमदनी में भी वृद्धि होगी।
देश में मरुस्थलीकरण को फैलने से रोकने के उद्देश्य से वन अनुसंधान संस्थान द्वारा देहरादून में एक उत्कृष्ट केंद्र स्थापित किया गया है। इस केंद्र द्वारा मरुस्थलीकरण को रोकने से जुड़े सभी उपायों को समन्वित करने का प्रयास किया जाता है और साथ ही यह केंद्र अन्य संस्थानों को इस सम्बंध में चाही गई तकनीकी एवं विशेषज्ञ मदद भी प्रदान करता है।
वर्ष 2015 में देश में प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना को लागू किया गया। इस योजना में समग्र दृष्टिकोण अपनाते हुए सिंचाई और जल संरक्षण को समन्वित किया गया है। इसका प्रमुख उद्देश्य जल की प्रत्येक बूंद का उचित उपयोग कर अधिक उत्पादन प्राप्त करना है। इसके साथ ही वर्षों से लंबित पड़ी सिंचाई परियोजनाओं को पूरा किया जा रहा है। जल संचयन और जल प्रबंधन के साथ-साथ बाटरशेड डेवलपमेंट पर भी ध्यान दिया जा रहा है।
केंद्र सरकार ने कृषि क्षेत्र से जुड़ी समस्स्याओं को दूर करने के उद्देश्य से भी कई योजनाओं को लागू किया है। जैसे, फसल बीमा के लिये प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना, कृषि-उत्पादकता में सुधार लाने के लिये प्रधानमंत्री किसान सिंचाई योजना, कृषि पदार्थों की खरीद प्रणाली में खामियों को दूर करने के लिये प्रधानमंत्री अन्नदाता आय संरक्षण अभियान, न्यूनतम समर्थन मूल्य योजना के अन्तर्गत कई कृषि पदार्थों के समर्थन मूल्य को उत्पादन की लागत के 1.5 गुना तक बढ़ाया जा रहा है एवं किसानों को एक निश्चित आय सहायता प्रदान करने के लिये प्रधानमंत्री किसान योजना, आदि।
देश में शून्य बजट प्राकृतिक कृषि तकनीक को भी प्रोत्साहित किया जा रहा है। वित्तीय वर्ष 2019-20 का बजट पेश करते हुए शून्य बजट प्राकृतिक कृषि तकनीक को देश भर में अपनाए जाने की बात कही गई है। जब कि, एक अनुमान के अनुसार, आज देश में 40 लाख किसान इस तकनीक का इस्तेमाल कर रहे हैं। इस तकनीक के माध्यम से ग्लोबल वॉर्मिंग एवं वायुमंडल में होने वाले बदलावों से मुक़ाबला किया जा सकता है। इस तकनीक से खेती-किसानी करने की लागत लगभग शून्य हो जाती है। वित्त वर्ष 2018-19 की आर्थिक समीक्षा में इसे छोटे किसानों के लिए आजीविका का एक आकर्षक विकल्प बताया गया है।
ऊर्जा, पर्यावरण और जल परिषद की 2018 की रिपोर्ट के मुताबिक शून्य बजट प्राकृतिक कृषि तकनीक को अपनाते हुए कृषि करने पर कुछ प्रक्रियाओं को अपनाना होता है। जैसे, पहली प्रक्रिया, जिसे “बीजामृत” कहते हैं, के तहत गोबर एवं गौमूत्र के घोल का बीजों पर लेप लगाया जाता है। दूसरी प्रक्रिया, जिसे “जीवामृत” कहते हैं, के तहत भूमि पर गोबर, गौमूत्र, गुड़, दलहन के चूरे, पानी और मिट्टी के घोल का छिड़काव किया जाता है, ताकि मृदा जीवाणुओं में बढ़ोतरी की जा सके। तीसरी प्रक्रिया जिसे “आच्छादन” कहते हैं, के तहत मिट्टी की सतह पर जैव सामग्री की परत बनाई जाती है, ताकि जल के वाष्पीकरण को रोका जा सके और मिट्टी में ह्यूमस का निर्माण हो सके। चौथी प्रक्रिया, जिसे “वाफसा” कहते हैं, के तहत मिट्टी में हवा एवं वाष्प के कणों का समान मात्रा में निर्माण किया जाता है। शून्य बजट प्राकृतिक कृषि पद्धति में कीटों के नियंत्रण के लिए गोबर, गौमूत्र और हरी मिर्च से बने विभिन्न घोलों का इस्तेमाल किया जाता है, जिसे “क्षयम” कहा जाता है। जीवामृत का महीने में एक अथवा दो बार खेतों में छिड़काव किया जा सकता है। जबकि बीजामृत का इस्तेमाल बीजों को उपचारित करने के लिये किया जाता है। इस विधि से खेती करने वाले किसान को बाजार से किसी प्रकार की खाद और कीटनाशक रसायन खरीदने की जरूरत नहीं पड़ती है। फसलों की सिंचाई के लिये बिजली एवं पानी भी मौजूदा खेती-किसानी की तुलना में दस प्रतिशत ही खर्च होती है ।
मरुस्थलीकरण को रोकने के सुझाव
अब सवाल यह है की उक्त भयावह परिस्थिति को और गम्भीर होने से रोका कैसे जाय। इस सम्बंध में कई कृषि वैज्ञानिकों ने भी कई सुझाव दिए हैं। जैसे, केंद्र सरकार की एक बहुत ही अच्छी पहल पर अभी तक 17 करोड़ मृदा स्वास्थ्य कार्ड जारी किए जा चुके हैं। इसमें मिट्टी की जाँच में पता लगाया जाता है कि ज़मीन के इस हिस्से को किस पोशक तत्व की ज़रूरत है एवं उसी हिसाब से खाद, बीज एवं कीटनाशक का उपयोग किया जा सके। पोषक तत्वों का संतुलित उपयोग करने से न केवल ज़मीन की उत्पादकता बढ़ती है बल्कि उर्वरकों का उपयोग भी कम होता है। खेती पर ख़र्च कम होता है, इस प्रकार किसान की आय में वृद्धि होती है।
देश में माननीय प्रधान मंत्री ने नारा दिया है “प्रति बूँद अधिक पैदावार”। इसके अंतर्गत सूक्ष्म सिंचाईं के तरीक़ों का उपयोग करना होगा। फ़व्वारा सिंचाई (Sprinkler Irrigation), बूँद-बूँद सिंचाई (Drip Irrigation) के माध्यम से इज़राईल जैसे सूखाग्रस्त देश ने कृषि पैदावार में अपने आप को आत्मनिर्भर बना लिया है।
कृषि वैज्ञानिक बताते हैं कि हर फ़सल अलग तरह के पोशक तत्वों को ग्रहण करती है, अतः किसानों को एक ही तरह की फ़सल से बहु-फ़सल एवं मिश्रित-फ़सल की तरफ़ जाना चाहिए जिसके अन्तर्गत पेड़ों और बड़ी झाड़ियों को भी अपने खेत का हिस्सा बनाया जाना चाहिए ताकि ज़मीन द्वारा खोई हुई उर्वरा शक्ति को हासिल किया जा सके। प्राकृतिक रूप वाले जंगलों की अधिक से अधिक स्थापना की जानी चाहिए।
कृषि वैज्ञानिकों का मत है कि दो खेतों के बीच में खुली ज़मीन नहीं छोड़ी जानी चाहिए। जितनी ज़मीन खुली छोड़ेंगे उतना अधिक पोषक तत्वों का नुक़सान होगा। अतः किसानों को इस ज़मीन का अधिकतम एवं लगातार उपयोग कर पैदावार लेते रहना चाहिए। ख़ाली ज़मीन पर कुछ अन्य पेड़ लगाएँ जा सकते हैं। मिश्रित खेती की जानी चाहिए। हर दो महीने बाद कोई न कोई फ़सल उगाते रहना चाहिए। इस प्रकार, साल भर में चार-चार फ़सलें किसानों द्वारा ली जा सकती है। इसके लिए मिट्टी को उपजाऊ बनाना होगा। वाटर हार्वेस्टिंग, माइक्रो सिंचाई से मिट्टी का उपजाऊपन बढ़ाया जा सकता है। ऐसे पौधे भी उपलब्ध हैं जिन्हें लगाने से मिट्टी के उपजाऊपन में सुधार आता है। कुछ जैविक पदार्थ भी मिट्टी का उपजाऊपन बढ़ाते हैं।
यह सोचना कि रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल बंद करने से उत्पादन घट जाएगा, एक भ्रामक धारणा ही कही जाएगी। देश-विदेश में हुए अनेक अनुसंधानों में यह साबित किया जा चुका है कि रासायनिक उर्वरक-कीटनाशक मुक्त खेती से न केवल लागत में कमी आती है बल्कि उत्पादन में भी अच्छी वृद्धि होती है। अंतरराष्ट्रीय कृषि विकास कोष द्वारा भारत और चीन में किए गए कई अध्ययनों के आधार पर इस बात की पुष्टि की गई है कि प्राकृतिक रूप की खेती अपनाने से किसानों की आमदनी में काफी बढ़ोत्तरी होती है। अतः किसानों को रासायनिक उर्वरकों-कीटनाशकों के इस्तेमाल को ख़त्म करके हमारे देश की पारम्परिक खेती की पद्धति को अपनाकर प्राकृतिक रूप से खेती करनी चाहिए।
देश में कृषि क्षेत्र के विकास की गति तेज़ करने के लिए मरुस्थलीकरण को रोकना ही होगा। विभिन्न सरकारों द्वारा तो कई तरह के प्रयास किए ही जा रहे हैं, परंतु समस्त किसानों को आगे आकर ऊपर दिए गए सुझावों पर ध्यान देना होगा। देश की अर्थव्यवस्था के लिए कृषि क्षेत्र का महत्व इसी से समझा जा सकता है कि देश की कुल आबादी का लगभग 60 प्रतिशत हिस्सा आज भी गावों में ही रहता है एवं अपने रोज़गार के लिए मुख्यतः कृषि एवं उस पर आधारित व्यवसाय पर आश्रित है। साथ ही, विभिन्न उद्योगों द्वारा उत्पादित वस्तुओं के लिए यह वर्ग सबसे बड़ा बाज़ार है। भारत में कृषि विकास मतलब देश विकास अन्यथा तो देश का आर्थिक विकास ही रुक जाएगा। अतः अंत में पुनः ज़ोर देकर यह कहा जा सकता है की देश में मुख्यतः कृषि क्षेत्र एवं सामान्यतः पूरी अर्थव्यवस्था के हित में मरुस्थलीकरण के प्रसार को रोकना ही होगा।
प्रह्लाद सबनानी,
सेवा निवृत उप-महाप्रबंधक,
भारतीय स्टेट बैंक
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