पिथौरागढ़ की दरमा घाटी की जसूली शौक्याणी ने बनवाई थी कुमायूं और नेपाल में सैकड़ों कारवाँसराय सिल्क रुट से जुड़ती यह कुमायूं की राहें जहां इन कारवाँसराय का बहुत व्यापारिक महत्व रहा कैंचीधाम से आगे बढ़ने पर अल्मोड़ा-भवाली राष्ट्रीय राजमार्ग 109 पर क्षरण होते पहाड़ दिखे, पर एक अनोखी चीज और दिखी जिसका पहाड़ की धरती में पुरातात्विक व पारम्परिक महत्व है, खीनापानी के निकट जमींदोज हो रही एक इमारत जो तकरीबन डेढ़ सौ वर्ष पुरानी धरोहर है हमारे भारतवर्ष की, यह इमारत मजबूत पत्थर की बेहतरीन कारीगरी का नमूना है, आंधी बारिश तूफान जैसी किसी भी प्राकृतिक विपदा में व्यापारी, तीर्थयात्री आने सौदा-पत्ता के साथ यहां आश्रय लेते थे, कल्पना करिए आज से 150 बरस पहले की वह दौर रहा होगा जब हिंदुस्तान में प्रथम स्वाधीनता आंदोलन की शुरुवात हुई, जिसे ब्रिटिश इतिहासकारों ने ग़दर नाम दिया, तब न यह मेटल्ड रोड थी, न ही जगह जगह बसे कस्बे व शहर, और पहाड़ भी जंगलों व जंगली जानवरों से खूब सम्पन्न होंगे, बारिश आधी और तूफान भी बेसाख़्ता आते जाते होंगे, हिमालय की इन सुंदर वादियों में, जिन्हें अब हम कैलेमिटीज या आपदा कहते हैं मानव समाज में।
ऐसे हालातों में इन निर्जन व पहाड़ी रास्तों पर इन कारवाँ सराय का होना अद्भुत और जिज्ञासा पैदा करता है, की कौन होगा वह जिसने इन ख़तरनाक राहों पर इत्मीनान व सुरक्षा देने वाले ये धर्मशाला बनवाएं होंगे, कुमायूं में यह वही दौर की बात भी है जब कुमायूं नरभक्षी बाघों और तेंदुओं के लिए विश्वप्रसिद्ध हुआ, ऐसे में जसूली के बनवाए ये सराय राहगीरों की जिंदगियों को पनाह देते आए, सोचिए महीनों की पैदल घोड़ो आदि से यात्राएं करते तीर्थ यात्री रात गहराते ही पहाड़ी जंगलों में एक कदम न चल पाने की स्थित में होते होंगे तो यही शौक्याणी की सराय उन्हें पनाह देती होंगी, व्यापारियों का माल असबाब भी तूफानों बारिश और बर्फ से इन्ही पत्थर मजबूत कोठरियों में सुरक्षित रहता होगा मौसम ठीक हो जाने तक।
मेरी इस यात्रा में इस किस्से का भी इंतखाब हुआ, यह कारवाँसराय कुमायूं के कमिश्नर जनरल सर हेनरी रैमज़े के सरंक्षण में बने परन्तु इन सराय या धर्मशाला की मालकिन जसुली शौकयाणी थी, पिथौरागढ़ की धर्मा या डर्मा घाटी के जसुली गांव की रहने वाली थी, कहते हैं कि वह बहुत बड़े व्यापारी घराने से ताल्लुक रखती थी, तिब्बत, नेपाल आदि जगहों से उनका व्यापार था, किन्तु पति की मृत्यु के बाद उनके इकलौते पुत्र की भी असमय मृत्यु हो गई, और हताशा ने उन्हें इस तरह घेरा की सारा चांदी सोना अशर्फियाँ खच्चरों पर लाद वह नदी में बहा देने का निर्णय ले चुकी थी, कहते है कि जनरल रैमज़े उस समय उसी इलाक़े में कैम्प कर रहे थे, उन्हें इसकी सूचना मिली, और फिर उन्होंने शौकयाणी को उनके गांव जसुली जाकर समझाया, की यदि वह इस सम्पत्ति को जनसेवा में लगाएं गी तो उनका नाम अमर रहेगा, जसूली को रैमज़े का यह मशविरा समझ आया, और नतीजा आपके सामने हैं, आप इन तस्वीरों के माध्यम से महसूस कर सकते हैं पहाड़ की उस धनाढ्य महिला शौकयाणी को इन कारवाँसराय के जरिए। यहां एक बात ग़ौरतलब है कि यह धर्मशालाएं कम कारवाँसराय अधिक प्रतीत होती हैं क्योंकि यह सुनसान राहों में बनी है जहां उस वक्त आदमी की बसाहट न थी या आसपास कोई गांव रहेंगे, अधिकतर इन कारवाँसराय के आस पास बने मंदिर नव निर्मित लगते हैं, कारवाँसराय फारसी का शब्द है, कारवाँ यानी व्यापारियों धर्म-यात्रियों या यात्रा करने वालों का समूह और सराय वह भवन या निर्माण जहां ठहरा जा सके, दरअसल जसूली शौक्याणी की ये इमारतें जो सुनसान कुमायनी इलाकों में ठीक राजमार्गों के किनारे बनवाई गई वह धर्मशालाएं न होकर सराय ही प्रतीत होती हैं, जिनमे देश विदेश का कोई भी व्यापारी, यात्री आदि बिना किसी देश जाति और धर्म के भावों से अलाहिदा रहकर ठहर सकता था, कुमायूं की भौगोलिक स्थित में इन इमारतों की स्थित यही बता रही है।
पहाड़ की इस सराय के अतीत की कहानी यहीं नही खत्म होती, हम आगे बढ़े और जागेश्वर के पुरातात्विक महत्व को देख समझ लेने के बाद जब वापस हुए तो अल्मोड़ा से हमारा रास्ता बदल गया अब हमने एनएच 109 भवाली अल्मोड़ा मार्ग पर न जाकर शहर फाटक (सौर फाटक) वाली सड़क पर थे जो खुटानी भीमताल तक आती है, हमारी अब मंजिल थी अल्मोड़ा जिले के डोल गांव में बना डोल आश्रम ( श्री कल्याणिका देवस्थान न्यास) अभी कुछ किलोमीटर चले होंगे जलना के आस पास फिर वही आकृति दिखाई दी जो अल्मोड़ा-भवाली राजमार्ग पर खीनापानी जगह पर दिखाई दी थी, दोनों में समानता यह कि वहां माँ दुर्गा का मंदिर पास में, और यहां पुरनागिरी माता का मंदिर, और वहां भी नीचे नदी बहती और यहां भी, अमूनन धर्मशाला धर्मस्थानों के पास बनते रहे, और जलधाराओं या झीलों के समीप मंदिर, जहां जल की समुचित व्यवस्था हो, हमने इस कारवाँसराय की भी तस्वीरें ली, अब मुझे यह लगने लगा जैसे यह कोई सरकारी प्रोजेक्ट हो, जो कुमाऊं में राहों के किनारे एक ही नक्शे वाली धर्मशालाएं नज़र आ रही, बाद में ज़ाहिर हुआ कि जिन सरायों को नाज़िर किया हमने वह जासुली शौकयानी के धन से तो बनी किन्तु उसे मूर्ति रूप में कुमायूं के हरदिल अज़ीज कमिश्नर रैमज़े की राजाज्ञा से मिला, ज़ाहिर चीज़े व्यवस्थित व एक प्लान के तहत होंगी, मुआमला ब्रिटिश इंडिया सरकार का जो था!
कहते है ऐसे सैकड़ों धर्मशाला बनी कुमायूं से नेपाल तक, जहां हल्द्वानी काठगोदाम से चलने वाले व्यापारी तीर्थ यात्री इन दुर्गम इलाकों में आकर इन्ही धर्मशालाओं में आकर विश्राम करते थे, प्राकृतिक आपदाओं जंगली जानवरों आदि से इन्हें यही धर्मशालाएं सुरक्षा देती थी, व्यापारियों के सामान नमक आदि व तीर्थ यात्रियों का राशन पानी बारिश में भीगने से यही धर्म शालाएं बचाती थी, एक सदी पहले के इन पहाड़ों की निर्जन व अंधेरी राहों पर एक क़दम चलना जब दूभर था तो जसुली शौकयानी की यह सराय/धर्मशाला ही लोगों को ठहरने व सुरक्षा देने का काम करती थी।
यहां एक बात और गौरतलब है कि यह रास्ते जहां जसुली शौकयानी की यह धर्मशालाएं निर्मित हैं, यह सभी रास्ते पुराने सिल्क रुट यानी रेशम मार्ग से मिलते हैं, इन राहों पर इन धर्मशालाओं का बनना जरूर बुद्धिमान कमिश्नर रैमज़े के दिमाग़ में रहा होगा ताकि भारत में व्यापारिक समृद्धि आए, इस सिल्क रुट के ज़रिए।
ये जो जलाना-शहर फाटक-डोल-रामगढ़-खुटानी भीमताल मार्ग पर धर्मशाला है जसूली शौक्याणी का इसके निकट पूरनागिरी माता मंदिर के निकट 67 वर्ष पुरानी एक इमारत हैं जसूली शौक्याणी की सराय के निकट, उस पर लिखा है कि –
“श्री श्री 108 पूरनागिरी माई ने शिवालय की धूप बत्ती हेतु इस दुकान को सन 1952 में बनवाया। भ. प. हीरा बल्लभ जोशी” भक्ति और समर्पण का अद्भुत उदाहरण, भवदीय तो बल्लभदास जोशी जी है किंतु धूपबत्ती के लिए दुकान पूरनागिरि माई ने बनवाई, यानि अहम का लेशमात्र अंश न आए मन मस्तिष्क में।
आज के हालातों का तज़किरा भी हो जाए, ये अमूल्य ऐतिहासिक निधियां जो बिखरी पड़ी है देवभूमि के कुमायूं में, जो जीर्ण शीर्ण अवस्था में है राजमार्गों के मेंटिनेंस के चलते कई फुट ये जमीन के नीचे चली गई, पहली नज़र में ऐसा मालूम होता है कि कैसे इंसान घुसता होगा इन कोठरियों में इनमें बकरी मुर्गा ही रह सकता है इंसान नही, लेकिन करीब से देखने पर पता चल जाएगा इनकी ऊंचाई पर्याप्त रही होगी जो सड़कों के परत दर परत तारकोल गिट्टी चढ़ने से यह कारवाँसराय अपना कद खोती गई और जमींदोज होती गई पहाड़ में, अभी भी वक्त है स्थानीय सरकार, इंटैक जैसी संस्थाएं और सरकारी पुरातत्व विभाग नज़र दौड़ा ले कुमायूं की इन अनमोल धरोहरों पर, तो जसूली शौक्याणी की वह धन संपत्ति और सर हेनरी रैमज़े का बेहतरीन इन्नोवेशन वाला आइडिया हमारे बीच बचा रह सकता है, और मुझे नही पता कि जसूली शौकयाणी की कोई तस्वीर किसी म्यूजियम में रखी गई है सम्मान से या नही, पर इतना जरूर चाहूंगा उनके नाम का संग्राहलय इन कारवाँसराय की तस्वीरों सहित उनके पिथौरागढ़ जनपद जसूली गांव में जरूर बने, और कुमायूं की कम से कम एक सड़क का नाम जसूली शौक्याणी रोड रखा जाए, यकीन मानिए उस रोज जसूली शौक्याणी और रैमज़े कि आत्मा स्वर्ग में ज़रूर मुस्कराएगी और कुमायूं की फिजाओं में आप जसूली और रैमज़े को महसूस करेंगे।
कृष्ण कुमार मिश्र
संस्थापक सम्पादक दुधवा लाइव जर्नल
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लखीमपुर-खीरी, उत्तर प्रदेश
भारत वर्ष
लेखक परिचय-
कृष्ण कुमार मिश्र: वाइल्डलाइफ़ बायोलॉजिस्ट, नेचर फोटोग्राफर, पक्षियों पर शोध, अखबारों, पत्रिकाओं एवं वैश्विक वैज्ञानिक जर्नल्स व मैगज़ीन में सैकड़ों लेख प्रकाशित, डॉयचेवेले जर्मनी द्वारा लेखन के क्षेत्र में सन 2013 में द बॉब्स पुरस्कार से सम्मानित, सन 2014 ईसवीं में उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा पर्यावरण के क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्य के लिए सम्मानित, वृक्षारोपण, पुरातत्व, स्वतंत्र लेखन, बागवानी, कृषि व पशुपक्षियों के हक़ में संघर्ष की अभिरुचि, लखीमपुर खीरी के मैनहन गांव में निवास, दुधवालाइव अंर्तराष्ट्रीय पत्रिका का सम्पादन, भारत सरकार व यूनाइटेड नेशंस, वर्ल्ड बैंक तथा यूनेस्कों के सरंक्षण व निर्देशन पर वन्यजीवन व पर्यावरण से सम्बंधित प्रोजेक्ट्स में विषय विशेषज्ञ के तौर पर कार्यानुभव, ऑनरेरी तौर पर पर्यावरण व वन्यजीवन सरंक्षण वनविभाग व सरकार तथा वैश्विक संस्थाओं द्वारा चलाए जा रहे विभिन्न कार्यक्रमों में सहभागिता।
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