देव आनंद एक अनंत यात्रा का नाम है, जिसमें 100 साल का पड़ाव एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर तो है लेकिन रुकने का नाम नहीं। बाज़ार के लिए जरूर सौ साल जरूरी हो जाते हैं, खासकर कंटेंट के बाज़ार के लिए और इस बार देव का बाज़ार गर्म है। शायद बस कल तक के लिए, जो बाज़ार की जरूरत है। सिनेमा की स्टार्स में मेरे लिए देवानंद एक बहुत अलग जगह रखते हैं, पर्दे पर अपने लुभावने चरित्रों और पसंदीदा गीतों के परे। एक जोगी नजर आता है, एक कर्मयोगी, जिसने मरते दम तक उम्र के 88 साल काम नहीं छोड़ा। फल की इच्छा नहीं की, परिणाम की परवाह नहीं की, बस काम करता गया। एक काम खत्म होता, उससे पहले ही अगला काम शुरू। उसी ऊर्जा, उसी ऊष्मा के साथ, उसी जुनून के साथ। हर बार एक नया और अछूता विषय। लोगों को उनके एग्जीक्यूशन से उनके काम की क्वालिटी से शिकायत हो सकती है, मुझे भी थी और आखिरी 20 साल में बहुत रही, एक के बाद एक खराब क्वालिटी के प्रोजेक्ट्स, जो विचार के तौर पर बेहतर नजर आते थे लेकिन फाइनल प्रोडक्ट लचर और बेकार, हर बार अपनी फिल्मों से निराश करते रहे। विजय आनंद जैसे लेखक और डायरेक्टर की कमी उनके सिनेमा में खासतौर पर दिखती रही, लेकिन वह सिनेमा बनाते रहे। यही बात उनको खास बनाती है, एक एक के बाद एक फेल्ड प्रोजेक्ट्स, लेकिन फैलियर की चिंता किए बिना थक के नहीं बैठना। ना आलोचकों की चिंता, ना बॉक्स ऑफिस का डर, ना हीं अपने प्रशंसकों के रिजेक्शन का, बस फिल्में बनाते रहना। काम में लगे रहना। बर्बादियों का जश्न मनाते हुए। यही उनकी शख्सियत का वह पहलू था जिसने मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित किया। और यह भी की एक बड़ी उम्र में किस तरह से आखिर तक काम करते रहना है, सच में एक गाइड, एक लाइफ कोच की तरह। मुझे एक 20 साल पुराना उनका इंटरव्यू याद आता है जिसमें उन्होंने कहा था “सिनेमा बनाना मेरी प्रकृति है। जैसे नदी बहना नहीं छोड़ती, अनवरत बहती है, सूरज निकलना नहीं छोड़ता, क्योंकि यह उनकी प्रकृति है। वैसे ही सिनेमा बनाना मेरी प्रकृति है, और आखिरी सांस तक रहेगी।” समय के साथ देव आनन्द की फ़िल्मों की क्वालिटी में पतन आता गया और उनके द्वारा बनाई गई फ़िल्मों के संगीत में भी. पर उनके फ़िल्मी सफ़र की सबसे खास बात ये है कि देव आनन्द के इस दौर के खराब काम ने स्वर्णिम दौर के उनके काम की चमक को किसी तरह से फ़ीका नहीं किया। हमसे है ज़िंदा वफ़ा और हमीं से है तेरी महफ़िल जवां हम जब ना होंगे तो रो रो के दुनिया ढूंढेगी मेरे निशां. देव आनंद कई पीढ़ि़यों के नायक, एक किंवदंती, के रूप में ज़िंदा रहेंगे कई पीढियों तक उनकी फ़िल्मों और खासकर उनके गीतों में! हमेशा जवां गीत जिनपे कभी झुर्रियां नहीं पड़ेंगी! गाइड फिल्म के अंतिम सीन में वहीदा, लीला चिटनिस से कहती हैं “राजू नहीं रहा” लीला जवाब में कहती है… “राजू इस शरीर में नहीं रहा” देव अब अपने शरीर में नहीं है, लेकिन थोड़े-थोड़े देव हम सब में जिंदा है, एक असीमित ऊर्जा के स्रोत की तरह, अपने सिनेमा में, अपने गीतों में जिंदा है। एक असाधारण व्यक्तित्व, असीमित ऊर्जा से दमकता एक प्रेरणा पुंज जिसकी चमक आने वाली कई पीढ़ियों तक बरकरार रहेगी। सौ साल तो बस एक पड़ाव है, बाज़ार का उत्सव है, देव का सफ़र जारी है, अनवरत…
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