कुछ समय से गीतकार जावेद अख्तर बादशाह अकबर का झंडा बुलंद कर रहे हैं। एक ताने जैसा कि अकबर के समय भारत धनी था, इसलिए मुगल-काल को बुरा नहीं कहना चाहिए। उन के पीछे दूसरे सेक्यूलर-वामपंथी भी वही दुहरा रहे हैं। लेकिन क्या वे जानते हैं कि क्या कह रहे हैं? कुछ लोगों को जानकर आश्चर्य होगा कि भारत और पाकिस्तान में अकबर की छवियाँ उलटी है। यहाँ उसे उदार, काबिल बादशाह का आदर मिलता है; मगर पाकिस्तान में अकबर के प्रति घृणा-सी फैलाई गई। क्योंकि उस ने यहाँ इस्लामी शासन का ढ़ाँचा समेट लिया था। स्वतंत्र भारत के प्रथम शिक्षा मंत्री मौलाना आजाद ने कहा था कि अकबर ने ‘भारत से इस्लाम को खत्म कर दिया’। पाकिस्तानी इतिहासकार आई. एच. कुरैशी भी अकबर को ‘काफिर’ मानते थे। अतः भारत-पाकिस्तान में अकबर की उलटी छवियाँ एक ही सत्य पर खड़ी हैं!
निश्चय ही अकबर पहले जिहादी था। तेरह वर्ष की उम्र में ही उस ने महान हिन्दू नायक हेमचन्द्र को मूर्छित-घायल अवस्था में अपने हाथों कत्ल किया था। अपनी हुकूमत के पहले 24 साल उस ने वही किया जो महमूद गजनवी, मुहम्मद घूरी, अलाउद्दीन खिलजी, आदि ने किया था। बाहरी मुसलमानी फौज के बल पर भारत के बड़े हिस्से पर कब्जा किया। खुद को ‘गाजी’ और तैमूरी कहने का उसे गर्व था। अकबर ने मेवाड़ और गोंडवाना में जो किया वह घृणित जिहाद ही था।
अकबर लंबे समय तक मोइनुद्दीन चिश्ती का मुरीद रहा, जो हिन्दू धर्म-समाज पर इस्लामी हमले का बड़ा प्रतीक था। 1568 ई. में चित्तौड़गढ़ पर जीत के बाद अकबर ने चिश्ती अड्डे से ही ‘फतहनामा-ए-चित्तौड़’ जारी किया था, जिस के हर वाक्य से जिहादी जुनून टपकता है। उस युद्ध में 8 हजार राजपूत स्त्रियों ने जौहर कर के प्राण दिए। वहाँ अकबर ने राजपूत सैनिकों के अलावा 30 हजार सामान्य नागरिकों का भी कत्ल किया। मारे गए सभी पुरुषों के जनेऊ जमा कर तौला गया, जो साढ़े चौहत्तर मन था। यह केवल एक स्थान पर, एक बार में! वह भयावह घटना हिन्दुओं की स्मृति में रच गई है। आज भी राजस्थान में ‘74½’का तिलक-जैसा चिन्ह किसी वचन पर पवित्र-मुहर समान प्रयोग किया जाता है। कि उस वचन को जो तोड़ेगा, उसे बड़ा पाप लगेगा!
फिर अकबर के अनके सूबेदारों ने उत्तर-पश्चिम भारत में हिन्दू मंदिरों का बेशुमार विध्वंस किया। कांगड़ा, नागरकोट, आदि के प्रसिद्ध मंदिर उन में थे। अकबर ने अपने शासन में शरीयत लागू करने हेतु मुल्लों के विशेष पद भी बनाये। हिन्दुओं की कौन कहे, वह कट्टर-सुन्नी के सिवा अन्य मुस्लिम फिरकों के प्रति भी कठोर था। लेकिन, उसी अकबर में शुरू से एक विचारशील प्रवृत्ति भी थी। इसीलिए जब उस की सत्ता सुदृढ़ हो गई, तब वह मजहबी चिंतन-मनन पर भी समय देने लगा। यह 1574 ई. के लगभग शुरू हुआ, जब अकबर अपनी राजधानी फतेहपुर सीकरी में बाकायदा विमर्श चलाने लगा। उस ने इस्लाम को मजबूत करने के ही इरादे से विभिन्न धर्मों के विद्वान बुलाकर चिश्तियों और सुन्नी मौलानाओं के साथ शास्त्रार्थ-सा कराना शुरू किया। इस के लिए विशेष ‘इबादतखाना’ और उस के सामने ‘अनूप तालाब’ बनवाया। रोचक यह कि अकबर ने यह संस्कृत नामकरण किया था।
‘इबादतखाना’ उन विद्वानों के साथ अकबर के धर्म-विमर्श का स्थान था। वहाँ अकबर के सामने वर्षों जो विमर्श हुए, उन के विवरण अलग-अलग भागीदारों, प्रत्यक्षदर्शियों से उपलब्ध हैं। जैसे, एक पुर्तगाली ईसाई पादरी, गुजरात से आए पारसी विद्वान दस्तूर मेहरजी और अकबर दरबार के मुल्ला बदायूँनी। इन से पता चलता है कि अकबर ने धीरे-धीरे महसूस किया कि जिस इस्लाम पर उसे अंधविश्वास था, वह तो दर्शन और ज्ञान से खाली है! मामूली हिन्दू पंडितों के सामने भी मौलाना टिक नहीं पाते थे। चूँकि अकबर में एक आध्यात्मिक प्यास थी, इसलिए उस ने असलियत समझ ली।
फलतः उस ने लगभग 1582 ई. में एक नये धर्म ‘दीन-ए-इलाही’ की घोषणा की। यह इस्लाम से हटने की ही घोषणा थी। इसीलिए वामपंथी, मुस्लिम इतिहासकारों ने इसे लीपने-पोतने की कोशिश की है। आखिर प्रोफेट मुहम्मद, कुरान और हदीस के सिवा किसी भी चीज को महत्व देना इस्लाम-विरुद्ध है। तब अकबर ने तो सीधे-सीधे नये धर्म की ही घोषणा की!इस प्रकार, आध्यात्मिक खोजी स्वभाव के अकबर ने लंबी वैचारिक जाँच-पड़ताल के बाद इस्लाम से छुट्टी कर ली। तब दुनिया में सब से ताकतवर मुस्लिम शासक होने के कारण कोई मुल्ला उस का कुछ नहीं बिगाड़ सकते थे। मुल्ला बदायूँनी ने अपनी डायरी ‘मुन्तखाबात तवारीख’ में बेहद कटु होकर लिखा है कि,‘‘बादशाह काफिर हो गया है, चाहे कोई कुछ बोल नहीं सकता।’’
पर आजीवन स्वस्थ अकबर की 63 वर्ष की आयु में आकस्मिक मौत हो गई। कुछ विवरणों में उसे जहर देने की बात मिलती है। यदि सच हो, तो तख्त के लिए शहजादे सलीम का षड्यंत्र भी संभव है। लेकिन उलेमा भी अकबर से बेहद रंज थे। सो, अकबर की मौत का कुछ भी कारण रहा हो सकता है।किन्तु यह संयोग नहीं कि जिस इबादतखाना और ‘अनूप तालाब’ के अनेक समकालीन विवरण तथा पेंटिगें मिलती हैं, आज सीकरी मे इन दोनों का नामो-निशान नहीं है! निस्संदेह, उसे ‘कुफ्र’ की निशानी मानकर बाद में उलेमा ने नष्ट करवाया। यह अकबर की विरासत पर कोलतार पोतने का अंग था। संयोगवश वे मुल्ला बदायूँनी की लिखी गोपनीय डायरी की सभी प्रतियाँ नष्ट नहीं कर सके, जो बहुत बाद मिली थी।
उस जमाने के हिसाब से 1579-1605 ई. कोई छोटी अवधि नहीं, जो अकबर के इस्लाम से दूर हो जाने का काल था। उस दौरान अकबर ने जो किया, उस के अध्ययन के बजाए छिपाने का काम अधिक हुआ। ताकि इस पर पर्दा पड़ा रहे कि भारत के तमाम मुस्लिम शासकों में जो सब से प्रसिद्ध हुआ, वह बाद में मुसलमान ही नहीं रहा।कई बार अकबर से मिलने वाले गोवा के पादरी फादर जेवियर ने लिखा है कि अकबर इस्लाम छोड़कर कोई हिन्दू/देशी संप्रदाय (जेन्टाइल सेक्ट) स्वीकार कर चुका था। पुर्तगाली जेसुइटों ने अलग-अलग बातें लिखी हैं। किसी के अनुसार वह ईसाई हो गया था, तो किसी के अनुसार वह हिन्दू बन गया था। किन्तु अकबर के इस्लाम छोड़ने की बात कई विवरणों में एक जैसी मिलती है।
अकबर ने अपने बेटे को लिखे पत्रों में कर्म-फल और आत्मा के पुनर्जन्म सिद्धांत को तर्कपूर्ण और विश्वसनीय बताया था। उस ने शहजादे मुराद को पढ़ने के लिए ‘महाभारत’ का अनुवाद भेजा था। अबुल फजल की अकबरनामा के अनुसार अकबर को अपने जिहादी अतीत पर पश्चाताप भी था।चूँकि अकबर की मृत्यु अस्वभाविक हुई, इसलिए कहना कठिन है कि यदि वह और जीवित रहता तो उस की विरासत क्या होती। पर निस्संदेह वह इस्लाम-विरुद्ध होती। इसीलिए, सारे उलेमा अकबर से चिढ़ते हैं। उन्हें सच अधिक मालूम है, हिन्दुओं को कम। क्योंकि यहाँ सेक्यूलर-वामपंथी प्रचारकों ने अकबर को ‘मुगल शासन’ की उदारता का प्रतीक बनाने की जालसाजी की है।
अतः जावेद अख्तर को समझना चाहिए कि अकबर की महानता हमारे लिए बेमानी है। जैसे पीटर महान या नेपोलियन बोनाप्राट की महानता भारत के लिए प्रसंगहीन है। वे दूसरे देशों के इतिहास के अंग हैं। उसी तरह, अकबर भी किसी विदेशी समाज के इतिहास का हिस्सा है। हमारे लिए यही स्मरणीय है कि चाहे उसे युद्ध-क्षेत्र में हिन्दू पहले नहीं हरा सके, किन्तु यहाँ के मामूली ब्राह्मणों ने उस के मतवाद को उस के सामने ध्वस्त कर दिया था। अकबर की यही विरासत भारतीय मुसलमानों के लिए भी विचारणीय है!
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