(निशिथ पॉल)
एनआई अधिनियम की धारा 148 का प्रभाव है भूतलक्षी (Retrospective)
[सुरिंदर सिंह देशवाल @ कर्नल एस. एस. देसवाल बनाम वीरेंद्र गांधी]
इस मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने यह कहा कि निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट एक्ट की संशोधित धारा 148, एक्ट की धारा 138 के तहत अपराध के लिए सजा और सजा के आदेश के खिलाफ अपील के संबंध में लागू होगी। यहां तक कि यह ऐसे मामले में भी यह लागू होगी जहां धारा 138 के तहत अपराध की शिकायत वर्ष 2018 के संशोधन अधिनियम से पहले यानी 01.09.2018 से पहले दायर की गयी थी।
NI अधिनियम की धारा 148, जिसे वर्ष 2018 में एक संशोधन द्वारा पेश किया गया, अपीलीय अदालत को यह शक्ति देती है कि वह अभियुक्त/अपीलार्थी को ट्रायल कोर्ट द्वारा तय ‘जुर्माना’ या ‘मुआवज़े’ का न्यूनतम 20% जमा करने का निर्देश दे सके।
पीठ ने यह भी कहा कि अपीलीय अदालत के पास, ट्रायल कोर्ट द्वारा तय ‘जुर्माना’ या ‘मुआवज़े’ का न्यूनतम 20%, जमा करने के आदेश देने की शक्ति है। यह भी देखा गया कि अपीलीय अदालत द्वारा जमा करने का निर्देश नहीं देना एक अपवाद है जिसके लिए विशेष कारणों को दिया जाना होगा।
प्रश्न पूछे जाने पर वित्तीय क्षमता की व्याख्या करने के लिए शिकायतकर्ता है बाध्य
[बसलिंगप्पा बनाम मुदीबसप्पा]
यहां, अभियुक्त ने शिकायतकर्ता की वित्तीय क्षमता पर सवाल उठाया था, जिसे समझाया नहीं गया था। ट्रायल कोर्ट ने इन पहलुओं पर विचार करते हुए आरोपी को बरी कर दिया था। हालांकि, उच्च न्यायालय ने इस आदेश को उलट दिया और उसे दोषी ठहराया।
शीर्ष अदालत ने यह माना कि चेक बाउंस के मामले में एक शिकायतकर्ता अपनी वित्तीय क्षमता की व्याख्या करने के लिए बाध्य है, जब अभियुक्तों द्वारा सबूतों के साथ उस पर सवाल उठाए जाते हैं।
धारा 139 की परिकल्पना (presumption) धारित कर लेने के बाद, शिकायतकर्ता को निधि के स्रोत सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं है,
[रोहितभाई जीवनलाल पटेल बनाम गुजरात राज्य]
सर्वोच्च न्यायालय ने यह माना है कि यदि एक बार न्यायालय ने निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट की धारा 139 के अनुसार कानूनी रूप से लागू किए गए ऋण (legally enforceable debt) के अस्तित्व के विषय में परिकल्पना धारित कर ली है, उसके बाद यदि आरोपी उक्त परिकल्पना को ग़लत साबित करने में सक्षम नहीं है, तो धन के स्रोत (source of funds) जैसे कारक प्रासंगिक नहीं हैं। “यह जांच करने के दौरान कि क्या अभियुक्त द्वारा, परिकल्पना को ग़लत साबित किया गया है या नहीं, जब ऐसी परिकल्पना धारित कर ली गयी है, तो प्राप्तियों या खातों के रूप में दस्तावेजी सबूतों की जरुरत या धन के स्रोत के संबंध में सबूत जैसे कारक प्रासंगिक नहीं हैं”, हाईकोर्ट के एक फैसले, जिसमें ट्रायल कोर्ट द्वारा बरी किये जाने के आदेश को रद्द कर दिया गया, की अपील को खारिज करते हुए जस्टिस ए. एम. सप्रे और दिनेश माहेश्वरी की बेंच ने कहा।
खाली एवं हस्ताक्षरित चेक का बाद में भरा जाना, बदलाव नहीं
[बीर सिंह बनाम मुकेश कुमार]
सर्वोच्च न्यायालय ने यह माना है कि बाद में भरे गए एक खाली हस्ताक्षरित चेक को भरना एक परिवर्तन (alteration) नहीं है और यहां तक कि एक खाली चेक लीफ, जो स्वेच्छा से हस्ताक्षरित है और जिसे आरोपी द्वारा सौंप दिया गया है, जो कि भुगतान की ओर है, किसी भी स्पष्ट सबूत के अभाव में (यह दिखाने के लिए कि वह चेक किसी ऋण के निर्वहन में जारी नहीं किया गया था) नेगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट की धारा 139 के तहत अनुमान को आकर्षित करेगा।
न्यायमूर्ति आर. बनुमथी और न्यायमूर्ति इंदिरा बनर्जी की पीठ ने यह भी देखा कि चेक के आदाता और उसके ड्रॉअर के बीच एक विश्वासाश्रित संबंध (fiduciary relationship) का अस्तित्व, अनुचित प्रभाव (undue influence) या जोर-जबरदस्ती (coercion) के साक्ष्य के अभाव में, आदाता (payee) को निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट अधिनियम की धारा 139 के तहत परिकल्पना के लाभ से वंचित नहीं करेगा ।
बिक्री समझौते के उद्देश्य से जारी किए गए चेक- धारा 138 के अंतर्गत आयेंगे
[रिपुदमन सिंह बनाम बालकृष्ण]
उच्चतम न्यायालय ने यह देखा है कि निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट की धारा 138 के तहत एक शिकायत लायी जा सकती है, जब बिक्री समझौते (agreement to sell) हेतु जारी किए गए चेक का अनादर (bounce) हुआ हो।
यह माना गया कि चेक, बिक्री समझौते के अनुसरण में जारी किए गए थे. हालांकि, एक बिक्री समझौता, अचल संपत्ति में कोई अधिकार को जन्म नहीं देता है, फिर भी यह पार्टियों के बीच कानूनी रूप से लागू करने योग्य एक अनुबंध का गठन करता है, अदालत ने कहा।
दूसरी सूचना के आधार पर चेक-बाउंस की शिकायत विचारणीय है।
[सिकाज़ेन इंडिया लिमिटेड बनाम महिंद्रा वादिनेनी]
इस मामले में आरोपियों द्वारा जारी किए गए 3 चेक शिकायतकर्ता द्वारा प्रस्तुत किए गए थे, और जब वो बाउंस हो गए, तो 31.08.2009 को आरोपियों को नोटिस जारी किये गए थे, जिनमे राशि के पुनर्भुगतान की मांग की गयी थी। इसके बाद, ये चेक फिर से प्रस्तुत किए गए, जो फिर से बाउंस हो गए। शिकायतकर्ता ने 25.01.2010 को एक सांविधिक नोटिस जारी किया और बाद में दूसरी सांविधिक सूचना के आधार पर परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 138 के तहत शिकायत दर्ज की।
शीर्ष अदालत ने कहा कि चेक की पुन: प्रस्तुति के बाद जारी किए गए दूसरे वैधानिक नोटिस के आधार पर दायर एक ‘चेक बाउंस’ शिकायत, विचारण योग्य है.
पीठ ने एमएसआर लेदर्स बनाम एस. पलान्यप्पन और अन्य में 3-न्यायाधीश पीठ के फैसले का उल्लेख किया, जिसमें कहा गया था कि अधिनियम की धारा 138 के प्रावधानों में ऐसा कुछ भी नहीं है जो चेक के धारक को चेक की क्रमिक प्रस्तुति (successive presentation) करने से और उस द्वितीय चेक की प्रस्तुति के आधार पर आपराधिक शिकायत दर्ज कराने से मना करता हो।
आनुपातिकता के परीक्षण (Test of Proportionality) के अनुसार यह निर्धारित किया जाना चाहिए कि क्या परिकल्पना (PRESUMPTION) को ग़लत साबित (rebutted) किया गया था।
[ANSS राजशेखर बनाम अगस्टस जेबा अनंत]
यह अभिनिर्णीत करते हुए कि कानूनी रूप से प्रवर्तनीय ऋण (legally enforceable debt) के अस्तित्व के संबंध में, परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 139 के तहत धारित परिकल्पना (presumption) को ग़लत साबित कर दिया गया था, उच्चतम न्यायालय ने धारा 138 एनआई अधिनियम के तहत दर्ज एक मामले में एक अभियुक्त को बरी कर दिया। “यह निर्धारित करने में कि क्या धारित परकल्पना को ग़लत साबित कर दिया गया है, आनुपातिकता के परीक्षण को अपनाया जाना चाहिए। अधिनियम की धारा 139 के तहत, धारित परिकल्पना के खंडन के लिए प्रमाण का मानक (standard of proof) संभावनाओं के एक पूर्वनिर्धारण (preponderance of probabilities) द्वारा निर्देशित है”, जस्टिस डी. वाई. चंद्रचूड़ और एम. आर. शाह की पीठ ने उच्च न्यायालय के फैसले को रद्द करते हुए, जिसने प्रथम अपीलीय अदालत द्वारा बरी के आदेश को पलट दिया था, यह अवलोकन किया।
कंपनी निदेशक के खिलाफ चेक बाउंस की शिकायत को रद्द किया जाना
[एआर राधा कृष्ण बनाम दसारी दीप्ति]
सर्वोच्च न्यायालय ने यह दोहराया है कि, कंपनी और उसके निदेशक के खिलाफ ‘चेक बाउंस’ की शिकायत में यह ख़ास तौर पर कहा और बताया जाना चाहिए, कि निदेशक उक्त समय के लिए, जब परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 138/141 के तहत अपराध हुआ, तो वह कंपनी के व्यवसाय का संचालन एवं जिम्मेदारी का निर्वहन कर रहा था।
ऋण/देयता के मात्र इनकार से सबूत का भार (burden of proof) स्थानांतरित नहीं होता है।
[किशन राव बनाम शंकर गौड़ा]
सुप्रीम कोर्ट ने यह दोहराया कि एक चेक के अनादर के मामले में केवल ऋण या देनदारी से इनकार करना, आरोपी के ऊपर से सबूत के भार (burden of proof) को स्थानांतरित नहीं कर सकता है। न्यायमूर्ति ए. के. सीकरी और न्यायमूर्ति अशोक भूषण की पीठ ने एक बार फिर स्पष्ट कर दिया कि निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट, 1881 की धारा 139, धारक के पक्ष में परिकल्पना धारित करने की व्यवस्था करती है, और ऋण के अस्तित्व एवं प्रतिफल के पास होने से केवल इनकार करने से अभियुक्त के उद्देश्य की पूर्ति नहीं होगी।
डिक्री राशि के प्रतिशत के आधार पर वकील का फीस का दावा, धारा 138 एनआई अधिनियम के तहत एक शिकायत का आधार नहीं हो सकता है
[बी. सुनीता बनाम तेलंगाना राज्य]
सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में यह अभिनिर्णित किया कि मुकदमेबाजी में विषय वस्तु के प्रतिशत के आधार पर एक वकील द्वारा शुल्क राशि का दावा, निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट अधिनियम की धारा 138 के तहत एक शिकायत का आधार नहीं हो सकता है।
इसमें कहा गया है कि विषय वस्तु में हिस्सेदारी के आधार पर वकील द्वारा किया गया ऐसा दावा एक पेशेवर कदाचार (professional misconduct) है और उसके द्वारा दायर शिकायत को कानून की प्रक्रिया का दुरुपयोग माना जाएगा और उसे रद्द करना होगा।
अभियुक्त से मुआवजा प्राप्त किया जा सकता है, भले ही ‘डिफ़ॉल्ट सेंटेंस’ से गुजरा जा चुका है ़़।
[कुमारन बनाम केरल राज्य]
सर्वोच्च न्यायालय ने यह माना कि न्यायालय द्वारा आदेशित क्षतिपूर्ति/मुआवजा, वसूली योग्य होगा, भले ही एक डिफ़ॉल्ट सजा भुगती जा चुकी है। न्यायमूर्ति आर. एफ. नरीमन और न्यायमूर्ति नवीन सिन्हा की खंडपीठ ने केरल उच्च न्यायालय के एक फैसले को बरकरार रखा, जिसमें धारा 421 सीआरपीसी के अंतर्गत मजिस्ट्रेट के आदेश को मंजूरी दी गयी थी, जिसमें चेक बाउंस के मामले में आरोपी के खिलाफ मुआवजा देने हेतु एक डिस्ट्रेस वारंट का आदेश जारी किया गया था, लेकिन एक अलग तर्क के लिए।
रिमाइंडर नोटिस, प्रथम सूचना के सर्विस न होने का एडमिशन नहीं है
[एन. परमेश्वरन उन्नी बनाम जी. कन्नन]
सुप्रीम कोर्ट ने यह माना कि चेक के ड्रावर को रिमाइंडर नोटिस भेजा जाना, शिकायतकर्ता द्वारा भेजी गयी प्रथम नोटिस के सर्विस न होने के एडमिशन/स्वीकृति के रूप में नहीं माना जा सकता है। इस मामले में, शिकायतकर्ता ने चेक बाउंस होने के 15 दिनों के भीतर एक नोटिस जारी किया था, लेकिन इसे एक तस्दीक (endorsement), ‘सूचना दी गयी, पते पर रहने वाला अनुपस्थित’ के साथ लौटा दिया गया था। उन्होंने फिर से एक नोटिस भेजा, जिस इस डाक को इस तस्दीक के साथ लौटाया गया कि, “इनकार किया गया, प्रेषक को लौटाया गया”। शीर्ष अदालत की खंडपीठ ने कहा कि यह कानून है कि जब कोई नोटिस पंजीकृत डाक से भेजा जाता है और डाक इस तस्दीक के साथ लौटाया जाता है कि “इनकार कर दिया” या “घर में उपलब्ध नहीं” या “घर बंद” या “दुकान बंद”, तो नियत सेवा (due service) मान ली जाती है।
138 NI अधिनियम के तहत अपराध व्यक्ति विशिष्ट है
[एन. हरिहर कृष्णन बनाम जे. थॉमस]
सुप्रीम कोर्ट ने यह माना कि निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट की धारा 138 के तहत अपराध व्यक्ति विशेष है। यह भी स्पष्ट किया गया कि Cr.P.C के तहत सामान्य अवधारणा कि अपराध के खिलाफ संज्ञान लिया जाता है और अपराधी के खिलाफ नहीं, यह एनआई अधिनियम के तहत अभियोजन के मामले में उचित नहीं है। मामले में शिकायतकर्ता को एक चेक जारी किया गया था, जिस पर एक हरिहर कृष्णन ने हस्ताक्षर किए थे। यह चेक कथित तौर पर मेसर्स नॉर्टन ग्रेनाइट्स प्राइवेट लिमिटेड द्वारा देय, शेष बिक्री पर प्रतिफल के निर्वहन में ड्रा किया गया था। हालांकि, चेक वास्तव में एक अन्य निजी लिमिटेड कंपनी, मेसर्स दक्षिण ग्रेनाइट्स प्राइवेट लिमिटेड के खाते पर ड्रा किया गया था, जिसमें हरिहर कृष्णन एक निदेशक भी थे।
15 दिनों के नोटिस की अवधि समाप्त होने से पहले शिकायत विचारणीय नहीं
[योगेंद्र प्रताप सिंह बनाम सावित्री पांडे]
उच्चतम न्यायालय ने यह माना कि निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट 1881 की धारा 138 के तहत दंडनीय अपराध का संज्ञान 15 दिनों की अवधि पूरी होने से पहले दर्ज की गई सूचना के आधार पर नहीं लिया जा सकता है, जो अवधि, निगोशिएबल इंस्ट्रूमेंट्स एक्ट 1881 की धारा 138 (सी) के संदर्भ में चेक के ड्रॉअर को दिए जाने के लिए आवश्यक नोटिस अवधि के रूप में निर्धारित की गई है। यह भी कहा गया है कि चेक payee या धारक द्वारा आपराधिक मामले में फैसले की तारीख से एक महीने के भीतर एक नई शिकायत दर्ज की जा सकती है और उस दशा में, शिकायत दर्ज करने में देरी को एनआई अधिनियम की धारा 142 की धारा (बी) के परंतुक के तहत ‘condoned’ माना जाएगा।