इस सप्ताह दो ऐसी घटनाएं घटित हुई हैं जिनके साथ अहम संयोग जुड़े हुए हैं। इनका राष्ट्रीय राजनीति पर भी महत्त्वपूर्ण असर होना तय है। हालांकि इस बात को लेकर बहुत उत्साहित होने की आवश्यकता भी नहीं है कि इन घटनाओं के चलते कुछ जटिल समस्याओं का हल निकल आएगा। बीते सोमवार को सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश दिया कि सहारा प्रमुख सुब्रत रॉय की मशहूर ऐंबी वैली की संपत्ति की नीलामी करके सहारा समूह का बकाया हासिल किया जाना चाहिए। एक अनुमान के मुताबिक ब्याज समेत करीब 47,000 करोड़ रुपये का बकाया उन्हें बाजार नियामक सेबी को देना है। इस राशि में से समूह अब तक 11,477 करोड़ रुपये दे चुका है।
इसके एक दिन बाद ब्रिटेन के अधिकारियों ने विजय माल्या के खिलाफ प्रत्यर्पण का मामला शुरू किया। माल्या के ऊपर देश के बैंकों की 9,000 करोड़ रुपये की धनराशि बकाया बताई जाती है। माल्या बीते 13 महीनों से देश से बाहर रह रहे हैं। ब्रिटेन के विदेश मंत्री द्वारा इस कार्यवाही का अनुमोदन किए जाने के बाद लंदन पुलिस ने माल्या को गिरफ्तार करके स्थानीय अदालत के समक्ष पेश किया। वहां से उन्हें सशर्त जमानत मिल चुकी है।
आर्थिक घटनाकम की दृष्टिï से देखें तो ये कदम सुब्रत राय और विजय माल्या से बकाया वसूलने की दिशा में एकदम शुरुआती कदम हैं। परंतु भारत जैसे देश में जहां ऐसे कदम अत्यंत धीमे और दुर्लभ हैं, यह एक अच्छी शुरुआत है। एक ओर जहां ये कदम बहुत धीमे होते हैं वहीं सबसे बुरी बात यह है कि जब कई वर्ष के बाद यह प्रक्रिया समाप्त होती है अक्सर आरोपित अपेक्षाकृत आसानी से छूट जाते हैं।
यह धीमापन कई बार प्रक्रियागत भी होता है। उदाहरण के लिए आगामी 27 अप्रैल को सर्वोच्च न्यायालय को लक्जरी टाउनशिप ऐंबी वैली के मूल्यांकन की रिपोर्ट मिलने की उम्मीद है। अगर नीलामी की प्रक्रिया उसी दिन शुरू हो जाए तो भी बिक्री होने और पैसे मिलने में लंबा समय लगेगा। इसी प्रकार माल्या को प्रत्यर्पण संबंधी मामले में स्थानीय अदालत द्वारा दिए गए किसी भी निर्णय के खिलाफ अपील के लिए 14 दिन का वक्त मिलेगा। अदालत को यह निर्णय करना है कि क्या भारत सरकार द्वारा चाहे गए प्रत्यर्पण पर अंतिम निर्णय ब्रिटेन के विदेश मंत्री को करने दिया जाए? अब इस मामले की अगली सुनवाई 17 मई को होनी है।
सैद्घांतिक तौर पर देखें तो अगर स्थानीय अदालत प्रत्यर्पण करने का निर्णय लेती है तो माल्या 31 मई तक उच्च न्यायालय के समक्ष अपील कर सकते हैं। अगर उच्च न्यायालय उस अपील को ठुकरा देता है तो उनके पास 14 दिन का और वक्त होगा जब वह सर्वोच्च न्यायालय का रुख कर सकते हैं। इनमें से हर जगह परास्त होने के बाद ही उनके प्रत्यर्पण पर अंतिम निर्णय लिया जाएगा। ब्रितानी विदेश मंत्री के पास संबंधित निर्णय लेने के लिए चार सप्ताह का समय होगा। इससे पहले वह भी माल्या का पक्ष सुनेंगे। लब्बोलुआब यह कि माल्या का प्रत्यर्पण हुआ भी तो वह जुलाई 2017 के पहले नहीं होगा।
यह भी याद रखें कि ब्रिटेन में आगामी 8 जून को चुनाव होने हैं। ऐसे में जाहिर सी बात है कि माल्या के प्रत्यर्पण पर आखिरी फैसला ब्रिटेन में बनने वाली नई सरकार लेगी। यह भी संभव है कि माल्या के प्रत्यर्पण का मसला वहां राजनीतिक अभियान का हिस्सा बन जाए इसलिए क्योंकि ब्रिटेन में बहुत बड़ी तादाद में भारतीय मूल के मतदाता रहते हैं।
भारत में सर्वोच्च न्यायालय के सहारा के खिलाफ कदम से मोदी सरकार को बड़ा राजनीतिक लाभ मिल सकता है। अगर वह माल्या का प्रत्यर्पण करा सकी तो भी उसे बड़ा फायदा होगा। ऐसे में मोदी सरकार दोनों मामलों में सफलता की कामना करेगी।
याद रखिए कि विकृत पूंजीवाद और कालेधन से निपटना 2014 के आम चुनाव के चुनावी वादों में से प्रमुख था। इसने भाजपा की जीत में मदद की थी। लेकिन यह पहला मौका है जब इतने बड़े कारोबारियों से वसूली की प्रक्रिया एक हद तक शुरू हुई है। ये वो लोग हैं जिनके राजनीतिक संपर्क भी विवादों में रहे हैं। आश्चर्य नहीं कि भाजपा पहले ही लोगों को यह याद दिलाने में लग गई है कि पिछली सरकार ऐसे मामलों में ठोस कदम नहीं उठा पा रही थी।
आलोचक कहेंगे कि सुब्रत रॉय और विजय माल्या के खिलाफ कदमों का श्रेय सरकार को नहीं बल्कि अदालतों को मिलना चाहिए। रॉय के मामले में सर्वोच्च न्यायालय को और माल्या के मामले में ब्रिटेन की अदालत को। लेकिन इससे यह तथ्य नहीं छिपता कि भाजपानीत सरकार के अधीन सेबी की सख्ती ने इसके लिए माहौल तैयार किया। इसके चलते ही सहारा की ऐंबी वैली जैसी महंगी टाउनशिप को बेचकर बकाया वसूल करने का माहौल बन पाया। इसी प्रकार मोदी सरकार के अधीन केंद्रीय वित्त मंत्रालय के प्रयास से ही माल्या के खिलाफ ब्रिटेन सरकार ने प्रत्यर्पण की प्रक्रिया शुरू की। उसके बाद ही उनकी गिरफ्तारी हुई और वह सशर्त जमानत पर रिहा हुए। अब प्रत्यर्पण की प्रक्रिया अदालती निगरानी में चल रही है।
जल्दी ही मोदी सरकार इन दो उदाहरणों के साथ जनता के बीच जा सकती है। यह सीधे तौर पर बड़े कारोबारियों द्वारा वित्तीय अनियमितता के मामले में सरकार की उपलब्धि है। इस बात की काफी संभावना है कि इन घटनाओं को विकृत पूंजीवाद और ऐसे अपराधों के खिलाफ सरकार के प्रयासों के तौर पर पेश किया जाए। कांग्रेस अथवा अन्य विपक्षी दल चाहकर भी ऐसे अभियान का कोई विरोध नहीं कर पाएंगे।
साभार- http://hindi.business-standard.com/ से