आचार्यश्री विद्यानन्द जी मुनिराज युग प्रभावक आचार्य थे । वे एक ऐसे महान् राष्ट्रसंत थे जिन्होंने भारत एवं भारतीय संस्कृति के साथ ही श्रमण संस्कृति, साहित्य एवं समाज के विकास में जो महनीय योगदान दिया है, उसे कभी भुलाया नहीं जा सकता । वे युगांतकारी भी थे, एक समय जब जैन समाज में मुनिराजों की संख्या बहुत कम थी, उस समय उन्होंने एक प्रभावक मुनिराज के रूप में जैनधर्म-संस्कृति-समाज-साहित्य और प्राकृत भाषा को एक राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विशेष पहचान दिलाने में अपनी महनीय भूमिका निभाई ।
सन् 1974-75 में जब राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर तीर्थंकर महावीर भगवान का पच्चीस सौवां निर्वाण कल्याणक महोत्सव वर्ष भर बड़े उत्साह से मनाने का प्रसंग आया तब आपकी अगुवाई में जैन समाज के दोनों संप्रदायों दिगंबरों व श्वेतांबरों ने मिलकर इस महोत्सव को प्रभावशाली रूप में मनाने में जो एकता और उत्साह का परिचय दिया, वह सम्पूर्ण जैन संस्कृति के इतिहास का एक अविस्मरणीय और सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है ।
इसी अवसर पर सम्पूर्ण जैन समाज ने उदार हृदय से एक पचरंगा ध्वज, ‘परस्परोपग्रहो जीवानाम्’ के सूत्र से युक्त प्रतीक चिन्ह और ‘समणसुत्तं’ के रूप में एक प्रतिनिधि प्राकृत आगम शास्त्र स्वीकार किया । इसी अवसर पर भारत की राजधानी दिल्ली में जैन धर्म के दोनों संप्रदायों के प्रमुख एवं ज्येष्ठ संतों को एक मंच पर लाने और परस्पर सौहार्द्र तथा समन्वय का जो अभूतपूर्व वातावरण बना, वह सब आपके ही प्रयासों का सुफल था । इसी अवसर पर दोनों संप्रदायों के श्रेष्ठ विद्वानों को तत्कालीन उपराष्ट्रपति माननीय श्री बी.डी. जत्ती द्वारा पुरस्कृत किया गया ।
आपके नेतृत्व में श्रवणबेलगोला स्थित प्रत्येक बारह वर्ष में होने वाले गोम्मटेश्वर बाहुबली भगवान की विशाल प्रतिमा के महामस्तकाभिषेक महोत्सव के सहस्राब्दि वर्ष को, आचार्य कुन्दकुन्द के द्विसहस्राब्दी समारोह को, अतिशय क्षेत्र श्री महावीर जी के सहस्राब्दी समारोह को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विशेष ख्याति दिलाने और इसके विशाल स्तर पर आयोजन का प्रसंग आज भी अविस्मरणीय है। गणतन्त्र दिवस के अवसर पर राजपथ पर प्रदर्शित की जाने वाली शताधिक झाँकियों में आपकी प्रेरणा से जैन संस्कृति को दर्शाने वाली ‘गोम्मटेश्वर बाहुबली भगवान’ की प्रतिमा से युक्त झाँकी को स्थान मिला, जिसे भारत सरकार द्वारा वर्ष २००६ का प्रथम पुरस्कार प्रदान किया गया ।
अनेक वर्षों से उपेक्षित भगवान महावीर की जन्मभूमि वैशाली, कुण्डग्राम का विकास न होने की उन्हें बहुत चिंता थी। इसके लिए उन्होंने जो प्रयास किए वह आज सभी के समक्ष भव्य विशाल जिनालय, तीर्थंकर महावीर की भव्य प्रतिमा और भव्य परिसर के विकास तथा प्रत्येक वर्ष भव्य रूप में यहाँ महावीर जन्म कल्याणक महोत्सव मनाए जाने के रूप में प्रस्तुत हैं। यह आपका समाज, संस्कृति और राष्ट्र के प्रति महत्त्वपूर्ण उपकार है ।
प्राकृत भाषा और साहित्य के प्रति तो आपके मन में अत्यधिक अनुराग था किन्तु जनमानस में प्राकृत साहित्य के प्रति उपेक्षा को वह आंतरिक रूप से अनुभव कर रहे थे। इसके लिए उन्होंने अनेक प्राकृत सम्मेलन आयोजित कराये । २८ से ३० अक्टूबर १९९४ में प्राकृत भारती, दिल्ली में आयोजित एक सम्मेलन में आचार्यश्री से चर्चा के दौरान मैंने (प्रो. फूलचंद जैन प्रेमी, वाराणसी) उनके समक्ष संस्कृत दिवस, हिन्दी दिवस आदि की तरह प्राकृत भाषा और इसके विकास के लिए प्रत्येक वर्ष की श्रुतपंचमी (ज्येष्ठ शुक्ल पंचमी) के दिन प्राकृत दिवस मनाने का प्रस्ताव रखा ।
यह प्रस्ताव उन्हें तथा सम्पूर्ण सम्मेलन में उपस्थित विद्वानों को इतना अधिक पसंद आया कि उन्होंने प्रत्येक वर्ष श्रुतपंचमी को प्राकृत दिवस में रूप में मनाने की घोषणा ही कर दी और कई वर्षों तक इस प्राकृत दिवस के दिन आपने प्राकृत कवि सम्मेलन आयोजित किए और विद्वानों को प्राकृत कविताएँ लिखने हेतु प्रोत्साहित किया। यही कारण है कि आज राष्ट्रीय स्तर पर प्राकृत भाषा और साहित्य की एक विशेष पहचान बनी और महत्ता सिद्ध हुई।
आपने अनेक उत्कृष्ट विद्वानों द्वारा आचार्य कुन्दकुन्द जैसे अनेक महान् आचार्यों के शास्त्रों को जन-मानस में प्रचलित करने हेतु समयसार, रयणसार जैसे ग्रन्थों का सरल, सुबोध शैली में सम्पादन, अनुवाद कराकर प्रकाशित कराया । ये ग्रंथ समाज में आज भी लोकप्रिय हैं। आपके प्रभावक प्रवचनों को आलेखबद्ध कर अनेक छोटी-बड़ी पुस्तकें प्रकाशित हुईं। जैन साहित्य के विकास में आपका बहुमूल्य योगदान है ।
जब मैंने सन् 1976 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से ‘मूलाचार का समीक्षात्मक अध्ययन’ विषय पर पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की तब इस शोधप्रबंध के प्रकाशन के पूर्व अनेक विषयों पर आपसे विशेष मार्गदर्शन और आशीर्वाद प्राप्त हुआ था। जब मैंने उन्हें श्री स्याद्वाद महाविद्यालय, वाराणसी के शताब्दी समारोह की स्मारिका भेंट की और यह बताया कि आरंभ से अब तक इस विद्यालय में पढ़े सभी विद्यार्थियों की सूची में आपके पिताश्री श्री कालप्पा अन्ना उपाध्ये जी का भी नाम है, जिन्होंने कि सन् १९०६ में यहाँ प्रवेश लेकर जैन शास्त्रों का अध्ययन किया था, तो वे यह जानकार अत्यंत हर्षित और गर्वित हुए ।
श्री लालबहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ नई दिल्ली में प्राकृत विभाग का शुभारंभ भी आपकी ही प्रेरणा से हुआ था तथा यहीं के जैनदर्शन विभागाध्यक्ष एवं मेरे ज्येष्ठ सुपुत्र डॉ. अनेकान्त कुमार जैन द्वारा संपादित एवं प्रकाशित प्राकृत भाषा की प्रथम पत्रिका ‘पागद भासा’ के नामकरण का श्रेय भी आपको ही है । सभी लिपियों की जननी ब्राह्मी लिपि के विकास हेतु एवं विशेष प्रचार हेतु आपने अनेक प्रयास किए ।
आप बहुत ही ज्ञान पिपासु थे । जैन एवं वैदिक शास्त्रों के मर्मज्ञ ज्ञाता होकर भी आप समय-समय पर विद्वानों से इन ग्रन्थों का सामूहिक रूप से स्वाध्याय करवाने में बहुत रुचि लेते थे । स्वयं भी अहर्निश विविध शास्त्रों का पारायण करते रहते थे और जब भी कोई विद्वान आपके दर्शनार्थ पहुँचता, आप उनसे यहाँ-वहाँ कि चर्चा किए बिना सीधे शास्त्रों में निहित ज्ञान की चर्चा करते रहते थे। मुझे स्वयं उनके द्वारा स्वाध्याय किए हुए शास्त्रों को देखने का सुअवसर मिला । उनके पास संग्रहीत प्रत्येक शास्त्र के महत्त्वपूर्ण अंश लाल-पीली-नीली स्याही से रेखांकित मिलेंगे ।
जब-जब जैन धर्म, समाज और संस्कृति पर कोई भी बड़े संकट आए, तब-तब आपने एक संकटमोचक बनकर अपने प्रभाव से उन्हें दूर किया। आपने धर्म और संस्कृति को सार्वजनिक जीवन व्यवहार का अंग बनाने का श्लाघनीय प्रयत्न किया। आपने जैन धर्म, साहित्य, समाज, संस्कृति और इतिहास के विकास के नए क्षितिज उन्मुक्त किए और जैनधर्म को जनधर्म बनाने का सूत्रपात किया। आपको जैनधर्म के आध्यात्मिक भजन बहुत प्रिय थे। अपनी प्रत्येक धर्म सभा के पूर्व नियमित रूप में प्राचीन कवियों द्वारा रचित शास्त्रीय संगीत पर आधारित ऐसे ही आध्यात्मिक भजनों को उत्कृष्ट गायकों से सम्पूर्ण धर्म सभा में सुनते थे। ‘तुमसे लागी लगन, ले लो अपनी शरण, पारस प्यारा’ – यह भजन तो उन्हें इतना प्रिय था, कि उनकी हर धर्म सभा में भी इसका सामूहिक रूप से गान होता था । तब पहली बार आकाशवाणी से जैन भजन प्रसारित हुए थे तथा पूरे देश में इसी प्रकार के भजनों के कैसेट आदि बनने की परंपरा की भी शुरुआत हुई ।
आपने सम्पूर्ण देश में पद विहार करते हुए अपने उदार एवं समन्वय से भरपूर चिंतन एवं प्रवचनों के द्वारा जैन ही नहीं सम्पूर्ण भारतीय समाज को भी प्रभावित किया । अहिंसा, अनेकांतवाद, स्याद्वाद, अपरिग्रह एवं समता जैसे जैनधर्म के अनेक महान् सिद्धान्त, सम्पूर्ण मानव समाज और राष्ट्र के लिए ये सब कैसे उपयोगी हैं, इन्हें जन-जन को समझाया।
इस प्रकार एक उत्कृष्ट क्षपकराज के रूप में आपने अपने दीर्घ संयम साधना का आदर्श प्रस्तुत करते हुए यम सल्लेखना पूर्वक अश्विन कृष्ण अष्टमी वीर निर्वाण संवत् २०४५ ( दिनांक २२/०९/२०१९) के ब्रह्म मुहूर्त (2:40 पूर्वाह्न) में अनेक आचार्य संघों और विशाल जनसमुदाय के समक्ष दिल्ली स्थित कुन्दकुन्द भारती में समता पूर्वक समाधिमरण को प्राप्त किया । ऐसे महान् प्रभावक आचार्य मुनिराज को बारंबार नमोस्तु ।
प्रो. फूलचन्द जैन प्रेमी, वाराणसी
( राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित )
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