आज से छह वर्ष पहले, देव आनंद के निधन से फ़िल्मी दुनिया के उस युग का समापन हुआ जिस युग में मानवीय संवेदनाएँ, प्रेम और नैतिकता जैसे आदर्श फिल्मों का आधार हुआ करते थे तथा लोग परिवार संग फिल्मों का लुत्फ़ उठाया करते थे. बेशक य़े कहना गलत ना होगा कि उस बेमिसाल युग के रूमानी प्रेम, सकारात्मकता और आशा का अगर कोई अनुपम प्रतीक था तो वो थे हंसमुख और हरदिल अज़ीज़ देव आनंद.
देव साहब से मिलना वाकई एक दैविक आनंद की अनुभूती थी और बरबस यूँ लगता था मानों हम “गाइड” फिल्म के उसी योगी से मुखातिब हैं जो सुख-दुख और सफलता-विफलता से परे, अपार शांति से परिपूर्ण है. आत्मावलोकन और विश्वास से उपजा उनका कथन कि “मेरे अन्दर खुशी का एक खज़ाना केन्द्रित है और मुझे कोई डर नहीं है” एक ऐसे सजग व्यक्तित्व का जीवन दर्शन का आभास देता था जो कि राग-द्वेष या लालच से कोसों दूर जा चुका था.
अपनी अदभुत मुस्कान से दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर देने वाले देव आनंद, वास्तविक जीवन में अथाह ऊर्जा और मनमोहक व्यक्तित्व के धनी थे. वक्त ने बेशक उनकी नाजुक काया को कुछ झुका दिया था पर उनका उत्साह और सृजन शक्ती वो कभी कम नहीं कर पाया. अपार प्रसिद्धी के बावजूद उनसे मिलना बहुत ही आसान था और उनका प्रेम और शिष्टता से परिपूर्ण आचरण हरेक आगंतुक को सम्मोहित कर देता था. लम्बी वाकफियत के बाद जब एक दफा मैंने उन्हें बताया की मैं कई साल तक उनसे इसलिए नहीं मिला क्यूंकि मुझे डर था कि वो कहीं मुझे दुत्कार ना दें, तो प्यार से बोले “जो मन कहे वो ज़रूर कर लेना चाहिए और इस दुविधा में नहीं पड़ना चाहिए की उसका अंजाम क्या होगा”. उनकी नसीहत के बाद मुझे भी अफ़सोस हुआ कि क्यूँ मैंने इतने साल झिझक में गवां दिए जबकि वो मेरे लिये बहुत ही स्नेहिल व्यक्ती साबित हुए थे.
कहते हैं बड़ा आदमी वो होता है जो कि छोटों को भी अपनत्व का अहसास कराये और इस लिहाज़ से देव साहब बहुत ही सज्जन व्यक्ती थे. “हम दोनों” फिल्म के रंगीन संस्करण देखने की इच्छा ज़ाहिर करने पर तपाक से बोले “प्रीमियर शो पर चले आओ”. मुझे थोड़ी झिझक हुई पर जब वहां गया तो भौंचक्का रह गया क्यूंकि द्वार पर ना केवल मेरे आतिथ्य के लिये उनका ख़ास सेवक खड़ा था बल्कि मेरे लिये एक विशेष सीट भी मुक़र्रर थी. पर इससे भी ज्यादा आशचर्य तब हुआ जब सलमान, आमिर और धर्मेन्द्र जैसे बड़े सितारों की मौजूदगी के बावजूद उन्होनें खुद आकर मुझ से खाना खाने का आग्रह किया. कृष्ण-सुदामा की कथा की तरह की य़े घटना इसलिए महत्वपूर्ण है क्यूंकि आजकल विशिष्ट आयोजनों में कई लोग अपनों की ही आवभगत करना भूल जाते हैं.
सदा मुस्काराते देव साहब के लिये नवीनता ही सृजन की प्रेरणा थी. वो जीवन के अदभुत प्रेक्षक थे और फिल्मों में ६५ साल बाद भी, जब कोई विचार या घटना उन्हें उद्वेलित करती तो वो तीन-चार दिन में एक स्क्रिप्ट खत्म कर देते थे. अपनी पाश्चात्य छवि के विपरीत, देव साहब हिंदी में कलम से लिखते थे और आख़री वक्त पर लन्दन जाने तक उनकी पांच स्क्रिप्ट पंजीकृत थीं. दूसरों की फिल्म कृतियों को नए अंदाज़ में पेश करना उन्हें बेहद नागवार था क्यूंकि उनके हिसाब से “यह विचारों का दिवालियापन है, खासकर जब जीवन में कई आकर्षक पहलू और रंग अभी भी अनछुए और अनकहे रह गये हैं”.
पीछे मुड़ कर ना देखने वाले देव साहब को चेतन आनंद, विजय आनंद, गुरु दत्त, सचिनदेव बर्मन, रफ़ी साहब और किशोर कुमार सरीखे भाइयों और सहयोगियों की अनुपस्थिती बहुत खलती थी पर जीवन रोकर गुजारना उन्हें नागवार था. एक बार बहुत कुरेदने पर उन्होनें माना की “हम दोनों” और “गाईड” फिल्में उनके दिल के बहुत करीब थीं क्यूंकि उनमें मानव मन की भावनाओं को उत्कृष्ट तरीके से पिरोया गया था. माहौल जब ग़मगीन होने लगा तो देव अपनी शरारती शैली में हँस कर कहने लगे कि “मैं ज़िंदगी का साथ निभाता चला गया” उनका प्रिय गीत था क्यूंकि उसमें “साहिर ने मेरे जीवन दर्शन को लफ़्ज़ों में बयान कर दिया था और रफी की जादुई आवाज ने मुझे एक अलग पहचान दी थी”. पर ना जाने क्यूँ मुझे लगा कि उनकी उस मुस्कुराहट के पीछे बहुत से आंसू छुपे थे जिन्हें वो किसी से बाँटते ना थे.
आख़री सांस तक वो अपना फोन खुद उठाते थे और उनका मानना था कि “फिल्म बनाना ईशवर की तरह सृजन करना है”. भगवान् कृष्ण के उपदेश “कर्मण्ये वाधिकारस्ते माँ फलेषु कदाचना, माँ कर्मफल हेतुर भुर्मतेय संगोस्त्व अकर्मणि” के सच्चे साधक को सफलता या असफलता हतौत्साहित नहीं करती थी. अब सिर्फ यादों के अवशेष हैं पर देव साहब ने जिस प्रकार हमारे जीवन को प्रेम से सराबोर किया है, उसके लिये हम सब उनके सदियों तक ऋणी रहेंगे.