आज के दौर में स्वार्थ इतना बढ़ गया है कि लोगों में दूसरों की सुख-सुविधा के बारे में सोचने की इच्छा ही नहीं रही। लेकिन भारत ने अपने मूल्य सदा आबाद रखे हैं। दूसरों को दुःख देना या दूसरों के अधिकार छीनना हमारी संस्कृति नहीं है। पर, हमने शायद ठीक तरीके से इस अमल नहीं किया। यही कारण है कि दुःख बार-बार हमें दुखी करता है।
राजकुमार सिद्धार्थ अपने महल से निकले थे खुशी की तलाश में और रास्ते में उन्होंने बूढ़े, बीमार और मुर्दे को देखा। ये दुःख के ही रूप हैं। गम कुछ इसी तरह से राजकुमार सिद्धार्थ की राह में खड़े थे। फिर क्या था? महल और रथ को छोड़कर दुःख दूर करने का उपाय ढूंढने निकल पड़े। महात्मा बुद्ध की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि किसी के दुःख को देखकर दुखी होने से अच्छा है, उसके दुःख को दूर करने के लिए उसे तैयार करना।
दुःख मन में होता है और कष्ट शरीर में। इंसान चलते-फिरते, बोलते, काम करते हुए भी एक गहरी नींद में डूबा रहता है। पर याद रहे कि दुःख का पहाड़ इंसान को नींद से जगा देता है। यही दुःख का प्रभाव है। हर पीड़ा एक संदेश देती है। हर दुःख एक चिट्ठी है। हर पीड़ा एक संदेश है। मगर हम उस संदेश को पढ़ नहीं पाते हैं।
हम न खुद को जानते हैं और न भविष्य को। हम दुःख को भोगते हैं। खुद का कोसते हैं। दूसरों को दोष देते हैं। यहां तक कि भगवान को भी दोष देते हैं। हम या तो अतीत पर गर्व करते हैं या उसे याद करके पछताते हैं। भविष्य की चिंता में डूबे रहते हैं। दोनों दुखदायी है। महात्मा बुद्ध ने वर्तमान का सदुपयोग करने की शिक्षा दी है। बुद्ध ने अतीत के खंडहरों और भविष्य के हवा महल से निकाल कर मनुष्य को वर्तमान में खड़ा रहने की शिक्षा दी है।
वास्तव में जीवन की परेशानियों के बीच शांत होकर बैठना सचमुच बहुत बड़ी बात है। अगर अतीत के खंडहर और भविष्य के हवा महल से मुक्त जा सके तो महावीर और बुद्ध की सीख का सार कुछ तो हमारे हिस्से आएगा। अगर हम स्वीकार करें कि जीवन के सबसे बड़े युद्ध बाहर नहीं, अपने भीतर के शांत कोनों में लड़े जाते हैं तो दुःख की चिंता भी सुख के चिंतन में बदल सकती है।
आइए चंद छोटे-छोटे संकल्प करें। जैसे हम स्वच्छता बनाये रखेंगे स्वच्छ रहेंगे। कूड़ा-करकट इधर-उधर नही फेंकेंगे। निश्चित स्थान पर ही कचरा फेंकेंगे। स्वच्छता मित्रों का सम्मान करेंगे, उन्हें सहयोग देंगे। धरती की हरियाली बचाये रखेंगे। अपने आस-पास पेड़-पौधे लगाएंगे। और लोगों को भी जगायेंगे। धरती माता का कर्ज़ चुकाएंगे। टालमटोल की आदत अगर हो तो छोड़ कर दिखाएंगे। किसी से विश्वासघात नहीं करेंगे।
और यह भी कि कठिन काम भी सरल रहकर करने की आदत विकसित करेंगे। जो सरल हैं उनकी राह कठिन बनाने की कुचेष्टा नहीं करेंगे। किसी के पाँव का काँटा भले ही न निकाल सकें,किसी की राह की बाधा कतई नहीं बनेंगे। काम कितना कठिन ही क्यों न हो कभी हार नहीं मानेंगे। देखिएगा आप खुद कह पड़ेंगे – जियो जीतने के लिए !
लेखक राजनांदगाँव शासकीय महाविद्यालय में प्राध्यापक हैं
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