मैं यह लेख परीक्षाएँ शुरू होने के ठीक पहले लिख रहा हूँ। मुझे यह लेख लिखने के लिये प्रेरित किया हमारे देश में हो रही प्रतिदिन की आत्महत्याओं की ख़बरों ने। आत्महत्या करने वाले वे छात्र हैं जो कि अभी ज़िंदगी, परीक्षा एवं आत्महत्या से पुरी तरह वाक़िफ़ भी नहीं हैं। उन्हें पता ही नहीं है कि परीक्षा देने या उसमें पास फेल से कई ज़्यादा उनका जीवित रहना ज़रूरी है। वे इस बात से भी अनजान है कि ज़िदगी केवल और केवल एक ही बार मिलती है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के अनुसार 15-29 साल की उम्र में आत्महत्या के मामलों में भारत सबसे ऊपर है। 2013 में देश में परीक्षा व नतीजों के डर से 2471 आत्महत्याएँ हुई। 2014 में रोज़ाना औसतन छह बच्चों ने ख़ुदकुशी की है।
हम ऐसे युग में रह रहे हैं जहाँ पर कि धैर्य की बेइंतहा कमी है। हम सब्र या धैर्य को बिल्कुल पसंद नहीं करते जबकि धैर्य के बिना सफलता नहीं मिलती है। आज के युवा 15 सेकण्ड तक भी वेब पेज़ खुलने का इंतज़ार नहीं करते, नमाज़ी इमाम को जल्दी नमाज़ खत्म करने के लिए दबाव बना रहे हैं, भक्त पंडित जी से जल्दी आरती खत्म करने के लिए विनती करते हैं, किसान फसल को जल्दी पकाना चाह रहे हैं, रोगी जटिल रोगों से एक दिन में ही मुक्त होना चाह रहे हैं, प्रकाशक लेखकों पर छोटी किताब लिखने को कह रहे हैं, तो न्यूज़ पेपर स्तंभकारों को स्तम्भ छोटे करने के लिये विनती कर रहे हैं।
अब अभिभावक भी अधैर्यवान हो गए हैं, और बच्चों को धैर्य नामक चिड़िया का नाम भी नहीं बताते। बच्चे को वे एक दौड़ में दौड़ाकर निश्चिंत हो जाते हैं कि अब तो वह जीतकर ही आएगा। लगभग हर अभिभावक अपने बच्चों से यही अपेक्षा करता है कि वह हर क्लास में अव्वल आए। द्वितीय स्थान आने पर अभिभावक बच्चों पर आँखें तरेरने लगते हैं या फिर निराशा की मुद्रा अपना लेते हैं।
अरब देशों में ऊंटों की दौड़ मशहूर है इसके लिए बच्चों को ऊंट की पीठ पर बांध दिया जाता है। इसमें बच्चे भय से कांपते हैं, रोते हैं, लहूलुहान हो जाते हैं। जीतने वाले बच्चें को फिर से अगली दौड़ के लिए तैयार कर दिया जाता है। यही दौड़ हमारी शिक्षा प्रणाली भी आयोजित करती है, बच्चों को ऊँट पर बांधकर दौड़ाने वाले अभिभावक और शिक्षक हैं और इसमें भाग लेने वाले मासूम बच्चे। ये अभिभावक और शिक्षक भी उतने ही निर्दयी हैं जितने कि वे ऊँटों की दौड़ के आयोजक।
श्रीनिवास रामानुजन गणित को छोड़कर सभी विषयों मैं फैल हो जाते थे। यदि रामानुजन पर उनके शिक्षक और अभिभावक अन्य विषयों में भी बेहतर प्रदर्शन का दबाव डालते तो शायद हम एक महान गणितज्ञ खो देते। सचिन तेंडूलकर हाईस्कूल तक ही पड़ पाए लेकिन वे आज भारत रत्न हैं। यदि उनके माता-पिता उनपर ग्रेजूएशन करने का दबाव डालते तो क्या हम एक महान क्रिकेटर को नहीं खो देते? लता मंगेशकर के माता पिता यदि उन्हें संगीत न सिखाकर गणित में विशेषज्ञता के लिये दबाव डालते तो क्या हमें ‘स्वर कोकिला’ कभी मिल पाती? साहिर लुधयानवी की अम्मी अगर उन्हें पांचवी पास करवाने का ही दबाव डालती रहती तो शायद हम एक महान गीतकार के नगमों पर यू अपने दिल को सुकून नहीं पहुँचा रहे होते।
अनगिनत उदाहरण है जो हमें बताते है कि परीक्षाओं की असफलता किसी को महान बनने से नहीं रोक पाई, तो हमारे बच्चों को कैसे रोक सकती है।
दुनिया में सबसे उम्दा दिमाग वाले माने गए अल्बर्ट आइंस्टाइन की कहानी तो दृढ़ इच्छाशक्ति की और भी बड़ी मिसाल है। वह बचपन से डिस्लेविसया जैसी बीमारी से पीड़ित थे। स्लो लर्नर थे। उन्हें उनके टीचर मुंह पर स्ट्यूपिड कहा करते थे। उन्हें स्कूलों से निकाला गया। उनकी एक टीचर का दावा था कि अल्बर्ट को कभी सफलता नहीं मिलेगी। उनका स्कूल में मन नहीं लगता था। कॉलेज में दाखिले के एग्ज़ाम में वह फेल हो गए। दोबारा बैठे, किसी तरह पास हो पाए। गणित के प्रोफेसर ने कहा- वे सुस्त हैं। उन्हें क्लास में सबसे कम नम्बर मिले। वे अपनी क्लास में अकेल थे, जिन्हें नौकरी नहीं मिली। हालांकि प्रोफेसर बनने के लिए उन्होंने पूरे यूरोप में रिज्यूम भेजा था आखिरकार उन्हें क्लर्क की नौकरी करनी पड़ी। वह दो घंटे में अपना काम निपटा देते थे और बाकी समय में अपनी खुद की साइंस की थ्योरी पर काम करते थे। जब उन्होंने इसे समिट किया, तो यकायक लाइमलाइट में आ गए। दरअसल आइंस्टाइन हमेशा अपनी दुनिया में खोए रहते थे। उनके दिमाग में साइंस के नए सिद्धान्त घूम रहे होते थे। कोई क्या कह रहा है, इसकी उन्होंने कोई परवाह नहीं की। जब उनकी थ्योरी सामने आई, तो हर कोई उन्हें जीनियस मानने पर बाध्य हो गया। इसके बाद उन्होंने एक नहीं, ढेरों नए प्रयोग किए और विज्ञान की उन गुत्थियों को सुलझाया, जिसे समझ पाना मुश्किल था। नाभिकीय विखंडन के फलस्वरूप अपार ऊर्जा का स्त्रोत निकलने का समीकरण उन्होंन दुनिया को दिया, जिसके आधार पर परमाणु बम बनाया गया।
मैंने यह अध्याय लिखते हुए अपने स्कूल और कॉलेज के टॉपर्स को याद किया और खोज कि की वे टॉपर्स आज कहा है, तो मैने पाया कि चौथी एवं पांचवी कक्षा का टॉपर उमेश आज एक किराना दुकान चलाता है। छठी का टॉपर राकेश आज चाय बेच रहा है। सातवी एवं आठवी का टॉपर नारायण आज एक किसान है। नवीं एवं दसवी की टॉपर अंजली आज एक गृहणी है। ग्यारहवी एवं बारहवी का टॉपर ऋषभ अब भी अपने कैरिअर को लेकर संघर्षरत है।
बी.एस.सी. के टॉपर प्रवीण आज एक बैंक में क्लर्क है। (सभी मित्रों के नाम मैंने परिवर्तित कर दिए हैं)
मुझे यह स्वीकार करने दे कि मैं एक अच्छा विद्यार्थी नहीं था। मैं पढ़ने में कुछ अच्छा था, समझ जाता था, लेकिन परीक्षा के मार्क्स हमेशा कम आते थे। परीक्षा में कम अंक पाने के पीछे कई वज़हे हैं शायद उनमें से एक मेरे साथ थी-वह थी मेरी तेड़ी-मेढ़ी हैंड राइटिंग। मेरी हैंड राइटिंग कोई-कोई ही समझ सकता है और जल्दब़ाजी में कॉपी चेक करने वाले परीक्षक में वह खीज़ पैदा करती थी और उसके गुस्से से मैं कई बार फैल होते-होते भी बचा हँू। दूसरी ख़ामी मेरी है रटन शक्ति की घोर कमी। मैं रट नहीं सकता, इसी कारण में दसवी में संस्कृत में भी फैल होते-होते बचा और हो सकता था कि मेरा कैरिअर संस्कृत भाषा लील-लेती। लेकिन में बचता-बचता अपने पंसदीदा क्षेत्र में आया ‘मेडिकल’ और मैं अपनी वर्तमान छोटी-मोटी सफलताऔं से खुश हूं और स्वयं को अपनी कक्षाओं के टॉपर्स से काफी अच्छी स्थिति में महसूस करता हूं। मैंने अपनी ज़िंदगी में यह सबक सिखा है कि हमारी काबिलियत और योग्यताओं को अंकों में नहीं मापा जा सकता और ऐसे शिक्षातंत्र से तो बिल्कुल भी नहीं जो कि, स्वयं फिसड्डी हो।
बच्चों की जान कैसे बचाई जाए?
अभिभावक क्या करें:
अभिभावकों को यह समझना चाहिए कि बच्चों की अपनी नैसर्गिक प्रतिभा है। उनको सपने बुनने, अपनी दुनिया जीने और खोजने की आज़ादी है। बच्चे दुनिया की इस रेस में दौड़ने के लिय तैयार हैं, पर उन्हें सीखने और समझने का आप समय तो दें।
हर बच्चा सर्वश्रेष्ठ शिक्षण संस्थान में पहुँच जाए, अव्वल ही आए, यह मुमकिन नहीं। शिक्षा का अर्थ है ज्ञान अर्जित करना, जानना, सीखना। बच्चों को समझाएं कि परीक्षा में फेल होकर भी आपने अनुभव और ज्ञान हासिल किया। यह असफलता नहीं है, बल्कि बड़ी सफलता की तैयारी है। इसमें जिं़दगी से हताश होकर कोई भी ग़लत क़दम उठाने की ज़रूरत ही नहीं है। बच्चे के पिछले प्रदर्शन और रूचि के हिसाब से ही नए लक्ष्य बनाएं। आजकल कॅरिअर के बहुत सारे विकल्प हैं, उनके बारे में भी जानने की कोशिश करें।
आत्महत्याएँ अचानक नहीं होती हैं और इसमें पहले से कोई चेतावनी या बच्चों की मनोदशा समझे। सच्चाई यह है कि ज़्यादातर मामलों में पहले से ही संकेत मिलने शुरू हो जाते हैं। बस इन्हें समय पर पहचानना ज़रूरी है। बच्चें के असामान्य व्यवहार को भांपा जा सकता है। परीक्षा परिणाम के लिए पहले से उनका मनोबल बढ़ाना ज़रूरी है। परिणाम देखकर बच्चे कई बार ऐसा क़दम उठाने के बारे में सोचते हैं, पर उनको पहले से ही हर परिस्थिति के लिए तैयार करें।
बचपन में बच्चे माता-पिता से सारी बातें साझा करते हैं, लेकिन बड़े होते-होते वे बातें छुपाने लगते हैं। यह अंतर आता है हमारे व्यवहार में फ़र्क़ से। छोटे में उनकी बातों की हम सराहना करते हैं, उन्हें दुलारते हैं। बड़े होते बच्चे हमें कोई अवांछित सच्चाई बताते हैं, तो हम उन्हें डांट देते हैं। यदि बच्चा कोई ग़लती भी कर रहा है तो शांति से उसे सुने। बच्चे के काउंसलर बनें। बस उसकी सारी बातें शांति से सुनें, फिर उसे हौसला दें ओर आगे बढ़ने के रास्ते सुझाएँ।
शिक्षक क्या करें:
सबसे पहले शिक्षक जान ले कि उनका कार्य बच्चों की प्रतिभा को निखारना है केवल साक्षर बनाना नहीं। साक्षर के साथ-साथ उन्हें शिक्षित भी बनाना आपका कर्त्तव्य है। बच्चों को अंधी दौड़ में शामिल करना एक पाप है, इससे जो आत्महत्याएँ होगी वे असल में हत्याएँ कहलाएंगी और आप हत्यारे।
बच्चों को सिखाएँ कि जीवन कितना अमुल्य है और केवल एक बार ही मिलता है, दोबारा कोई चांस नहीं। उन्हें प्रेरक प्रसंग बताए कि कैसे दृढ इच्छाशक्ति के बल पर जिंदगियों में सफलता पाई जाती है। उन्हें मज़बूत बनने दे, आत्मविश्वास से लबरेज़ होने दे। उन्हें कुछ कर गुज़रने की लिये होसला दे। उन्हें बता दे कि वे भी दुनिया बदल सकते हैं, महान बन सकते हैं, सदियों तक याद किये जाने वाले नायक बन सकते हैं। शिक्षक यह सबक याद कर ले कि जिस बच्चे के दिल में आपने महान बनने का सपना जगा दिया वह कभी आत्महत्या नहीं करेगा।
बच्चे क्या करें:
बच्चों को यह पता होना चाहिए कि जीवन अमुल्य है, एक बार ही मिलता है और मरने के बाद आपको फिर मौका नहीं मिलता और न ही आपकी आत्मा या रूह को ये पता चलता है कि आपके जाने से आपके परिवार वाले और आपके शिक्षक कितने दुःखी हैं। अक्सर बच्चे सोचते हैं कि टी.वी या फिल्मों कि तरह जब बच्चा आत्महत्या करता है, तो माँ-बाप फूट-फूट कर रोते हैं और बच्चे की रूह यह देख रही होती है, और इसका असर बच्चों पर यह होता है कि वे भी अपने शिक्षक एवं अभिभावक को मर कर सज़ा देकर उन्हें भी उनकी याद में रोता देखना चाहते हैं। लेकिन मासूम बच्चों ये सिर्फ टी.वी. में ही होता है, असल में नहीं। आपकी जान भी चली जाएगी और आपको पता भी नहीं चलेगा कि आपके घर या संसार में आपके जाने के बाद क्या हो रहा है।
और प्यारे बच्चों याद रखों आप महान हो, अद्भुत हो, विरले हो, निराले हो ये बातें आपको ही सिद्ध करना पड़ेगी और आत्महत्या तो आपको सिर्फ बुज़दिल सिद्ध करेंगी।
पुनश्चः
आप भी जब भविष्य में बड़े व्यक्ति बनेंगे तो पाएंगे की आपसे अव्वल आने वाला आपका साथी ज़िंदगी की दौड़ में आप से बहुत पीछे रह गया है या हो सकता है आपके ऑफिस में वह आपका इम्प्लाई हो जैसे कि बिल गेट्स के टॉपर साथी उन्हीं की कम्पनी (माइक्रोसॉफ्ट) में कर्मचारी है जबकि बिल स्वयं अपनी कक्षा में फैल हो गए थे। क्या आप भी बिल गेट्स नहीं बन सकते, ज़रूर बन सकते हैं। यदि आप अपनी ज़िंदगी को आनंद के साथ जीएँगे तो। और ज़िंदगी को जीना आपका कर्तव्य है, आपका धर्म है।
(डॉ अबरार मुल्तानी भोपाल के हैं और लेखक एवं चिकित्सक हैं)
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