पिछले कुछ दशक में किसानों की आत्महत्याओं पर 53 विशेषज्ञ समितियों ने रिपोर्टें सौंपी हैं, लेकिन मौतों का सिलसिला बिना रुके जारी है। इतने विशेषज्ञों की सलाह के बावजूद पिछले बीस साल में करीब तीन लाख किसानों ने आत्महत्या की है। इस हिसाब से देश के किसी न किसी हिस्से में हर घंटे दो किसान खुदकुशी कर लेते हैं। मैं नहीं जानता, किसान अपनी जान क्यों दे रहे हैं। इस मुद्दे पर और न जाने कितनी समितियां गठित की जाएंगी, लेकिन इस बीच यह तो साफ होता जा रहा है कि इन विशेषज्ञों ने भी अपने हाथ खड़े करने शुरू कर दिए हैं। लगातार जारी और गहराते जा रहे कृषि संकट को दूर करने के लिए कुछ नए तरीके खोजने के लिए पंजाब किसान आयोग द्वारा आयोजित विचार-विमर्श भी किसी 'अलग तरीके का" समाधान निकालने में विफल रहा। कुछ रूटीन सलाहों के अलावा उनके पास देने को कुछ नहीं था।
इससे मुझे कुछ हफ्ते पहले की एक खबर का ध्यान आता है जिसमें कहा गया था कि महाराष्ट्र के कृषि मंत्री एकनाथ खडसे ने ईमानदारी से स्वीकार किया है कि राज्य सरकार को इस बारे में रास्ता नहीं सूझ रहा कि वह विदर्भ और मराठवाड़ा क्षेत्रों में किसानों की आत्महत्या किस तरह रोके। इस तरह की मायूसी का भाव ऐसे वक्त में है जब नीति आयोग ने कृषि पर एक टास्क फोर्स का गठन किया है और राज्य सरकारों को भी इसी तरह के टास्क फोर्स बनाने के निर्देश दिए हैं।
मैं नहीं जानता कि कृषि पर टास्क फोर्स की क्या जरूरत है जब नीति आयोग के उपाध्यक्ष डॉ. अरविंद पनगढ़िया ने आयोग की वेबसाइट पर अपने शुरुआती उद्बोधन में कृषि संकट के समाधान को लेकर अपने विचार पहले ही व्यक्त कर दिए हैं। वह चाहते हैं कि किसानी करने वाली आबादी के बड़े हिस्से को कृषि कार्य से बाहर कर दिया जाना चाहिए। चाहे वह कितना भी गलत हो, लेकिन रोडमैप बना लिया गया है और ऐसे में मुझे ताज्जुब है कि केंद्रीय और राज्य स्तरों पर बनाए जाने वाले अनगिनत टास्क फोर्स से क्या हासिल करने की अपेक्षा की जा रही है।
यह पहला मौका नहीं है जब कृषि संकट का समाधान ढूंढ़ने के प्रयास किए जा रहे हैं। पहले भी और पूर्ववर्ती योजना आयोग ने कई साल अनगिनत विशेषज्ञ समितियों का गठन किया। इसी तरह पंजाब समेत कई राज्य सरकारों ने विशेषज्ञों से विचार-विमर्श की श्रंखला के बाद कृषि नीति दस्तावेज तैयार किए।
मैंने कई दफा कहा है कि संकट के लिए जिम्मेदार लोगों से ही किसी विश्वसनीय समाधान की अपेक्षा नहीं की जा सकती। ज्यादातर विश्वसनीय समितियों और पैनलों में वरिष्ठ नौकरशाह, कृषि वैज्ञानिक, अर्थशास्त्री और वरिष्ठ कृषि अधिकारी होते हैं जो किसी न किसी तरह उस व्यवस्था के हिस्से होते हैं जिसने संकट इस हद तक उत्पन्न् किया है। इसलिए उनसे 'अलग हटकर" समाधान देने की अपेक्षा व्यर्थ की आशा करना है। अगर 53 विशेषज्ञ समितियां विफल हो चुकी हैं, तो यह सोचना बेकार है कि केंद्रीय और राज्यों के स्तर पर देश भर में गठित 30 और टास्क फोर्स किसी उद्देश्य को पूरा करेंगे। जो बात नहीं स्वीकार की जा रही है, वह यह है कि वर्तमान कृषि संकट उसी तरह की नीतियों और दृष्टिकोणों का परिणाम है जिनके जरिए दुर्भाग्यवश हम उत्तर ढूंढ़ने की अब कोशिश कर रहे हैं। भारत में ज्यादा परिष्कृत और महंगी मशीनरी को लागू करना सीधे-सीधे किसानों के कर्ज जाल को और बढ़ाना है। पंजाब में जिस तरह टेक्नोलॉजी आधारित समाधान पर जोर दिया गया, उस तरह के समाधान से कृषि संकट और गंभीर ही हो गया। पंजाब जो प्रमुख कृषि राज्य है, वहां किसी न किसी इलाके में रोजाना दो किसान आत्महत्या कर रहे हैं।
करीब तीन दशकों से भारत का ग्रामीण समाज ढह रहा है। रासायनिक उर्वरकों के बहुत ज्यादा उपयोग ने हरी-भरी जमीन को विषैला बना दिया है, जल दोहन ने भूगर्भ जल को इस हद तक सुखा दिया है कि बंजर का विस्तार हो रहा है और रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों ने पर्यावरण और मानव स्वास्थ्य के लिए गंभीर संकट खड़ा कर दिया है। साल-दर-साल लागत मूल्य बढ़ते जाने और उत्पादन मूल्य स्थिर रहने से किसान उन्हीं आर्थिक नीतियों के शिकार बन गए हैं, जिसने उन्हें देश के नायक के तौर पर बताया था। कृषि न सिर्फ न किए जाने लायक, बल्कि आर्थिक रूप से अलाभकारी हो गई है।
क्या इस तरह की टेक्नोलॉजी के उपयोग से किसानों की आय बढ़ी है? मैंने पंजाब के उन किसानों की लागत और मूल्य का आकलन किया है जो नवीनतम प्रौद्योगिकी का उपयोग करते हैं और जिन्हें 99 प्रतिशत सुनिश्चित सिंचाई प्राप्त है। कृषि लागत और मूल्य आयोग की नवीनतम रिपोर्ट प्रति हेक्टेयर गेहूं और चावल का औसत शुद्ध प्रतिफल 36,052 रुपए और 3029 रुपए मासिक बताती है।
नई टेक्नोलॉजी या मशीनी उपकरण बेचे बिना उनकी कृषि आय को बढ़ाने के लिए नीति की योजना में भिन्न प्रकार के दृष्टिकोण की जरूरत है। इसके लिए दो तात्कालिक कदमों की अपेक्षा है। पहला, कृषि पर आम तौर पर निगाह रखने वाले विशेषज्ञों को अलग करना। हमें विभिन्न क्षेत्रों के लोगों की जरूरत है जो इस पर सोचें और भिन्न् तरीके से योजना बनाएं। संकट के नियंत्रण में लगे लोगों का समान समूह कोई अर्थकारी सुझाव देगा, ऐसी अपेक्षा नहीं की जा सकती। यह नीति आयोग टास्क फोर्स के लिए भी सच है। टास्क फोर्स की संरचना देखने पर मेरी चिंता यह है कि नीति आयोग के सुझाव वर्तमान संकट को और गहरा ही करेंगे।
दूसरे, जटिल और परेशान करने वाले भारतीय कृषि संकट का समाधान अमेरिका या चीन में नहीं है। यह सही समय है, जब हम विकसित देशों के उदाहरण देना बंद कर दें जिनकी बात सिर्फ नई और महंगी कृषि मशीनरी और औजार के आयात पर आकर समाप्त हो जाती है। समाधान हमें अपनी जमीन पर खोजने होंगे। टेक्नोलॉजी वाला समाधान महत्वपूर्ण हिस्सा अदा करता है, लेकिन असली बात यह होनी चाहिए कि किसानों को किस तरह निश्चित मासिक आय उपलब्ध हो।
-लेखक कृषि मामलों के विशेषज्ञ हैं।
साभार- http://naidunia.jagran.com/ से