मैने गोपाळरावजी को पहली बार कब देखा, मुझे स्मरण नही. बचपन से देख रहा हूं. आज प्रातः उनकी अंतिम सांसो तक वही आत्मीयता, वही कार्य की लगन, वहीं हसमुख चेहरा और वही नई – नई बातों और परियोजनाओं की चर्चा..!
मैं जब छोटा था तब, और फिर मेरे बच्चे छोटे थे तब, गोपाळराव जी घर मे आते – आते जोर से आवाज देते थे, “अरे, आईला सांग, भोपाळ चा गोपाळ जेवायला आलाय..” पूरे मध्यप्रदेश मे, घर – घर मे, चुल्हे तक पहुंच रखने वाले प्रचारक थे. उनका घर मे आना एक चैतन्य का आगमन रहता था. घर के बच्चों से लेकर तो बुजुर्ग तक, उनके आगमन की प्रतिक्षा करते थे. गोपाळराव जी ने मध्यप्रदेश मे संघ के घरों को एक पूरा परिवार बना दिया था.
गोपाळराव जी निडर थे, निर्भीक थे, असामाजिक प्रवृत्तीयों के विरोध मे डटकर खडे रहनेवालों मे से थे.* वर्ष १९७८ की घटना. गोपाळराव जी भोपाल से जबलपुर ट्रेन से आ रहे थे. साथ मे एक और प्रचारक थे. ट्रेन मे कुछ गुंडे अन्य सहयात्रीयोंको तकलीफ दे रहे थे. महिलाओं को छेड रहे थे. बाकी यात्री चुपचाप देख रहे थे. गोपाळराव जी ने यह देखा, तो स्वाभाविकतः उन गुंडों का विरोध किया. किंतू गुंडे कहां मानने वाले! वे संख्या मे भी ज्यादा थे. उन्होने गोपाळराव जी की खिल्ली उडाना चालू किया. वे नही जानते थे कि उनका मुकाबला किससे हैं..! गोपाळराव जी ने, महिलाओं को छेडने वाले उनके मुखिया के गाल पर एक सन्नाटेदार थप्पड जड दी. बस्, फिर क्या, गुंडे तैश मे आ गए. उन्होने चाकू निकाले. किंतू गोपाळरावजी अडीग थे. उन हथियारों से लैस गुंडों के सामने निर्भयता के साथ खडे थे. उनका यह आत्मविश्वास देख कर अन्य सह-यात्री भी उनके साथ हो लिये. इस बदलते वातावरण को देखते हुए गुंडों ने एक कदम पीछे लेना ठीक समझा. गुंडों ने कहा, ‘ठीक हैं. जबलपुर स्टेशन पर उतरिये. फिर देखते हैं आप क्या करते हैं.’
गोपाळराव जी को मदन महल स्टेशन पर उतरना था. किंतू वह जबलपुर स्टेशन तक आएं. निर्भीकता के साथ स्टेशन पर खडे रहे. परंतू उनकी यह हिंमत देख कर वो गुंडे भाग गए. किसी ने भी सामने आने की हिंमत नही की!
ये थे गोपाळराव..! इसलिये अस्सी के दशक मे जब पंजाब अशांत था, तब योजना के तहत गोपाळराव जी को पंजाब भेजा गया. वहां भी उन्होने हिंमत से काम किया. गुरु ग्रंथसाहब को पूरा पढा. गुरुवाणी की अनेक चौपाइयां कंठस्थ की. पंजाब से आने के बाद सिख संगत का जबरदस्त काम किया..
इन सब से उपर, गोपाळराव जी याने ‘संस्कार’ थे. घर मे पवित्रता लाने वाले संवाहक थे. उनसे किसी भी विषय मे राय ली जाएं, ऐसे मित्र भी थे और बुजुर्ग भी. वे ‘ममत्व’ की प्रतीमूर्ति थे. अनेकों के लिये वे प्रेरक शक्ति थे. उनकी प्रेरणा से ही अनेक पुस्तकोंका अनुवाद हुआ. अनेक पुस्तकों का लेखन हुआ. अनेक परियोजनाएं प्रारंभ हुई.*
उनकी बिगड़ी हुई तबियत, उनको हुआ कैंसर यह सब देखते हुए उनका जाना अनपेक्षित तो नही था, किंतु अतीव कष्टदायक था. आज मध्यप्रदेश के अनेकों घरों मे उनके अपने दादाजी / नानाजी जाने का शोक हो रहा होगा. एक संवेदनशील पुण्य पुरुष, जो हजारों परिवारों का आधारस्तंभ था, आज हमें छोडकर चला गया..!
मेरी अश्रुपुरित, विनम्र श्रध्दांजलि…
ॐ शांति !
(लेखक राष्ट्रवादी व ऐतिहासिक विषयों पर लिखते हैं व इनकी कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुती है)