वह मीठे पानी की नदी थी। अपने रास्ते पर प्रवाहित होकर दूसरी नदियों की तरह ही वह भी समुद्र से जा मिलती थी। एक बार उस नदी की एक मछली भी पानी के साथ-साथ बहते हुए समुद्र में पहुँच गई। वहां जाकर वह परेशान हो गई, समुद्र की एक दूसरी मछली ने उसे देखा तो वह उसके पास गई और पूछा, “क्या बात है, परेशान सी क्यों लग रही हो?”
नदी की मछली ने उत्तर दिया, “हाँ! मैं परेशान हूँ क्योंकि यह पानी कितना खारा है, मैं इसमें कैसे जियूंगी?”
समुद्र की मछली ने हँसते हुए कहा, “पानी का स्वाद तो ऐसा ही होता है।”
“नहीं-नहीं!” नदी की मछली ने बात काटते हुए उत्तर दिया, “पानी तो मीठा भी होता है।“
“पानी और मीठा! कहाँ पर?” समुद्र की मछली आश्चर्यचकित थी।
“वहाँ, उस तरफ। वहीं से मैं आई हूँ।“ कहते हुए नदी की मछली ने नदी की दिशा की ओर इशारा किया।
“अच्छा! चलो चल कर देखते हैं।“ समुद्र की मछली ने उत्सुकता से कहा।
“हाँ-हाँ चलो, मैं वहीं ज़िंदा रह पाऊंगी, लेकिन क्या तुम मुझे वहां तक ले चलोगी?“
“हाँ ज़रूर, लेकिन तुम क्यों नहीं तैर पा रही?”
नदी की मछली ने समुद्र की मछली को थामते हुए उत्तर दिया,
“क्योंकि नदी की धारा के साथ बहते-बहते मुझमें अब विपरीत धारा में तैरने की शक्ति नहीं बची।“
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दूसरी कहानी -देवी माँ
मुझे उस औरत से सख्त नफरत थी।
और आज नवरात्रि के आखिरी दिन तो उसने हद ही कर दी। स्त्री अंग पर प्राइस टैग लगा उसे बेचने वाली होकर एक तो उसने नौ दिन देवी माँ की पवित्र मूर्ति को स्थापित कर अपने अपवित्र मकान में रखा और दूसरे, आज विसर्जन के लिए मूर्ति भेजते समय लाल साड़ी पहन, सिंदूर से मुंह पोत, सिर घुमा-घुमा कर वह ऐसे नाच रही थी जैसे उसमें देवी माँ खुद प्रवेश कर गईं हों। मेरा घर उसकी गली के ठीक सामने ही था सो सब देख पा रहा था।
‘देवी माँ और एक वैश्या के शरीर में… माँ का ऐसा अपमान!’ ऐसे विचार आने पर भी मैं कैसे अपने आप को संयत कर खडा था, यह मैं ही जानता था। उस औरत के मकान में रहने वाली और दूसरी अन्य भी जाने कहाँ-कहाँ से लड़कियां आ-आकर उसके पैर छू रहीं थी। यह दृश्य मुझे आपे से बाहर करने के लिए काफी था।
उस वक्त मेरा एक पड़ौसी भी अपने घर से बाहर निकला। मैं मुंह बनाता हुआ उसके पास गया और क्रोध भरे स्वर में बोला, “ये सामने क्या नाटक हो रहा है!”
उसने भी गुस्से में ही उत्तर दिया, “शायद मोहल्ले में अपनी छवि अच्छी करने के लिए यह ड्रामा कर रही है। इसे पता नहीं वैश्याएं आशीर्वाद नहीं देतीं, शरीर देती हैं।”
“चलो इस नाटक को खत्म कर आते हैं।” अब तक मेरी सहनशक्ति मेरी ही निर्णय लेने की शक्ति से हार चुकी थी।
वह पड़ौसी भी भरा हुआ था, हम दोनों उस औरत के पास गए और मैंने उससे गुस्से में पूछा, “हमें लग रहा है कि तुझे देवी नहीं आई है, तू ऐसे ही कर रही है।”
वह वैश्या चौंक गई, उसने एक झटके से मेरी तरफ मुंह घुमाया। मैंने जीवन में पहली बार उसका चेहरा गौर से देखा। धब्बेदार चेहरे में उसकी आंखों के नीचे के काले घेरे आंसुओं से तर थे। वह मुझे घूर कर देखती हुई लेकिन डरे हुए शब्दों में बोली, “हां… आपको… ठीक लग रहा है।”
उसके डर को समझते वक्त यह भी समझ में आया कि पहले कदम की जीत क्रोध को गर्व में बदल सकती है। उसी गर्व से भर कर मैं अब आदेशात्मक स्वर में उससे बोला, “आगे से ऐसा नहीं होना चाहिए। लेकिन तुमने ऐसा किया ही क्यों?”
उस वैश्या ने आंखों के काले घेरों के आंसू पोंछते हुए उत्तर दिया,
“क्योंकि… मैं भी माँ बनना चाहती हूँ।”
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सादर,
डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी
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