नई उमंग,उल्लास,
प्रेम,सौहार्द की कविता रचता,
दूरियों का दर्द मिटाता,
अपनत्व का संगीत छेड़ता
रंगों में जीवन की कला के चित्र उकेरता
पर्वों का पर्व है होली।
क्यों न हम होली पर पहले बिहारी के कुछ दोहों के रंग में डूब लें, फिर रच लेंगे होली पर कुछ और शब्द-रास ! तैयार हैं न आप ? अगर हाँ तो पहले गुनगुना लें कि सतसैया के नाविक के तीर वाले कविवर बिहारी फरमाते हैं –
उड़ि गुलाल घूँघर भई तनि रह्यो लाल बितान।
चौरी चारु निकुंजनमें ब्याह फाग सुखदान॥
फूलनके सिर सेहरा, फाग रंग रँगे बेस।
भाँवरही में दौड़ते, लै गति सुलभ सुदेस॥
भीण्यो केसर रंगसूँ लगे अरुन पट पीत।
डालै चाँचा चौकमें गहि बहियाँ दोउ मीत॥
रच्यौ रँगीली रैन में, होरी के बिच ब्याह।
बनी बिहारन रसमयी रसिक बिहारी नाह॥
होली शब्द होला शब्द से उत्पन्न हुआ है जिसका अर्थ है नई और अच्छी फसल प्राप्त करने के लिए भगवान की पूजा। होली के त्योहार पर होलिका दहन इंगित करता है कि, जो भगवान के प्रिय लोग है उन्हे पौराणिक चरित्र प्रहलाद की तरह बचा लिया जाएगा, जबकि जो भगवान के लोगों से तंग आ चुके है उन्हे एक दिन पौराणिक चरित्र होलिका की तरह दंडित किया जाएगा ।
होली के त्यौहार को मनाने के कई कारण हैं। यह रंग, स्वादिष्ट खाद्य पदार्थ, एकता और प्रेम का भव्य उत्सव है। परंपरागत रूप से, यह बुराई की सत्ता पर या बुराई पर अच्छाई की सफलता के रुप मे मनाया जाता है। यह फगवाह के रूप में नामित किया गया है, क्योंकि यह हिन्दी महीने, फाल्गुन में मनाया जाता है।
होली का त्यौहार मनाने के पीछे (भारत में पौराणिक कहानी के) कई ऐतिहासिक महत्व और किंवदंतियों रही हैं। यह कई सालों से मनाया जाने वाला, सबसे पुराने हिंदू त्यौहारों में से एक है। प्राचीन भारतीय मंदिरों की दीवारों पर होली उत्सव से संबंधित विभिन्न अवशेष पाये गये हैं। अहमदनगर चित्रों और मेवाड़ चित्रों में 16 वीं सदी के मध्यकालीन चित्रों की मौजूदा किस्में हैं जो प्राचीन समय के दौरान होली समारोह का प्रतिनिधित्व करती है।
होली का त्योहार प्रत्येक राज्य में अलग-अलग है जैसे देश के कई राज्यों में, होली महोत्सव लगातार तीन दिन के लिए मनाया जाता है जबकि,अन्य विभिन्न राज्यों में यह एक दिन का त्यौहार है।
लोग पहला दिन होली, घर के अन्य सदस्यों पर रंग का पाउडर बरसाकर मनाते हैं। वे एक थाली में कुछ रंग का पाउडर और पानी से भरे पीतल के बर्तन डालने से समारोह शुरू करते हैं। त्यौहार का दूसरा दिन पुनो कहा गया इसका अर्थ है कि त्यौहार का मुख्य दिन, जब लोग मुहूर्त के अनुसार होलिका का अलाव जलाते है। यह प्रक्रिया बुराई के ऊपर अच्छाई की विजय के उपलक्ष्य में होलिका और प्रहलाद के प्राचीन इतिहास के मिथक के रुप मनाया जाता है। तीसरे दिन का त्योहार पर्व कहलाता है अर्थात् त्योहार का अंतिम दिन, जब लोग अपने घरों से बाहर आते है, एक दूसरे को गले लगाते है, माथे पर गुलाल लगाते है, रंगों से खेलते है, नाचते है, गाते है, एक दूसरे से मिलते है, स्वादिष्ट व्यंजन खाते हैं और बहुत सारी गतिविधियॉ करते है।
मनुष्य समाज में सामाजिक रूप से प्रचलित प्रत्येक पर्व की एक लम्बी ऐतिहासिक परम्परा विद्यमान है। प्राचीन भारतवर्ष ऋतु-सम्बन्धी उत्सवों को भलीभाँति मनाया करता था। ये उत्सव आज भी यथावत् या स्वरूप में हुए परिवर्तन के साथ मनाए जाते हैं। ऐसा ही एक पर्व, त्यौहार, उत्सव है- होली। होली अपने में मानव सभ्यता की कहानी के सभी रंगों को संजोए हुए है। वास्तव में होली एक अकेला पर्व न होकर एक लम्बे उत्सव के अन्तर्गत होने वाला विनोद था। कौन नहीं जनता कि ’वसन्तोत्सव’ भारत में मनाया जाने वाला बहुत प्रसिद्ध उत्सव था। इस का प्रारम्भ ‘सुवसन्तक’ पर्व से होता था, प्राचीन ग्रन्थ ‘सरस्वतीकण्ठाभरण’ के अनुसार इस दिन पहली बार वसन्त का पृथ्वी पर आगमन होता है।
तो आइये होली पर कुछ लाज़वाब अंदाज़ वाले दोहों से क्यों न ‘होलिया’ जाएँ । पेश हैं मेरी पसंद के चुनिंदा दोहे के शब्द रंगकारों की लेखनी पर होली का गुलाल मलते हुए। ये रहे दोहे की दुनिया में होली के रंग –
कुमार रवीन्द्र क्या खूब लिखते हैं –
बदल गई घर-घाट की, देखो तो बू-बास।
बाँच रही हैं डालियाँ, रंगों का इतिहास॥
उमगे रँग आकाश में, धरती हुई गुलाल।
उषा सुन्दरी घाट पर, बैठी खोले बाल ॥
हुआ बावरा वक्त यह, सुन चैती के बोल।
पहली-पहली छुवन के, भेद रही रितु खोल ॥
बीते बर्फीले समय, हवा गा रही फाग।
देवा एक अनंग है- रहा देह में जाग॥
फिर भी रवीन्द्र एक सवाल भी कर रहे हैं
पर्व हुआ दिन, किन्तु, है, फिर भी वही सवाल।
‘होरी के घर’ क्यों भला, अब भी वही अकाल॥
लोकेश ‘साहिल’ कुछ इस तरह निराले अंदाज़ में आपको होली की लहरों से खेलने आमंत्रित कर रहे हैं –
होली पर साजन दिखे, छूटा मन का धीर।
गोरी के मन-आँगने, उड़ने लगा अबीर॥
होली अब के बार की, ऐसी कर दे राम।
गलबहिंया डाले मिलें, ग़ालिब अरु घनश्याम ॥
मनसा-वाचा-कर्मणा, भूल गए सब रीत।
होली के संतूर से, गूँजे ऐसे गीत॥
इक तो वो मादक बदन, दूजे ये बौछार।
क्यों ना चलता साल भर, होली का त्यौहार॥
थोड़ी-थोड़ी मस्तियाँ, थोड़ा मान-गुमान।
होली पर ‘साहिल’ मियाँ, रखना मन का ध्यान ॥
योगराज प्रभाकर कहना चाहते हैं –
नाच उठा आकाश भी, ऐसा उड़ा अबीर।
ताज नशे में झूमता,यमुना जी के तीर ॥
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बरसाने की लाठियाँ, खाते हैं बड़भाग।
जो पावै सौगात ये, तन मन बागो बाग़ ॥
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तन मन पे यूँ छा गई, होली की तासीर।
राँझे को रँगने चली, ले पिचकारी हीर॥
और ये दबंगाई तो देखिये ज़नाब –
रंग लगावें सालियाँ, बापू भयो जवान।
हुड़ हुड़ हुड़ करता फिरे, बन दबंग सलमान ॥
समीर लाल ‘समीर’ की यादें के रंग देखिये –
होली के हुड़दंग में, नाचे पी कर भाँग।
दिन भर फिर सोते रहे, सब खूँटे पर टाँग ॥
नयन हमारे नम हुए, गाँव आ गया याद।
वो होली की मस्तियाँ, कीचड़ वाला नाद ॥
महेन्द्र वर्मा को तो होली की मस्ती में पतझड़ की उदासी कुछ इस तरह दिखती है –
निरखत बासंती छटा, फागुन हुआ निहाल।
इतराता सा वह चला, लेकर रंग गुलाल ॥
कलियों के संकोच से, फागुन हुआ अधीर।
वन-उपवन के भाल पर, मलता गया अबीर॥
अमराई की छाँव में, फागुन छेड़े गीत।
बेचारे बौरा गए, गात हो गए पीत ॥
फागुन और बसंत मिल, करें हास-परिहास।
उनको हंसता देखकर, पतझर हुआ उदास ॥
और लीजिये, मयंक अवस्थी का होलियाना ऐलान है कि –
आज अबीर-गुलाल में, हुई मनोरम जंग।
इन्द्रधनुष सा हो गया, युद्धक्षेत्र का रंग ॥
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