देश के इतिहास में सन् 1921 में केरल के मालाबार में एक गांव में मोपलाओं ने हिन्दू जनता पर अमानवीय क्रूर हिंसा की थी। इस घटना पर देशभक्त जीवित शहीद वीर सावरकर जी ने ‘मोपला’ नाम का प्रसिद्ध उपन्यास लिखा था। हिन्दू विरोधी इस कुकृत्य को जानने के लिए हिन्दू जनता द्वारा इस उपन्यास को अवश्य पढ़ा जाना चाहिए।
अंग्रेजो को लगा कि यदि भारतीयों में यह एकता इसी प्रकार मजबूत होती गई तो उनकी जड़े उखड़ते देर नहीं लगेगी। उन्होंने ‘फूट डालो और राज करो’ का हथकण्डा अपनाया। मालाबार के मोपला मुसलमानों की पीठ थपथपाकर उसने ऐसा नर-संहार कराया कि वहां हिन्दुओं का अस्तित्व ही उखड़ने लगा। पुरुषों को जान से मार डाला गया, स्त्रियों का सतीत्व लूट लिया गया, तीर्थ-स्थलों और पूजा-गृहों को मटियामेट कर दिया गया, दुकानें लूट ली गईं, मकान जला दिये गए, निरीह बच्चों और बूढ़ों तक को न छोड़ा गया। कटे हुए मुण्डों के ढेर लग गए। लावारिस पड़ी लाशों को कुत्ते नोचने लगे। पूरे काण्ड को ‘मोपला-विद्रोह’ का नाम देकर यह प्रमाणित करने का यत्न किया गया कि हिन्दुओं के संत्रास से तंग आकर ही मोपलाओं ने अपने दिल की भड़ास निकाली। अंग्रेज सरकार ने प्रेस की स्वतन्त्रता का भी गला घोंट दिया, ताकि मालाबार में हिन्दुओं के सफाये का समाचार तक न छप सकें।
किन्तु, जिनका सब-कुछ लुट-पिट गया हो, उनकी चीखों को कौन रोकता? जिन्होंने यह विनाश-लीला स्वयं अपनी आंखों से देखी थी अथवा जिन लोगों ने वहां से भागकर अपनी जान बचाई थी, वे तो फूट-फूटकर धाड़ें मार रहे थे। देर से ही सही, समाचार को पंख लग गए। जिसने भी सुना, कलेजा थाम के रह गया। महात्मा हंसराज जी ने खुशहालचन्द जी को बुलाकर कहा–‘‘दूसरे लोग भले ही इस नर-मेध से आंखें मूंद लें, परन्तु आर्य होने के नाते हमें अपने कर्तव्य से विमुख नहीं होना है। आप कुछ लोगों को अपने साथ लेकर मालाबार जाइए और उन लोगों के लिए राहत-शिविर लगाइए जिनका कुछ नहीं बचा और कोई नहीं रहा। जिन्हें जबर्दस्ती इस्लाम ग्रहण कराया गया है, उनके दोबारा अपने धर्म में लौटने की व्यवस्था कीजिए। आप स्थिति का जायजा लेकर लिखते रहें कि कितने अन्न और धन की आवश्यकता पड़ेगी। इसका जुगाड़ मैं यहां से करके भेजता रहूंगा।”
‘‘मैं तो कब का वहां पहुंच चुका होता, बस आपके ही इस आदेश का इन्तजार था।” खुशहालचन्द जी (महात्मा आनन्द स्वामी, लाहौर) ने कहा–‘‘आप कहें तो मैं आज ही चल पडूं।” ‘‘थोड़ा रुकिए। पहले समाचार-पत्रों में इस नर-संहार को छपवाना होगा, ताकि देशवासियों को पीड़ितों की सहायता के लिए तत्पर किया जाय। ‘आर्य गजट’ में आप कितना ही प्रचारित कर दें, उसका प्रभाव एक सप्ताह बाद ही होगा, क्योंकि साप्ताहिक पत्र रोज-रोज नहीं छप सकता। पंडित ऋषिराम जी बी0ए0 और पंडित मस्तानचन्द जी आपके साथ जाएंगे। आप तीनों तैयार रहें, किसी भी क्षण आपको यहां से चल देना होगा।”
‘‘जी अच्छा।” कहकर खुशहालचन्द जी मुस्करा दिए। मुस्कराने का कारण यह था कि उनका नन्हा-सा बिस्तर तो हमेशा ही बंधा रहता था। दफ्तर में यह सन्देश पाते ही कि अमुक आर्य-सत्संग या सभा अथवा जलसे-जुलूस में उन्हें पहुंचना है, वह बंधा-बंधाया बिस्तर बगल में दबाकर चल देते थे। घर में कौन बीमार है और उसे किस तरह की सेवा-टहल दरकार है, यह सब पत्नी को समझाकर वह पलक झपकते चल पड़ते थे।
मालाबार के पीड़ितों की व्यथा-कथा सुनकर हर कोई आठ-आठ आंसू बहाने लगता था, किन्तु आंसू बहाने या हाथ मलकर अफसोस कर देने से समस्या का समाधान नहीं हो सकता था। दुःखियों को दिलासा तभी मिलता है जब भूखे को रोटी, नंगे को कपड़ा, रात बिताने को आसरा और पीठ थपथपाने को कोई स्नेह भरा हाथ मिले। खुशहालचन्द और उसके साथियों ने अपने घर-बार की सुध भुलाकर बेसहारों को ऐसा सहारा दिया कि इतिहास में चाहे उनका नाम आए या न आए, प्रभु के दरबार में उनके नाम स्वर्ण-अक्षरों में अंकित हो गए। सैकड़ों हिन्दू, जो प्राण बचाने को पूरे परिवार के साथ इस्लाम में दीक्षित हो गए थे, पुनः निज-धर्म में लौट आए। एक-एक के दिल पर बीसियों घाव थे, जिन्हें अपनेपन की दिव्य मरहम से भर दिया गया। खोया हुआ विश्वास लौटाना कोई सरल काम नहीं था, किन्तु लगन और तन्मयता से त्रस्त हिन्दुओं को पहली बार ज्ञात हुआ कि आर्यसमाज का प्रत्येक सदस्य उसकी पीठ पर था और मालाबार के हिन्दू अकेले नहीं थे।
यहां इस बात की चर्चा आवश्यक जान पड़ती है कि मालाबार को जाते समय खुशहालचन्द जी की पारिवारिक स्थिति क्या थी। सबसे पहली बात तो यह कि निरन्तर दौड़-धूप के कारण स्वयं खुशहालचन्द जी भी स्वस्थ नहीं थे, दूसरी बात यह थी कि हाल ही में उनके यहां पांचवें पुत्र युद्धवीर ने जन्म लिया था, तीसरी बात यह थी कि यश बेटा उन दिनों निमोनिया की लपेट में था। पत्नी ने बहुतेरे आंसू बहाए, बार-बार हाथ-पैर पकड़े, मगर जो मनुष्यता की भलाई के लिए समर्पित हो चुका हो उसे कौन रोक पाता?
मालाबार वह पहली बार जा रहे थे। वहां की बोली उनके लिए अजनबी थी, वहां हिन्दू होना ही जान से हाथ धोने के समान था, फिर भी खुशहालचन्द जी वहां गए और ऐसा पुण्य कमाया कि अंग्रेज सरकार भी अचम्भे में पड़ गई। अंग्रेजों को पहली बार आभास हुआ कि उनका तो एक ही ईसा था, मगर भारत में खुशहालचन्द (तथा महात्मा हंसराज जी) जैसे सैकड़ों ईसा जान हथेली पर लिये मनुष्यता की सेवा में जी-जीन से तत्पर थे। मोपला मुसलमानों ने खुशहालचन्द और उनके साथियों को सूली पर नहीं चढ़ाया तो इसका एक-मात्र कारण उनका आर्य होना था, क्योंकि आर्यजन के लिए सारा संसार अपना परिवार है। खुशहालचन्द जी पीड़ितों को राहत पहुंचाने और उनके पुनर्वास के लिए मालाबार गए थे। उनके लिए ‘न कोई वैरी था, न बेगाना’, सभी धर्मों के लोग उनके लिए आदरणीय थ। उन्हें तो एकमात्र यह सन्देश देना था कि मिल-जुलकर रहो। उन्हें उस विचारधारा को तोड़ना था जो मनुष्य को मजहब के नाम पर पशु बना देती है। वह हिन्दू ही क्या जो मनुष्य नहीं और वह मुसलमान ही क्या जो इन्सान नहीं? मजहब नहीं सिखाता आपस में वैर रखना। यह सन्देश भूले-भटके लोगों को भी सही राह पर ले आता है। प्रभु के प्यारों के आगे हिंसा, मजहबी पागलपन या भाषा और प्रदेश की दीवारें अपने-आप ढहने लगती हैं।
खुशहालचन्द और उनके साथी मालाबार में लगभग छह महीने रहे । डरे-सहमें लोगों में ऐसा आत्म-विश्वास जाग उठा कि जो घरों में दुबके बैठे थे, वही सीना ताने गली-बाजारों में दनदनाने लगे। दक्षिण भारत के लोगों को पहली बार पता चला कि ‘आर्यसमाज’ भी एक संस्था है जो निस्स्वार्थ और निर्लिप्त भाव से दूसरों की सेवा करना ही अपना परम धर्म समझती है। मालाबार के हिन्दुओं के लिए तो आर्यसमाज के कर्मचारी देवदूतों के समान थे–न कोई जान न पहचान, मगर सैकड़ों मील दूर से जो बाहें पसारे चले आए थे और एक-एक को गले लगाकर जिन्होंने महीनों तक अन्न भी दिया, धन भी दिया, वस्त्र भी दिये, जीने के सभी सहारे जुटाए और मुस्कराते हुए अपने प्रदेश को लौट गए। ऐसे आर्यसमाज पर वे कैसे बलिहारी न जाते। दक्षिण भारत में जगह-जगह आर्यसमाज स्थापित हो गए और दलित वर्ग को तो जैसे नया जीवन मिल गया। जिन हिन्दुओं से सवर्ण हिन्दू घृणा से नाक-भौंह सिकोड़ लेते थे, आर्यसमाज ने उन सबको यह सन्देश दिया कि सभी मनुष्य उसी परम पिता की सन्तान हैं और पिता की दृष्टि में सभी पुत्र लाडले और प्यार-सम्मान के अधिकारी हैं। यह एक क्रान्तिकारी परिवर्तन था, जिसने निम्न कही जानेवाली जातियों को एक ही झटके में उठाकर सबके बराबर बिठा दिया। दक्षिण भारत में आर्यसमाजों की स्थापना एक महान् उपलब्धि थी। आर्यसमाज द्वारा भेजे गए देवदूतों ने दक्षिण भारत में सेवा-कार्य में महान् यश कमाया।
अहिंसा के पुजारी गाँधी जी ने दक्षिण में हुई हिंसा को सुनकर भी अनुसना कर दिया। खिलाफत के मुस्लिम नेताओं ने मोपला दंगाइयों को दंगों को धर्मयुद्ध के नाम पर बधाई दी। हिन्दू मुस्लिम एकता के नाम पर यह बहुत बड़ी कीमत थी। पर किसी भी कीमत पर हिन्दू-मुस्लिम एकता की इच्छा रखने वाले गाँधी जी ने मोपलाओं को वीर ईश्वर से डरने वाले योद्धा कहा। उनके अत्याचारों पर उन्होंने हिन्दुओं को सलाह दी कि -‘हिन्दुओं में ऐसे मज़हबी उन्मादों को झेलने के लिए होंसला और हिम्मत होनी चाहिये। मोपला मुसलमानों के उन्माद की हिन्दू मुस्लिम एकता से परीक्षा नहीं हो सकती। मुसलमानों को स्वाभाविक रूप से जबरन धर्मान्तरण और लूट फसाद के लिए शर्मिन्दगी महसूस होनी चाहिये। उन्हें इतनी शांति से प्रभावपूर्वक काम करना चाहिए की मुस्लिम समाज के कट्टरपंथियों के मध्य कोई प्रतिक्रिया न हो। मेरा मानना है कि हिन्दुओं ने मोपला मुसलमानों के उन्माद को सहा है और सभ्य मुसलमान इसके लिए क्षमार्थी हैं।’
16 जनवरी 1922 को कांग्रेस ने मोपला दंगों पर प्रस्ताव पारित किया। उसमें इस बात का पूरा ध्यान रखा गया था कि मुसलमानों की भावनाओं को कोई ठेस न पहुंचे। प्रस्ताव में कहा गया-‘कांग्रेस वर्किंग कमेटी मालाबार में हुए मोपला दंगों पर खेद प्रकट करती है। इन दंगों से यह सिद्ध होता है कि देश में अभी ऐसे लोग है जो कांग्रेस और केंद्रीय ख़िलाफ़त कमेटी के सन्देश को समझ नहीं पा रहे है। हम कांग्रेस और खिलाफत के सदस्यों से अनुरोध करते है कि वो अहिंसा का सन्देश किसी भी सूरत में देश के कौने कौने तक पहुँचाये। कमेटी सरकार एवं अन्यों द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट को जिसमें दंगों का अतिश्योक्ति पूर्ण वर्णन मिलता है। उन्हें अस्वीकार करती है। कमेटी को कुछ जबरन धर्मान्तरण की तीन घटनाएं ज्ञात हुई है जो मजेरी के निकट रहते थे। इससे यही सिद्ध होता है कि कुछ मतान्ध समूह ने ऐसा किया है जिनका खिलाफत और असहयोग आंदोलन में कोई विश्वास नहीं था।’
पाठक देख सकते है कि किस प्रकार से कांग्रेस ने उस काल में गाँधी जी के नेतृत्व में लीपा-पोती की थी। जबकि इसके विपरीत अंग्रेज सरकार द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट में मोपला दंगाइयों के अत्याचारों का रक्त-रंजीत वर्णन था। उसके लिए हिन्दुओं को आंख बंद करने की सलाह दी गई।
स्वामी श्रद्धानन्द ने 26 अगस्त 1926 को लिबरेटर अख़बार में लिखा था-‘ कांग्रेस की सब्जेक्ट कमेटी में पहले हिन्दुओं पर अत्याचार के लिए मोपला दंगाइयों की हिन्दुओं के क़त्ल और उनकी संपत्ति की आगजनी और इस्लाम में जबरन परिवर्तन के लिए सार्वजानिक आलोचना का प्रस्ताव रखा गया था। कांग्रेस के ही हिन्दू सदस्यों ने इस प्रस्ताव में परिवर्तन की बात करते हुए उसे कुछ लोगों की आलोचना तक सीमित कर दिया था। इस पर भी मौलाना फ़क़ीर और अन्य मौलानाओं ने इस कामचलाऊ प्रस्ताव का भी विरोध किया। मुझे तब सबसे अधिक आश्चर्य हुआ जब राष्ट्रवादी मौलाना हसरत मोहानी ने कहा की मोपला क्षेत्र अब दारुल अमन नहीं बल्कि दारुल हरब (इस्लाम द्वारा शासित ) बन गया है और उन्हें सन्देश है कि हिन्दुओं ने शत्रु अंग्रेजों के साथ मिलकर मोपला के साथ भिड़त की हैं। इसलिए मोपला का हिन्दुओं को क़ुरान और तलवार का भेंट करना जायज़ है। और अगर किसी हिन्दू ने अपनी प्राण रक्षा के लिए इस्लाम स्वीकार कर लिया है। तो यह स्वेच्छा से किया गया धर्म परिवर्तन है। जबरन नहीं। इस प्रकार का फोरी प्रस्ताव भी कांग्रेस की कमेटी में सर्वसम्मति से पारित नहीं हो पाया। उसके लिए भी बहुमत से पास करने के लिए वोटिंग करनी पड़ी।
इससे यही सिद्ध होता है कि मुसलमान कांग्रेस को केवल सतही रूप से सहिष्णु मानते है और अगर वो उनकी विशिष्ट मांगों की अनदेखी करती है। तो वे उसे त्याग देने में देर नहीं करते।’
पाठक स्वयं समझदार हैं। गाँधी जी को मुसलमान जितना झुकाते रहे। वो हिन्दू मुस्लिम एकता के नाम पर उतना झुकते रहे। झुकते झुकते देश का विभाजन हो गया। पर मर्ज यूँ का यूँ बना रहा। 2021 में मोपला दंगों का शताब्दी वर्ष है। 100 वर्ष में हमें क्या सीखा। आप स्वयं आत्मचिंतन करे।
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