बहुजन समाज पार्टी के उपाध्यक्ष आनंद कुमार के पास गैर कानूनी तरीके से बनाई गई अकूत संपत्ति का जो खुलासा हो रहा है, वह इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि सत्ता की मदद से कैसे कोई व्यक्ति धनकुबेर बन सकता है, भ्रष्टाचार को पंख लगाकर आसमां छूते हुए नैतिकता की धज्जियां उड़ा सकता है। यह भारत के भ्रष्ट तंत्र की जीती जागती मिसाल है। चाणक्य ने कहा था कि जिस तरह अपनी जिह्ना पर रखे शहद या हलाहल को न चखना असंभव है, उसी प्रकार सत्ताधारी या उसके परिवार का भ्रष्टमुक्त होना भी असंभव है। जिस प्रकार पानी के अन्दर मछली पानी पी रही है या नहीं, जानना कठिन है, उसी प्रकार शासकों या उनके परिवारजनों के पैसा लेने या न लेने के बारे में जानना भी असंभव है। आज जबकि चहूं ओर बसपा प्रमुख मायावती के भाई और पार्टी के दूसरे नंबर की हैसियत वाले नेता आनन्दकुमार के भ्रष्टाचार की चर्चा है, हमें उपरोक्त कथन को ध्यान में रखना होगा। आनंद कुमार के 400 करोड़ रुपये की अनियमिताओं के साथ-साथ अनेक भ्रष्टाचार के मामले सम्पूर्ण राष्ट्रीय गरिमा एवं पवित्रता को धूमिल किये हुए हैं। ऐसा लगता है नैतिकता एवं प्रामाणिकता प्रश्नचिह्न बनकर आदर्शों की दीवारों पर टंग गयी है। शायद इन्हीं विकराल स्थितियों से सहमी जनता ने गत लोकसभा चुनाव में अपने दर्द को जुबां देने की कोशिश की।
जाहिर है कि आनंद कुमार ने मायावती के मुख्यमंत्री रहते हुए जमकर भ्रष्टाचार किया और खुद को सारे नियम-कायदों से ऊपर रखते हुए बेनामी संपत्ति का पहाड़ खडा कर डाला। आयकर विभाग ने फिलहाल जो बड़ी कार्रवाई की है उसमें नोएडा में चार सौ करोड़ रूपए की कीमत वाली जमीन को जब्त कर लिया है। इस जमीन पर मालिकाना हक आनंद कुमार और उनकी पत्नी का बताया गया है। यहां एक पांच सितारा होटल और आलीशान इमारतें बनाने की योजना थीं। बसपा प्रमुख और उनका परिवार लंबे समय से आयकर विभाग के निशाने पर है। आयकर विभाग ने कुछ समय पहले ही आनंद कुमार के ठिकानों पर छापे मारे थे और साढ़े तेरह अरब रूपये से ज्यादा की संपत्ति के दस्तावेज जब्त किए थे। इन संपत्तियों की जांच चल रही है। इतने बड़े घोटाले का पर्दाफाश होने पर भी राजनीतिक दल मौन है? कुछ दल उन घोटालों एवं भ्रष्ट कारनामों के नाम पर राजनीतिक लाभ तो लेते हैं, भ्रष्टाचार के मामले में एक-दूसरे के पैरों के नीचे से फट्टा खींचने का अभिनय तो सब करते हैं पर खींचता कोई भी नहीं। रणनीति में सभी अपने को चाणक्य बताने का प्रयास करते हैं पर चन्द्रगुप्त किसी के पास नहीं है। घोटालों और भ्रष्टाचार के लिए हल्ला उनके लिए राजनैतिक मुद्दा होता है, कोई नैतिक आग्रह नहीं। कारण अपने गिरेबार मंे तो सभी झांकते हैं वहां सभी को अपनी कमीज दागी नजर आती है, फिर भला भ्रष्टाचार से कौन निजात दिरायेगा?
आनंद कुमार ने 1994 में नोएडा विकास प्राधिकरण में जूनियर असिस्टेंट पद पर नौकरी शुरू की थी और तब उन्हें सात सौ रुपए तनख्वाह मिलती थी। सन् 2000 में नौकरी छोड़कर वे कारोबार करने लगे और तभी से अपने रसूख का इस्तेमाल करते हुए संपत्ति बनाने का खेल शुरू कर दिया था। यह काम कोई ऐसा नहीं था जिसे वे अकेले कर जाते। जाहिर है, बिना अफसरों के सहयोग के यह संभव नहीं होता। अफसर किसके इशारे पर काम करते रहे, यह भी किसी से छिपा नहीं है। आयकर विभाग की जांच में पता चला है कि आनंद कुमार की एक दर्जन कंपनियां हैं जिनमें छह कंपनियां तो सिर्फ कागजों में हैं। इन कंपनियों के जरिए ही पैसे का खेल चलता रहा। मामला सिर्फ आनंद कुमार का नहीं है, उन जैसे सैकड़ों लोग होंगे जिन्होंने भ्रष्टाचार से अरबांे-खरबों की बेनामी संपत्ति जमा की है, लेकिन कानून की पहुंच से बाहर हैं। ऐसा लगता है कि इन सब स्थितियों में जवाबदेही और कर्तव्यबोध तो दूर की बात है, हमारे सरकारी तंत्र एवं राजनीतिक तंत्र में न्यूनतम नैतिकता भी बची हुई दिखायी नहीं देती। इन भ्रष्ट स्थितियों में कौन स्थापित करेगा एक आदर्श शासन व्यवस्था? कौन देगा इस लोकतंत्र को शुद्ध सांसे? जब इस तरह मायावती जैसे शीर्ष नेतृत्व ही अपने स्वार्थों की फसल को धूप-छांव देते हैं। जब रास्ता बताने वाले ही भटके हुए हैं और रास्ता न जानने वाले नेतृत्व कर रहे हैं सब भटकाव की ही स्थितियां होती हैं।
मामलो सिर्फ आनंद कुमार का नहीं है, उन जैसे सैकड़ों लोग होंगे जिन्होंने भ्रष्टाचार से अरबांे-खरबों की बेनामी संपत्ति जमा की है, लेकिन कानून की पहुंच से बाहर हैं। कभी यह सुनने में नहीं आता कि किसी के खिलाफ कोई ठोस कार्रवाई हुई हो। अब तक आयकर विभाग और दूसरी जांच एजेंसियां भी सत्ता के प्रभाव एवं दबाव से काम करती रही हैं, जांच के नाम पर मामले को लटकाए रखती रही हैं, यह हैरान करने वाली बात है। आनंद कुमार के खिलाफ यही कार्रवाई सालों पहले भी की जा सकती थी, लेकिन क्यों नहीं हुई, यह गंभीर सवाल है। बसपा हमेशा से गरीबों और दलितों की आवाज उठाने का दावा करती रही है। लेकिन जिस तरह गरीबों और दलितों के नाम पर पार्टी के चंद नेता करोड़ों-अरबों कमा रहे हों तो यह घोर विडम्बनापूर्ण स्थिति है। इन नेताओं ने जिस तरह बेहिसाब दौलत बनाई है, वह दलित, गरीब और वंचित तबके के प्रति उनकी और पार्टी की प्रतिबद्धता पर बड़ा प्रश्नचिन्ह है, उनके साथ विश्वासघात है। हकीकत तो यह है कि बसपा ही नहीं, तमाम छोटे-बड़े राजनीतिक दल भ्रष्टाचार की इस विकृति में डूबे हुए हैं, भले भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने में कितने ही वादे और दावे क्यों न करें। बस कोई पकड़ में आ रहा है और कोई बच जा रहा है या बचा लिया जा रहा है।
अगर देश के निर्धनतम समुदाय के हिस्से का निवाला छीनने में भी राजनीतिक तंत्र को शर्मिंदगी महसूस नहीं होती है तो इससे घटती नैतिकता एवं राजनीतिक भ्रष्टता का अंदाजा लगाया जा सकता है। आज नैतिकता को भी राजनीतिक दल अपने-अपने नजरिये से देखने को अभिशप्त हैं। यही भ्रष्टाचार केवल भारत की समस्या नहीं है, बल्कि समूची दुनिया इससे आक्रांत एवं पीड़ित है, सारी दुनिया में बदलाव की नई लहर उठ रही है। शोषित एवं वंचित वर्ग के बढ़ते असन्तोष को बलपूर्वक दबाने के प्रयास छोड़ कर भ्रष्टाचार मुक्त एवं सामाजिक समरसता वाले भारत के निर्माण की दिशा में प्रयत्न किये जाने की आवश्यकता है।
कैसी विडम्बना है कि आजादी के बाद सत्तर वर्षों के दौर में भी हम अपने आचरण और काबिलीयत को एक स्तर तक भी नहीं उठा सके, हममें कोई एक भी काबिलीयत और चरित्र वाला राजनायक नहीं देखा है जो भ्रष्टाचार मुक्त व्यवस्था निर्माण के लिये संघर्षरत दिखा होें। यदि हमारे प्रतिनिधि ईमानदारी से नहीं सोचंेगे और आचरण नहीं करेंगे तो इस राष्ट्र की आम जनता सही और गलत, नैतिक और अनैतिक के बीच अन्तर करना ही छोड़ देगी। एक तरह से यह सोची समझी रणनीति के अन्तर्गत आम-जन को कुंद करने की साजिश है। राष्ट्र में जब राष्ट्रीय मूल्य कमजोर हो जाते हैं और सिर्फ निजी हैसियत को ऊँचा करना ही महत्त्वपूर्ण हो जाता है तो वह राष्ट्र निश्चित रूप से कमजोर हो जाता है और आज हमारा राष्ट्र कमजोर ही नहीं, जर्जर होता रहा है।
हमें भ्रष्टाचार की जड़ को पकडना होगा। केवल पत्तों को सींचने से समाधान नहीं होगा। बुद्ध, महावीर, गांधी, अम्बेडकर हमारे आदर्शों की पराकाष्ठा हंै। पर विडम्बना देखिए कि हम उनके जैसा आचरण नहीं कर सकते- उनकी पूजा कर सकते हैं। उनके मार्ग को नहीं अपना सकते, उस पर भाषण दे सकते हैं। आज के तीव्रता से बदलते समय में, लगता है हम उन्हें तीव्रता से भुला रहे हैं, जबकि और तीव्रता से उन्हें सामने रखकर हमें अपनी व राष्ट्रीय जीवन प्रणाली की रचना करनी चाहिए। प्रेषकः
(ललित गर्ग)
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