इस्लामी आतंकवाद के दौर में जर्मन नव नाजीवाद पर फिल्म बनाकर फतिह अकीन नें क्या कोई वैकल्पिक राजनीतिक वक्तव्य देने की कोशिश की है?
जर्मन सिनेमा का गौरवशाली इतिहास रहा है जो आज भी जारी तो है पर उसकी गति फ्रांस, इटली और दूसरे यूरोपीय देशों की तुलना में इस समय थोड़ी धीमी हो गई है। इस समय विश्व सिनेमा में जर्मनी की चर्चा कई कारणों से तुर्की मूल के जर्मन फिल्मकार फतिह अकीन (हैंम्बर्ग) की फिल्मों के कारण हो रही है। भारत में फतिह अकीन अनुराग कश्यप और उनकी पीढ़ी के. कई फिल्मकारों के रोल मॉडल हैं। शायद इसकी वजह उनका वह सिनेमाई मुहावरा है जिसमें वे सेक्स, नशा, हिंसा और अराजक स्थितियों के बीच राजनीतिक प्रतिरोध का रंग भर देते हैं।
” द एज ऑफ हेवन ” (2007) के लिए उन्हे कान में बेस्ट पटकथा का पुरस्कार मिल चुका है । हालाकि ” हेड ऑन” (2004) से वे दुनिया भर मे चर्चित हुए जब बर्लिन इंटरनेशनल फिल्म समारोह मे उसे बेस्ट फिल्म का गोल्डन बीयर मिला । उसके बाद उन्होंने 2006 में अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश का विरोध करने के कारण उन्हें जर्मन पुलिस की जांच का सामना करना पड़ा था। उन्होंने आरोप लगाया था कि बुश प्रशासन में अमेरिकी सैन्य मुख्यालय पेंटागन के कहने पर बालीवुड में वैसी फिल्में बन रही है जो ग्वांतानामो जेल में बंद राजनैतिक कैदियों की प्रताड़ना के मामलों को रफा दफा कर दे। अनुराग कश्यप की पहल पर वे अपनी कॉमेडी फिल्म ” सोल किचन ” (2009) लेकर एन एफ डी सी के फिल्म बाजार मे गोवा आए थे और भारत में फिल्म बनाने की इच्छा जताई थी।
जब 70 वें कान फिल्म समारोह (2017) के मुख्य प्रतियोगिता खंड मे उनकी फिल्म ” इन द फेड ” दिखाई गई और इसमें शानदार अभिनय के लिए डियान क्रूगर को बेस्ट अभिनेत्री का पुरस्कार मिला तो प्रीमियर के साथ ही दुनिया भर मे इस फिल्म के वितरण अधिकार बिक गए । उनकी पिछली फिल्म ‘ गोल्डन ग्लव ‘ (2019) की दुनिया भर के फिल्म समीक्षकों ने तीखी आलोचना करते हुए ‘ वीभत्स , निर्मम और स्तरहीन’ तक कह डाला। यह फिल्म हाईंज स्ट्रंक के जर्मन उपन्यास पर आधारित है। यह एक सीरियल किलर फ्रिट्ज होंका के बारे में है जिसने 1970-75 के दौरान कम से कम चार महिलाओं के शरीर के टुकड़े करके उसे अपने घर में सजा रखा था। ‘ गोल्डन ग्लव ‘ हैंबर्ग के रेड लाइट एरिया में एक पब का नाम है जहां से फ्रिट्ज होंका अपना शिकार चुनता था।
यह आश्चर्यजनक है कि जब सारी दुनिया में इस्लामी आतंकवाद चर्चा का विषय बना हुआ है तो फतिह अकीन दस- बारह साल पुराने जर्मन नव नाजीवाद (2001-2007) को विषय बनाकर प्रतिशोध का सिनेमाई ड्रामा रच रहे है ।उस दौर में हिटलर से प्रेरित ” नेशनल सोशलिस्ट अंडरग्राउंड ” ( एन एस यू) ने नस्ली हिंसा में जर्मनी में बड़े पैमाने पर गैर जर्मनों की हत्याएँ की थी । 2013 में म्यूनिख में एन एस यू पर चर्चित मुकद्दमा भी चला था । ऐसे मामलों में जर्मन पुलिस अक्सर हत्यारों को सजा दिलानें के वजाय मारे गए लोगों पर ही ड्रग और जुए का आरोप लगाकर जाँच को भरमा देती थी ।
जर्मन गोरी महिला कात्जा सेकेर्सी (डियान क्रूगर) का सुखमय जीवन उस समय बरबाद हो जाता है जब एक आतंकवादी बम विस्फोट में उसका तुर्की मूल का पति नूरी सेकेर्सी और बेटा रोक्को मारे जाते हैं। जर्मन पुलिस का मानना है कि यह हमला तुर्की या कुर्दिश माफिया द्वारा पैसों के लिए निजी झगड़े का नतीजा है । नूरी एक नामी ड्रग डीलर रहा है जो कात्जा से शादी के बाद सुधरकर तुर्की – कुर्दिश समुदाय को कानूनी सहायता देने का बिजनेस करता है। तभी पुलिस उस लड़की को पकड़ लेती है जिसने बम विस्फोट किया था। वह लड़की नव नाजीवादी समूह एन एस यू की सदस्य है । कोर्ट में गलत गवाही ,कात्जा के ड्ग टेस्ट की मांग , और बहस को दाँव-पेंच में उलझाकर अपराधी बरी हो जाते है । कात्जा एक बार आत्महत्या करने की कोशिश भी करती है लेकिन तभी वह खुद ही बदला लेने का मुश्किल निर्णय लेती है । वह आत्मघाती बम बनाकर ग्रीस में हत्यारों का पीछा करती है और एक दिन खुद के साथ उन्हे भी बम से उड़ा देती है ।
फतिह अकीन ने अपनी पिछली फिल्मों से अलग यहॉ अलग ड्रामा पेश किया है । घटनाओं को मार्मिक बनाने के लिए जोश होम्स के रॉक ग्रूप ” क्वींस ऑफ द स्टोन एज” के संगीत का प्रयोग किया है । फिल्म तीन अध्यायों मे है जिसको नाम दिया गया है – परिवार, न्याय और समुद्र । फिल्म में सेक्स और प्रकट हिंसा दूर- दूर तक नही है जो फतिह अकीन का सिगनेचर ट्यून है । डियान क्रूगर ने पति और बेटे को खो देने के दर्द को वैश्विक अभिव्यक्ति दी है । फिल्म के पहले दृश्य जेल में नूरी से शादी से लेकर आत्मघाती बम विस्फोट तक पटकथा बेहद कसी हुई है । कात्जा का मृत पति- बेटे के लिए खुद ही ताबुत खरीदने का हृदयविदारक दृश्य अंदर से हिला देनेवाला है । उसका बार- बार बच्चे का पुराना वीडियो देखना, दुख की इंतेहा से बचने के लिए ड्रग लेना और बम विस्फोट के बाद पूरी फिल्म में नीली ऑखों का ठंढापन डराता है ।कोर्ट के दृश्य दिलचस्प किंतु हास्यास्पद हैं।
पर यह सवाल तो फिर भी बना हुआ है कि इस्लामी आतंकवाद के इस दौर में जर्मन नव नाजीवाद पर फिल्म बनाकर फतिह अकीन नें क्या कोई वैकल्पिक राजनीतिक वक्तव्य देने की कोशिश की है?
(लेखक जाने माने फिल्म समीक्षक हैं व अंतरराष्ट्रीय फिल्मों के जानकार हैं)