दीपान्विता, दीपमालिका, कौमुदी महोत्सव, जागरण पर्व में आधुनिक काल की फिल्मों ने भले ही दीवाली के प्रसंग को भुला सा दिया है लेकिन पुरानी फिल्मों में बताया गया दीपक का महत्व आज भी उसी प्रकार से समाज को आलोकित किए हुए है, जैसा उन दिनों में हुआ करता था। सामाजिक, राष्ट्रीय एवं व्यक्तिगत दृष्टिकोणों से दीवाली की अद्वितीय, अलौकिक व आनंददायी मान्यताएं फिल्मों में उन दिनों से स्थापित होती रही हैं, जब भारतीय फिल्म निर्माताओं का देश एवं समाज के प्रति दृष्टिकोण व्यावसायिक कम और रचनात्मक ज्यादा होता था। दीये की हमराह बनी बाती और तेल का भातीय संस्कृति में विशेष महत्व रहा है।
धर्म शास्त्रों ने दीये की महिमा को शुभ, आस्था का प्रतीक, उज्ज्वल, अंधकार विनाशक, जीवन का प्रतीक एवं सामंजस्य का प्रतीक माना है। भारतीय फिल्मों में दीये के इर्द-गिर्द कई गीतों की मालाओं को बड़ी ही खूबसूरती से पिरोकर दीवाली की पृष्ठभूमि पर प्रस्तुत किया गया है। इन गीतों में संदेश, दर्शन, जीवन स्वर, सब कुछ तो निहित है, जो हमारी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि का हिस्सा रहा है। दीवाली के फिल्मी प्रसंग और गीत हमारे अपने परिवेश की प्रतिछाया हुआ करते थे। फिर भी दीये की यह संस्कृति और दीयों की महिमा का गुणगान हमारी फिल्मों से न जाने कहां और क्यों गायब हो गया?
उन दिनों फिल्म ‘नजराना’ के नायक राजकपूर ने गाया था:-
इक वो भी दीवाली थी,
इक ये भी दीवाली है।
उजड़ा हुआ गुलशन है,
रोता हुआ माली है।।
फिल्म ‘संबंध’ में दीपक की महिमा का गुणगान सुनकर व्यक्ति के मन ने आवाज दी:-
जगमगाते दीयों मत जलो,
मुझसे रूठी है मेरी दीवाली।
ये खुशी ले के मैं क्या करूं,
मेरी है अब तक रात काली।।
फिल्म ‘एक बार मुस्करा दो’ में बुझे मन की आवाज थी:-
सवेरे का सूरज तुम्हारे लिए है,
कि बुझते दीये को ना तुम याद करना।।
मजरूह के लिखे फिल्म ‘धरती कहे पुकार के’ के गीत में नायिका निवेदिता ने खुशी के मौके पर दीये को याद करते हुए कहा:-
दीये जलाए प्यार के
चलो इसी खुशी में,
बरस बिता के आई है
ये शाम जिंदगी में।
व्ही शांताराम ने दीये की दास्तान अपनी फिल्म ‘तूफान और दिशा’ में कुछ यूं व्यक्त की:-
निर्धन की लड़ाई बलवान की,
ये कहानी है दीये और तूफान की।
फिल्म ‘आकाशदीप’ की नायिका माला सिन्हा ने प्रेम के अंकुरण का स्वरूप दीपक को मानते हुए कहा था:-
दिल का दीया जला के गया,
ये कौन मेरी तन्हाई में।
दोस्ती और वफा की बात चली तो ‘नमक हराम’ के नायक राजेश खन्ना कह उठे:-
दीये जलते हैं,
फूल खिलते हैं।
बड़ी मुश्किल से मगर
दुनिया में दोस्त मिलते हैं।।
दीवाली का उत्साह, जिसमें शराब की उद्दंडता नहीं होती, उसे देख छोटे-छोटे बच्चों के बीच फिल्म ‘जुगनू’ का नायक गा उठा:-
छोटे-छोटे, नन्हे-नन्हे,
प्यारे-प्यारे से दीप,
दीवाली के झूले …।
आस्थावान नारी के हाथों में पूजा के लिए प्रस्तुत होता दीया जब भारतीय नारी के आंचल की छांव में टिमटिमाता आगे बढ़ा तो शकील बदायूंनी के गीतों के साथ फिल्म ‘सन ऑफ इंडिया’ की नायिका कुमकुम कह उठी:-
दीया न बुझे रे आज हमारा।
पुरानी फिल्मों में दीवाली और दीयों की महिमा का गुणगान करते गीतों की लड़ियों ने समाज से फिल्मों के माध्यम से हमारी सांस्कृतिक धरोहर को जीवंत बनाए रखने का आग्रह किया था लेकिन अब तो दीवाली के पावन पर्व पर दीये का गुणगान करने वाला मंगल गान तो दूर की बात, फिल्मों से दीवाली के प्रसंग ही लगभग गायब से हो गए हैं। फिल्मकार कभी रचनात्मक दृष्टिकोण देकर सामाजिक व्यवस्था को सुदृढ़ बनाने की कोशिश किया करते थे लेकिन अब फिल्मी बाजार से यह प्रयास बाहर हो गया दिखता है।
(लेखिका शिक्षिका हैं)
साभार- https://www.agniban.com/ से