मथुरा में विराज रहे दण्डी स्वामी विरजानन्द जी की ख्याति उन दिनों लोक में प्रसिद्धि पा रही थी। दयानन्द उनकी विद्वत्ता से परिचित थे। सन् 1855 में उनका सामीप्य उन्हें प्राप्त हो चुका था। उन्होंने तुरन्त मथुरा की राह पकड़ ली।
संवत् 1917 कार्तिक शुदी 2 (सन् 1860) को स्वामी दयानन्द जी ने मथुरा पहुँच कर व्याकरण के सूर्य दण्डी स्वामी विरजानन्द जी की कुटिया का द्वार खटखटा दिया।
दण्डी स्वामी ने दयानन्द का परिचय पूछा और कुटिया के द्वार खोल दिए । दयानन्द का अभीष्ट पूरा हुआ। वे गुरु के चरणों में नतमस्तक हो गए।
गुरु ने कहा-“दयानन्द तुमने अभी तक जितने भी ग्रन्थ पढ़े हैं,उनमें अधिकतर अनार्ष ग्रन्थ हैं। मैं मनुष्यकृत ग्रन्थ नहीं पढ़ाता हूँ। यदि तुम मुझ से विद्याध्ययन करना चाहते हो तो प्रथम अनार्ष ग्रन्थों का परित्याग करना होगा।”
दयानन्द जी ने गुरु की आज्ञा शिरोधार्य कर अनार्ष ग्रन्थों का त्याग करते हुए उन्हें यमुना नदी में बहा दिया।
पढ़ने के लिए दयानन्द जी को महाभाष्य की आवश्यकता हुई। पैसा पास नहीं था। दण्डी स्वामी की प्रेरणा से नगरवासियों ने सहयोग किया। 31 रुपये एकत्रित कर दयानन्द के लिए महाभाष्य की एक प्रति क्रय कर ली गई।ण्डी स्वामी इस समय जीवन के 81 वर्ष पूर्ण कर चुके थे। पढ़ाई की व्यवस्था तो हो गई, परन्तु भोजन की व्यवस्था न हो सकी। उस वर्ष उत्तर भारत दुर्भिक्ष के चंगुल में फंसा कराह रहा था। इसका कुप्रभाव मथुरा को भी झेलना पड़ा। इसलिए लम्बे समय तक स्वामी दयानन्द जी को चने खाकर ही अपनी क्षुधा को शान्त करने के लिए विवश होना पड़ा।
धीरे-धीरे दयानन्द के विनम्र स्वभाव, तेजस्वी व्यक्तित्व और विद्वत्ता से मथुरा निवासी परिचित होने लगे। कुछ समय दुर्गाप्रसाद क्षत्रिय के घर उनके भोजन की व्यवस्था हुई। उसके पश्चात् अमरलाल ज्योतिषी ने दयानन्द जी को आदरपूर्वक अपने घर में प्रवेश कराया और उनके भोजन, पुस्तकादि का पूर्ण प्रबन्ध किया। रात्रि में अध्ययन के लिए प्रकाश की आवश्यकता थी। दीये के प्रकाश में पढ़ने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं था, परन्तु दीया जलाने के लिए तेल की आवश्यकता थी। तेल की व्यवस्था लाला गोवर्धन सर्राफ ने की। उसके लिए वे चार आना प्रतिमास दिया करते थे। दूध के लिए दो रुपये प्रतिमास श्री हरदेव पत्थर वालों के यहाँ से आते थे। निवास का प्रबन्ध पहले दिन ही हो गया था। मथुरा में विश्रामघाट के लक्ष्मी नारायण मन्दिर के नीचे प्रवेश द्वार के साथ एक छोटी-सी कोठरी उन्हें मिल गई थी। यद्यपि वे उसमें पैर पसार कर सो भी नहीं सकते थे, फिर भी सन्तुष्ट थे।
दण्डी स्वामी को ब्रह्ममुहूर्त में साधना करने का अभ्यास था। वे प्रात:-सायं यमुना के यथेष्ट जल में स्नान करते और यमुना का जल ही पीते थे। इस निमित्त शिष्य दयानन्द जल के आठ-दस घड़े प्रातः और आठ-दस घड़े सायं नित्य ही कंधे पर रख कर गुरु-कुटिया में पहुँचाते। पीने के पानी के लिए उन्हें यमुना की पवित्र गहरी धाराओं में उतरना पड़ता था। इसके पश्चात् भ्रमणार्थ चले जाना, लौटने पर स्नानादि कर योगासन और प्राणायाम का अभ्यास करना और फिर सन्ध्या-उपासना में मन लगाना। यथासमय विद्याध्ययन के लिए गुरु चरणों में उपस्थित हो जाना। इस कार्य में वे कभी भी विलम्ब नहीं करते थे। वे आदर्श गुरु के आदर्श शिष्य थे।
स्वामी दयानन्द जी की स्मरणशक्ति विलक्षण थी। एक-दो बार सुनी हुई बात उन्हें विस्मृत न होती थी। गुरु को भी अपने इस शिष्य की स्मरणशक्ति पर पूरा भरोसा था। इसलिए वे कोई भी पाठ दयानन्द को दो बार नहीं पढ़ाते थे। एक बार दयानन्द अष्टाध्यायी की प्रयोग सिद्धि अपने निवास पर जाते-जाते भूल गए। प्रयास करने पर भी उन्हें वह सिद्धि स्मरण न आ सकी। उन्हें बड़ा दु:ख हुआ। वे दौड़ते हुए गुरु चरणों में उपस्थित हुए और वह प्रयोग सिद्धि दोबारा बता देने की प्रार्थना की। परन्तु उनकी प्रार्थना स्वीकार न हुई। वे दो-तीन दिन तक इसी प्रयास में लगे रहे, पर उन्हें सफलता न मिल सकी। अन्त में गुरु विरजानन्द दण्डी ने उनसे कहा-”दयानन्द हम यह प्रयोग सिद्धि तुम्हें दोबारा न बतायेंगे और जब तक यह प्रयोग-सिद्धि तुम्हें स्मरण नहीं होगी, तब तक आगे को पाठ तुम्हें नहीं पढ़ाया जाएगा। इस बार भी यदि यह प्रयोग-सिद्धि स्मरण न हुई तो यमुना के जल में डूब मरना, पर मेरी कुटिया पर कदम न रखना।”
दयानन्द ने आगे कुछ नहीं कहा। गुरु के चरणों का विनम्र भाव से स्पर्श किया और यमुना की ओर चल दिए। निश्चय कर लिया कि यदि प्रयोग सिद्धि स्मरण न हुई तो यमुना के जल में समाधि ले लेंगे। वे सीताघाट के शिखर पर पहुँच गए। समाधि लगाई और ध्यान अष्टाध्यायी की विस्मृत प्रयोग-सिद्धि पर लगा दिया। उन्होंने मन को इतना एकाग्र किया कि तन की सुधि ही बिसर गई। उन्हें ऐसा लगा कि कोई व्यक्ति उनके सम्मुख है और उन्हें विस्तृत प्रयोगसिद्धि सुना रहा है। प्रयोगसिद्धि समाप्त हुई तो दयानन्द जी की चेतना लौट आई। वे प्रसन्न थे। उन्होंने प्रयोगसिद्धि दोहराई तो सम्पूर्ण स्मरण थी। दौड़ते हुए गुरु-चरणों में उपस्थित हुए और एक साँस में सम्पूर्ण प्रयोगसिद्धि सुना दी और समाधिस्थ अवस्था में अपने साथ घटी घटना भी। प्रयोग-सिद्धि सुन कर गुरु भावविभोर हो गए और उन्होंने अपने प्रिय शिष्य को गले से लगा लिया। हर्षाश्रुओं से उनकी आँखें भीग गई थीं।
उषा ने धीरे-धीरे अपनी लालिमा धरती पर बिखेरनी आरम्भ की। सूर्योदय में अभी विलम्ब था।
एक श्रद्धालु महिला यमुना-जल में स्नान कर घर को लौट रही थी। सामने यमुना तट की रेत पर साधना में लीन भव्य संत-आकृति को देख उसको मन श्रद्धाभाव से भर उठा। उसे उस संत के श्री चरणों में शीश झुका आशीर्वाद प्राप्त कर लेने की इच्छा हुई। वह धीरे-धीरे समाधिस्थ संत की ओर बढ़ी और विनम्रतापूर्वक अपना मस्तक उनके चरणों पर टिका दिया। दयानन्द माता माता कहते हुए उठ खड़े हुए। संन्यास की मर्यादा का पालन करते हुए वे स्त्री-स्पर्श से सदा बचते रहे थे। इस चरण स्पर्श से वे एकदम चौंके और स्त्री-स्पर्श को प्रायश्चित्त करने के लिए एक निर्जन स्थान की तलाश में गोवर्धन पर्वत पर पहुँच एक खण्डहर हुए मन्दिर में बैठ समाधिस्थ हो गये। तीन दिन उन्होंने साधना में व्यतीत किए। चौथे दिन जब विद्यार्जन के लिए गुरुचरणों में पधारे तो गुरु द्वारा निरन्तर अनुपस्थित रहने का कारण पूछने पर दयानन्द ने व्रतभंग तथा प्रायश्चित्त की पूरी घटना दण्डी स्वामी विरजानन्द के सम्मुख प्रस्तुत कर दी। शिष्य के तपःपूत चरित्र से गुरु प्रसन्न हुए और शिष्य को आशीर्वाद देते हुए उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की।
वृद्ध एवं नेत्रहीन होने के कारण दण्डी विरजानन्द जी के स्वभाव में सहज कठोरता आ गई थी। परिणामस्वरूप वे शिष्यों के प्रति यदा-कदा सामान्य कारणवश भी क्रुद्ध व अप्रसन्न हो जाते थे। एक दिन दण्डी जी शिष्य दयानन्द पर क्रोधाभिभूत हो दण्ड-प्रहार कर बैठे। इस पर भी गुरुभक्त शिष्य ने विनम्रभाव से कहा-“महाराज, आप मुझे इस प्रकार न मारा करें । तप से वज्र के समान बने मेरे कठोर शरीर पर प्रहार करने से आपके कोमल हाथों को ही पीड़ा होगी।” यह प्रसिद्ध है कि कालान्तर में दयानन्द अपने शरीर पर पड़े चोट के चिह्न को देखकर गुरु के उपकारों का स्मरण किया करते।
एक अन्य अवसर पर जब दण्डी जी ने अप्रसन्न होकर शिष्य दयानन्द को दण्डित किया तो नैनसुख जड़िया नामक भक्त ने प्रज्ञाचक्षु गुरु से निवेदन किया-महाराज, दयानन्द हमारे समान गृहस्थी नहीं है, वह संन्यासी है। उनके आश्रम की मर्यादा का विचार करते हुए आप उनके प्रति इस प्रकार की कठोरता न किया करें। गुरु विरजानन्द ने इस परामर्श को स्वीकार करते हुए कहा-हम भविष्य में प्रतिष्ठा के साथ पढ़ायेंगे, परन्तु गुरु के प्रति भक्तिभाव से आप्लावित श्रद्धालु दयानन्द ने नैनसुख से कहा-आपको ऐसा नहीं कहना चाहिए था। गुरु जी तो उपकार की भावना से ही दण्डित करते हैं, द्वेषभाव से नहीं। यह तो उनकी कृपा ही है।
विद्या-समाप्ति में 15-20 दिन ही शेष रहे थे कि एक दिन गुरु की आज्ञा से उनके स्थान पर झाड़ लगाकर कूड़ा अभी उठा नहीं पाये थे कि टहलते हुए दण्डी जी का पैर कूड़े से जा टकराया। इससे क्रुद्ध हुए दण्डी जी ने दयानन्द को फटकारते हुए उनकी ड्योढी बन्द कर दी अर्थात् उन्हें पाठशाला से बाहर जाने का आदेश दे डाला। इससे शिष्य दयानन्द को बहुत दुःख हुआ। कहते हैं नैनसुख जड़िया व नन्दन चौबे की संस्तुति से ही दयानन्द को क्षमा तथा पुनः पाठशाला में प्रवेश का अधिकार प्राप्त हुआ।
इस प्रकार दयानन्द की ड्योढी बन्द होने का अवसर एक बार और भी आया। एक बार दण्डी जी का कोई दूर का सम्बन्धी मथुरा आया और वीतराग संन्यासी के दर्शन की कामना से पाठशाला में उपस्थित हुआ। उन दिनों दण्डी जी का कठोर आदेश था कि विद्यार्थियों के अतिरिक्त अन्य कोई हमारे समीप ने आवे। आगन्तुक ने स्वामी दयानन्द से दण्डी जी के दर्शन कराने की प्रार्थना की। दयानन्द द्वारा गुरु जी का आदेश बतला देने पर भी वह अनुनय-विनय करता रहा। इस पर सरलचित्त दयानन्द उन्हें अपने साथ ले गये तथा दण्डी जी के दर्शन करा दिये। जब वे वापिस लौट रहे थे तो एक सहाध्यायी ने गुरु जी से इसकी शिकायत कर दी। इससे दण्डी जी ने दयानन्द पर अप्रसन्न हो पुनः उनका पाठशाला में प्रवेश निषिद्ध कर दिया। दयानन्द ने बहुत अभ्यर्थना की, परन्तु गुरुवर शान्त न हुए। अन्त में नैनसुख जड़िया की सिफारिश पर ही गुरु-कुटिया का द्वार
खुला।
ये हैं गुरु-चरणों में अध्ययन करते हुए शिष्य दयानन्द के संस्मरण, जिनसे उनकी गुरु के प्रति अटूट आस्था, श्रद्धा, विनम्रता व अतिशय भक्तिभाव व्यक्त होता है।
स्वामी दयानन्द की ग्रहण-शक्ति और तर्क-बुद्धि पर गुरु जी मोहित थे। गुरु जी का उन पर अपार स्नेह भी था। पाठ पढ़ाते समय अनेक बार अपने शिष्यों में उनकी प्रशंसा करते थे। वे कहते थे-दयानन्द-सा दूसरा शिष्य नहीं है। मेरे सपनों को यही साकार रूप दे सकेगा। मेरे विचारों को प्रख्यात करने की क्षमता दयानन्द में है। | गुरु विरजानन्द इस शिष्य की प्रबुद्धता देख प्रसन्न हो उठते और कहते– “दयानन्द, इस कुटिया में कितने ही शिक्षार्थी आए और चले गए, पर जो आनन्द तुझे पढ़ाने में आता है ऐसा आनन्द कभी नहीं आया। तुम्हारी तर्क-शक्ति सराहनीय है। कुमतों का खण्डन तुम्हारे द्वारा सम्भव है।”
विद्याध्ययन का समय समाप्त हो गया। अढ़ाई वर्ष तक गुरु चरणों में बैठ स्वामी दयानन्द ने निष्ठापूर्वक ऋषिकृत ग्रन्थों का अध्ययन किया। अब कोई जिज्ञासा शेष नहीं थी। गुरु जी से विदाई का क्षण आ उपस्थित हुआ। यद्यपि दण्डी स्वामी अपने शिष्यों से कभी कोई भेंट नहीं स्वीकारते थे, फिर भी दयानन्द जी ने गुरु के समीप खाली हाथ उपस्थित होना उचित नहीं समझा। उनके पास ऐसा कोई द्रव्य नहीं था, जिसे वे गुरुचरणों में समर्पित कर देते, फिर भी प्रयास पूर्वक उन्होंने कुछ लौंग कहीं से प्राप्त कर और गुरु-कुटिया पर उपस्थित हो, उनके चरणों में सिर धर दयानन्द ने गुरु जी से निवेदन किया-“गुरुवर, मेरा अध्ययन-काल समाप्त हुआ। अब मैं देश भ्रमण के लिए आपकी आज्ञा चाहता हूँ। आपको आशीर्वाद मुझे चाहिए। मेरे पास श्रीचरणों में समर्पित करने के लिए कोई वस्तु नहीं है। ये थोड़े-से लौंग हैं, इन्हें आप स्वीकार करें।”
गुरु विरजानन्द जी ने स्वामी दयानन्द के सिर पर स्नेह का हाथ रखा और बोले-‘”वत्स, लौंग मुझे नहीं चाहिएँ। गुरु-दक्षिणा के लिए ये पर्याप्त नहीं हैं।”
“आज्ञा करें गुरुदेव, मेरा तन और मन गुरु चरणों में समर्पित है।” दयानन्द ने चरण छूकर विनम्र निवेदन किया।
दण्डी स्वामी ने गद्गद स्वर में कहा-“दयानन्द तुझसे मुझे यही आशा थी। देश में अज्ञान का अन्धकार छाया हुआ है। कुरीतियों में फंसे लोग नरक-सी जिन्दगी जी रहे हैं। अन्धविश्वास की जड़ें गहरी हो गई हैं। वैदिक ग्रन्थों का पठन-पाठन, चिन्तन-मनन विलुप्त हो गया है। विभिन्न मत मतान्तरों ने अपने पैर फैला लिये हैं। दीन-हीन समाज दुर्गति की ओर लुढ़कता चला जा रहा है। समाज को अधोगति से बचाओ। लोक कल्याण के लिए स्वयं को समर्पित करो। सोते देश को जागृत करो। इसके अतिरिक्त गुरु-दक्षिणा में मुझे कुछ और नहीं चाहिए।”
दयानन्द ने अपना सिर गुरु-चरणों में रख दिया और बोले-“आपकी आज्ञा शिरोधार्य गुरुवर ! दयानन्द जीवनभर समाज-सेवा से विरत नहीं होगा।”
दण्डी स्वामी प्रसन्न हुए। चरणों में नतमस्तक दयानन्द को भरपूर आशीर्वाद दिया-“परमात्मा तुम्हें सफलता दें, परन्तु ध्यान रखना अनार्ष ग्रन्थ अध्ययन के योग्य नहीं हैं, उनमें परमात्मा और ऋषियों की निन्दा है। अतः आर्ष ग्रन्थों का पठन-पाठन ही करना।”
“ऐसा ही होगा गुरुदेव!” विनम्र भाव से दयानन्द ने कहा। गुरु जी से विदा ली और आगरा की ओर चल दिए।
कोटि कोटि नमन उस महान गुरु व उसके महान शिष्य को