दृश्य एक। सुबह के पांच बजे का समय है। चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की प्रथम तिथि यानी वर्ष प्रतिपदा का मौका है। ग्वालियर शहर के लोग शुभ्रवेश में जल विहार की ओर बढ़े जा रहे हैं। जल विहार के द्वार पर धवल वस्त्र पहने युवक-युवती खड़े हैं। उनके हाथ में एक कटोरी है। कटोरी में चंदन का लेप है। वे आगंतुकों के माथे पर चंदन लगा रहे हैं। भारतीय संगीत की स्वर लहरियां गूंज रही हैं। सुर-ताल के बेजोड़ मेल से हजारों मन आल्हादित हो रहे हैं। बहुत से लोगों ने तांबे के लोटे उठाए और जल कुण्ड के किनारे पूर्व की ओर मुंह करके खड़े हो गए। सब अघ्र्य देकर नए वर्ष के नए सूर्य का स्वागत करने को तत्पर हैं। तभी सूर्यदेव ने अंगडाई ली। बादलों की चादर को होले से हटाया। अपने स्वागत से शायद सूर्यदेव बहुत खुश हैं। तभी उनके चेहरे पर विशेष लालिमा चमक रही है। सूर्यदेव के आते ही जोरदार संघोष हुआ। सबने आत्मीय भाव से, सकारात्मक ऊर्जा से भरे माहौल में एक-दूसरे को नववर्ष की शुभकामनाएं दीं।
दृश्य दो। दिसम्बर की आखिरी रात। पुलिस परेशान है कि ‘हैप्पी न्यू ईयर वालों’ को कैसे संभाला जाएगा? शराब पीकर बाइक-कार को हवाईजहाज बनाने वालों को कैसे आसानी से लैंड कराया जा सकेगा? खैर पुलिस के तनाव के बीच जैसे ही रात 12 बजे घड़ी की दोनों सुईयां एक जगह सिमटीं, जोरदार धमाकों की आवाज आती है। आसमान आतिशबाजी से जगमग हो उठा। आस-पास के घरों से म्यूजिक सिस्टम पर कान-फोडू संगीत बज उठा है। देर शाम से नए साल के स्वागत में शराब पी रहे लौंडे अपने बाइक पर निकल पड़े हैं। कुछ बाइकर्स कॉलोनी में भी आए हैं। सीटी बजाते हुए, चीखते-चिल्लाते हुए, धूम मचा रहे हैं। नारीवादी आंदोलन के कारण खुद को ‘ठीक से’ पहचान सकीं लड़कियों ने भी लड़कों से पीछे नहीं रहने की कसम खा रखी है। शोर-शराबे के बीच जैसे-तैसे सो सके। सुबह उठे तो अखबार में फोटो-खबर देख-पढ़कर जाना कि नए साल का स्वागत बड़ा जोरदार हुआ। कई लीटर शराब पी ली गई। बहुत-से मुर्गे-बकरे भी निपट गए। कुछ लोग पीकर सड़क किनारे गटर के ढक्कन पर पाए गए तो कुछ लोग सड़क दुर्घटना में घायल हो गए, जिनकी एक जनवरी अस्पताल में बीती। और भी बहुत कुछ है बताने को।
दो तस्वीर आपने देखीं। इनमें नया कुछ नहीं है। कुछ दिन से यह सब बताने वाले चित्र आपके फेसबुक पेज और व्हाट्सअप पर आ रहे होंगे। हो सकता है आपने इन्हें लाइक-शेयर-कमेन्ट भी किया हो। हो सकता है आप थोड़ी देर के लिए भारतीय हो गए हों और आपने इन्हें आगे बढ़ा दिया हो। आपको अचानक से अपनी संस्कृति खतरे में नजर आई हो। बहरहाल, समस्या यहां सिर्फ संस्कृति संरक्षण की नहीं है। यहां यह प्रश्न भी नहीं है कि मेरी संस्कृति अच्छी, उनकी संस्कृति घटिया। यहां प्रश्न लोगों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का भी नहीं है। असल में प्रश्न तो यह है कि हमें किस तरफ आगे बढ़ाना चाहिए? हमें भारतीय मूल्यों, भारतीय चिंतन और भारतीय संस्कृति की ओर बढ़ाना चाहिए या फिर पश्चिम से आए कचरे को भी सिर पर रखकर दौड़ लगा देना है? क्या भारतीय संस्कृति पुरातनपंथी है? क्या वर्ष प्रतिपदा ‘बैकवर्ड’ समाज का त्योहार है और न्यू ईयर ‘फॉरवर्ड’ का? प्रश्न तो यह भी है कि वास्तव में हमारा आत्म गौरव कब जागेगा? कब हमारी तरुणाई अंगडाई लेगी? कब हम अपने मूल्यों में अधिक भरोसा दिखाएंगे? कब हम अपनी चीजों को दुनिया से सामने प्रतिष्ठित करेंगे?
समय तो तय करना पड़ेगा, खुद को बदलने का। सोचते-सोचते, भाषण देते-देते, कागज कारे करते-करते बहुत वक्त बीत गया है। अब समय आ गया है कि हम भारतीय हो जाएं। आखिर कब तक प्रगतिशील दिखने के लिए दूसरे का कोट-जैकेट पहने रहेंगे? अब हम जान रहे हैं कि एक जनवरी को हमारा नववर्ष नहीं है। कारण भी क्या हैं कि एक जनवरी को नववर्ष मनाया जाए? सिर्फ यही कि अंग्रेजी कैलेण्डर बदलता है। अब तय कीजिए क्या यह हमारे लिए उत्सव मनाने का कारण हो सकता है? यदि हो सकता है तो निश्चित ही हमारे पुरखे तय कर गए होते। हम तो वैसे भी उत्सवधर्मी हैं, त्योहार मनाने के मौके खोजते हैं। लेकिन, हमने इस नववर्ष को उत्सव घोषित नहीं किया, क्योंकि हमारे लिए एक जनवरी को नया साल मनाने का कोई कारण नहीं था। हिन्दू जीवनशैली पूर्णत: वैज्ञानिक है। यह तथ्य सिद्ध हो चुका है। इसीलिए भारतीय मनीषियों ने प्रकृति के चक्र को समझकर बताया कि चैत्र से नववर्ष शुरू होता है। उस वक्त मौसम बदलता है। वसंत ऋतु का आगमन होता है। प्रकृति फूलों से मुस्काती है। फसल घर आती है तो किसानों के चेहरे पर खुशी चमकती है। दुनिया के दूसरे कैलेण्डर से भारतीय कैलेण्डर की तुलना करें तो स्पष्ट हो जाएगा कि भारतीय मनीषियों की कालगणना कितनी सटीक और बेहतर थी। वर्ष प्रतिपदा को ही नववर्ष मनाने का एक प्रमुख कारण यह है कि भारतीय कालगणना के मुताबिक इसी दिन पृथ्वी का जन्म हुआ था।
बहुत से विद्वान कहते हैं कि जब ईस्वी सन् ही प्रचलन में है तो क्यों भारतीय नववर्ष को मनाने पर जोर दिया जाए। जब एक जनवरी से ही कामकाज का कैलेण्डर बदल रहा है तो इसे ही नववर्ष मनाया जाना चाहिए। जवाब वही है, सनातन। जब सब काम ग्रेगेरियन कैलेण्डर से ही किए जा रहे हैं तो फिर निजी जीवन में जन्म से लेकर अंतिम संस्कार तक की सभी प्रक्रियाओं के लिए पंचाग क्यों देखा जाता है। क्योंकि अंतर्मन में विश्वास बैठा है कि कालगणना में भारतीय श्रेष्ठ थे। भारतीय कैलेण्डर का पूर्णत: पालन करने पर कोई क्या कहेगा, इसकी चिंता हमें खाए जाती है। सारी चिंताएं छोड़कर अपने कैलेण्डर को प्रचलन में लाने के लिए प्रयास किए जाने चाहिए। एक मौका हाथ आया था लेकिन पाश्चात्य प्रेम में फंसे हमारे पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने वह मौका खो दिया था। वर्ष 1952 में वैज्ञानिक और औद्योगिक परिषद ने पंचाग सुधार समिति की स्थापना की थी। समिति ने 1955 में अपनी रिपोर्ट में विक्रम संवत को भी स्वीकार करने की सिफारिश प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से की थी। लेकिन, पंडितजी ने इस सिफारिश को नजरअंदाज कर दिया। खुद को सेक्यूलर कहने वाले प्रधानमंत्री ने ऐसे कैलेण्डर को मान्यता दी, जिसका संबंध एक सम्प्रदाय से है। जनवरी से शुरू होने वाले नववर्ष का संबंध ईसाई सम्प्रदाय और ईसा मसीह से है। रोम के सम्राट जूलियस सीजर इसे प्रचलन में लाए। जबकि भारतीय नववर्ष का संबंध हिन्दू धर्म से न होकर प्रकृति से है। यानी खुद को सेक्यूलर कहने वाले विद्वानों को भी अंग्रेजी नववर्ष का विरोध कर पंथ निरपेक्ष भारतीय कैलेण्डर के प्रचलन के लिए आंदोलन करना चाहिए।
बहरहाल, खुद से सवाल कीजिए कि अपने नववर्ष को भूल जाना कहां तक उचित है? अगर भारतीयपन बचा होगा तो निश्चित ही आप जरा सोचेंगे। यह भी सोचेंगे कि वास्तव में उत्सव के रंग एक जनवरी के नववर्ष में दिखते हैं या फिर चैत्र शुक्ल पक्ष प्रतिपदा में। उत्सव मनाने का तरीका पाश्चात्य का अच्छा है या भारत का? कब तक गुलामी के प्रतीकों को गले में डालकर घूमेंगे? अब अपने मूल्यों, अपनी संस्कृति, अपनी पहचान और अपने ज्ञान-विज्ञान को दुनिया में स्थापित करने का वक्त आ गया है।
संपर्क
लोकेन्द्र सिंह
Makhanlal Chaturvedi National University Of
Journalism And Communication
B-38, Press Complex, Zone-1, M.P. Nagar,
Bhopal-462011 (M.P.)
Mobile : 09893072930
www.apnapanchoo.blogspot.in