आपको ज्ञात ही है कि औसत भारतीय अधीनस्थ न्यायालय एक वर्ष में मात्र 1142 प्रकरणों का निपटान करता है और बकाया मुकदमों का भारी अम्बार बढ़ता जा रहा है| जबकि विद्यमान परिस्थतियों, साधनों और संसाधनों के सदुपयोग से इससे अधिक मुकदमों में निर्णय दिया जा सकते हैं| वर्तमान में न्यायालयों को वार्षिक निपटान के लिए दिए जाने वाले लक्ष्य ही बहुत कम रखे जाते हैं और न्यायाधीश इस लक्ष्य से आगे बढना उचित नहीं समझते क्योंकि उच्च अधिकारीयों द्वारा इसे प्रतिकूल दृष्टि से देखा जाता है| मेरे धयन में एक ऐसा मामला आया है जहां न्यायाधीश ने लक्ष्य से 6 गुणा कार्य किया जिसे राज्य उच्च न्यायालय ने संदेहस्पद माना और सम्बंधित न्यायाधीश की गोपनीय रिपोर्ट में प्रतिकूल टिपण्णी अंकित की जबकि उसी न्यायाधीश को राज्य के बाहर के उच्च न्यायालय ने सबसे अच्छा न्यायाधीश माना है |
हाल ही में प्रकशित समाचार के अनुसार मुजफ्फरनगर जनपद के परिवार न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश तेजबहादुर सिंह ने बताया कि उन्होंने जनपद में 17 अगस्त 2015 को पद भार ग्रहण किया था। न्यायाधीश सिंह ने बताया कि जब उन्होंने पद भार ग्रहण किया था, उस समय न्यायालय में 6,232 वाद लम्बित थे। वहीं, 31 मार्च 2017 तक 3,563 वाद और दायर किये गये और इस वर्ष के 31 मार्च को अदालत में3,730 वाद लम्बित हैं। अर्थात् इस समय में न्यायाधीश ने 6,065 वादों का निस्तारण किया है।
जब उक्त न्यायाधीश उक्त निपटान दे सकते हैं तो फिर अन्य क्यों नहीं ? तदनुसार यदि उक्त संख्या स्तर तक एक सामान्य न्यायाधीश मामले नहीं निपटा सके तो भी न्यायाधीशों के लिए प्रति वर्ष विद्यमान लक्ष्यों को बढाकर प्रति न्यायाधीश न्यूनतम 2000 अवश्य किया जावे ताकि इस लोकतंत्र का कल्याण हो सके|
सादर ,
मनीराम शर्मा
एडवोकेट
सरदारशहर