श्री अनुपम मिश्र जी कागज़ से लेकर ज़मीन तक पानी की अनुपम इबारतें लिखने वाली शख्सियत थे। उनकी देह के पंचतत्वों में विलीन जाने की तिथि होने के कारण 19 दिसम्बर हम सभी पानी कार्यकर्ताओं तथा लेखकों के लिए खास स्मरण की तिथि है। किंतु अनुपम संबंध में 22 दिसम्बर का भी कोई महत्व है; यह मुझे ज्ञात न था। मैं, श्री अनुपम मिश्र के जन्म की तिथि भी पांच जून को ही जानता था। बाद में पता चला कि पांच जून तो सिर्फ स्कूल में लिखा दी गई तिथि थी। श्री अनुपम मिश्र का जन्म असल में 22 दिसम्बर, 1947 को वर्धा के महिला आश्रम में हुआ था। गांधी स्मृति एवम् दर्शन समिति, नई दिल्ली ने बीते 22 दिसम्बर, 2017 दिन शुक्रवार को ’अनुपम व्याख्यान’ का प्रथम आयोजन कर यह ज्ञान कराया। सोने पर सुहागा यह कि प्रथम अनुपम व्याख्यान का एकल वक्ता खुद हिमालय को बनाया। विषय रखा – ”हिमालय: बदलते हालात में हमारी संवेदना की कसौटी”। हिमालय का प्रतिनिधि बन पधारे श्री चंडीप्रसाद भट्ट जी।
सब ओर अनुपम छाप
स्थान: गांधी स्मृति एवम् दर्शन समिति के राजघाट परिसर का सत्याग्रह मण्डप। व्याख्यान का समय पहले से तय था और चाय-पकौडों पर मुलाकातों का भी। मैं पांच बजने से दो मिनट पहले ही पहुंच गया। मेज पर गांधी शांति प्रतिष्ठान द्वारा प्रकाशित ‘गांधी मार्ग’ के अनुपम विशेषांक की प्रतियां सजी थीं। ’गांधी मार्ग’ श्री अनुपम मिश्र के संपादन का अनुपम नमूना है। ‘गांधी मार्ग’ पत्रिका के प्रबंधक श्री मनोज मिश्र ने मण्डप के द्वार पर ही हाथ थाम लिए। पंजीकरण पत्र पर संपर्क विवरण भरा। मण्डप के भीतर गया, तो दूर खडे़ बसंत जी ने आगे बढ़कर इतनी गर्मजोशी से स्वागत किया कि अपने हर कार्यक्रम में प्रवेश द्वार पर हाथ जोड़कर हर आते-जाते का विनम्र स्वागत करते श्री अनुपम मिश्र याद आ गये।
मंच पर निगाह गई। एक छोर से दूसरे छोर तक अनुपम ही अनुपम।
”सैकड़ों, हज़ारों, तालाब अचानक शून्य से प्रकट नहीं हुए थे।
इनके पीछे एक इकाई थी बनवाने वालों की, तो दहाई थी बनाने वालों की।
यह इकाई, दहाई मिलकर सैकड़ा, हज़ार बनाती थी।
पिछले दो सौ बरसों में नए किस्म की थोड़ी सी पढ़ाई पढ़ गये समाज ने इस इकाई, दहाई, सैकड़ा, हज़ार को शून्य ही बना दिया।”
बाईं ओर अनुपम जी की भाषा, भाव और लोकज्ञान की खास पहचान बने ये शब्द, तो दाईं ओर ‘आज भी खरे नहीं है तालाब’ केे कवर पर छपी सीता बावड़ी। बीच में श्री अनुपम मिश्र का एक विशाल चित्र। चित्र में आंखें कुछ पनीली, किंतु इतनी जीवंत, जैसे अभी झपक उठेंगी। एक चित्र पोडियम पर। अनुपम हाथों में कलम की जगह छतरी; मानो बारिश से दोस्ती करने निकले हों। अभी गिनती के बीस लोग ही दिख रहे थे; फिर भी आशंका का कोई कारण न था। छह बजते-बजते मण्डप विशाल अनुपम परिवार से भर गया। इस परिवार में दक्षिणपंथी भी थे और ठेठ वामपंथी भी। गांधी विचार के चाहने वाले तो खैर थे ही।… सभी के जुटते ही गूंज उठी श्री अनुपम मिश्र के पुत्र शुभम की बांसुरी। धुन पर बोले थे: ‘वैष्णव जन तो तेने कहिए’ और ‘रघुपति राघव राजाराम..।’
हर वर्ष आयोजित होगा अनुपम व्याख्यान
क्रम आगे बढ़ा। गांधी स्मृति एवम् दर्शन समिति के निदेशक श्री ज्ञान ने आयोजन की पृष्ठभूमि रखी। ’अनुपम व्याख्यान’ को हर वर्ष आयोजित करते रहने का इरादा जताया और भविष्य में इस मौके पर पानी पर काम करने वाले कार्यकर्ताओं और लेखकों को सम्मानित करने के विचार पर सहमति ली।
अपने-अपने गांधी की तलाश ज़रूरी
भाषा के धनी श्री सोपान जोशी मंच पर आये; अपने खास अंदाज़ में विषय और वक्ता का परिचय रखा। वर्ष 1972 में दिल्ली की गांधी निधि में श्री चण्डीप्रसाद भट्ट जी और अनुपम की हुई प्रथम मुलाकात का किस्सा सुनाया। चिपको आंदोलन में अनुपम उपस्थिति का एक तरह से उद्देश्य बताते हुए उन्होने अनुपम जी के एक खास कथन का जिक्र किया।
”सिर्फ गांधी जी का नाम जपने से काम नहीं चलेगा।
हमें अपने-अपने गांव.. मोहल्ले में अपने-अपने गांधी तलाशने पड़ेंगे।”
अनुपम के अपने गांधी
फिर वह क्षण आया, जब मंच पर पधारे श्री अनुपम मिश्र के तलाशे हुए अपने गांधी – श्री चण्डीप्रसाद भट्ट। हिमालय सा ऊंचा कद। बदन पर बकरी के ऊन का बना भूरे रंग का लंबा कोट और गर्म पायजामा। ज्ञान बूझें तो एकदम ज़मीनी। कद देखें तो हिमालय जैसा। यश पूछें तो चिपको आंदोलन से उपजी जनचेतना सरीखा सतत् सक्रिय और विद्यमान। व्यवहार इतना सरल व ग्राह्य, जितना अनुपम साहित्य। बोले तो विनम्रता ऐसी कि भट्ट जी ने अनुपम जी को पुष्प और स्वयं को पुष्प में बसा ऐसा कीड़ा बताया, जिसे पुष्प के साथ-साथ अनजाने में सम्मान मिल जाता है। हिमालय की चुनौतियों को सामने रखा, तो पहाड़ के प्रति उन गांववासियों की संवेदना व समझ का गहरा परिचय दे गये, नई पढ़ाई पढ़ गये अनेक लोग जिसकी उपेक्षा करने में आज भी नहीं चूकते। हालांकि उपस्थित जन ने ऐसा नहीं किया। उपस्थित जन ने भट्ट जी के आगमन पर खड़े होकर इस संवेदना व समझ के प्रति अपना सम्मान प्रस्तुत किया।
लोक की हिमालयी संवेदना
श्री भट्ट ने कहा – ”गांव के लोग वन और पानी के रिश्ते को जानते हैं। खेती-बाड़ी में नमी का महत्व जानते थे। जानते थे कि जंगल बढ़ाये बगैर पानी का इंतजाम नहीं हो सकता। पहाड़ में सितम्बर से पहले पुष्प तोड़ना मना था। कहते थे कि वनदेवी तुम्हे हर लेगी। इस तरह पेड़ का हर अंग बचाते थे। बुग्याल और चौड़े पत्ते के पेड़.. ये दोनो ही जल भण्डारण का काम करते हैं। किंतु आज पहाड़ पर कई तरह के दबाव हैं। भौतिक दबाव, बाज़ार का दबाव। जैसे कीड़ाजड़ी का बाज़ार इतना बढ़ गया है कि क्या बतायें।’
परम्परागत स्थापत्य कला की अनदेखी नुकसानदेह
”पहाड़ में 1950, 1987, 1990 में भी भूकम्प आये। लेकिन मौतें इतनी नहीं हुई। क्यों ? क्योंकि लोग परम्परागत तरीके से लकड़ी के मकान बनाते थे। रैथाल गांव में 400 साल पुराने मकान है। लोगों की स्थापत्य कला ने उनका जीवन बचाया। अब पहाड़ में भी पक्के मकान बन रहे हैं। कहते हैं कि बद्रीनाथ मंदिर को कुछ नहीं हुआ। बनाने वालों ने उसका स्थान ऐसा चुना। देखें तो उन्होने नारायण पर्वत के ठीक नीचे मंदिर बनाया। अब नदी किनारे उससे सटकर घर बन रहे हैं। तथाकथित विकास के नाम पर पहाड़ तोड़े जा रहे हैं। हिमाद्रि क्षेत्र में परियोजनायें चल रही हैं। क्रेसर जा रहे हैं। 2013 में आपदा सिर्फ केदारनाथ मंदिर क्षेत्र में नहीं आई। हिमाचल प्रदेश और उत्तराखण्ड के चार-चार ज़िले दुष्प्रभावित हुए। इस क्षति में मानवीय हस्तक्षेप कितना था; सोचना चाहिए। आज उत्तराखण्ड चारधाम में 20 हज़ार व्यक्ति प्रति दिन आ रहे हैं। लोगों को सावधान किया जाना चाहिए।”
हिमालयी देशों का संयुक्त प्राकृतिक मोर्चा बने
श्री चण्डीप्रसाद भट्ट जी ने चेताया कि लोगों को नहीं भूलना चाहिए कि भारत की आठ प्रमुख नदी घाटियों में गंगा, ब्रह्मपुत्र और सिंधु नदी का भू-भाग काफी विशाल है। अकेले गंगा का भू-भाग ही कुल भू-भाग का 26 प्रतिशत है। अतः हिमालय मेें जो कुछ होगा, उसका असर भारत भर में होगा। नेपाल में कुछ होगा, तो कोसी में उसका असर दिखेगा। कोसी के रूट बदलने की बात आपको याद होगी।…. जब आपदा आ जाती है, तब हम राहत लेकर जाते हैं। हम पहले ही चेत जायें, तो बेहतर होगा। जब आपदा आती है, तो हम अध्ययन करते हैं, जबकि जो अध्ययन पहले हो चुके, उन्हे साइड में रख देते हैं। लोगों को बुग्यालों, तालों, झीलों आदि के बारे में विज्ञान सम्मत जानकारी दी जानी चाहिए। भारत, चीन, नेपाल और भूटान को मिलाकर हिमालय हेतु संयुक्त प्राकृतिक मोर्चा बनना चाहिए।
चिपको को आवाज़ देने में महिलायें थी आगे
श्री भट्ट ने चिपको आंदोलन का भी स्मरण किया। वह बोले – ”मुझे याद है। अंग्रेज विल्सन ने जंगल खरीद लिया था। विल्सन ने ही हरसिल में लकड़ी के लट्ठों को नदी के जरिए ट्रांसपोर्ट करना शुरु किया था। फिर यह सिलसिला अन्य जगह भी बढ़ा।……20 जुलाई, 1970 को अलकनंदा में बाढ़ आ गई। हमने देखा कि जहां-जहां पेड़ काटे गये। वहां ज्यादा भू-स्खलन हुआ। वहीं से सिल्ट ज्यादा आई और नदी बौखला गई। परिणामस्वरूप कई गांव, पुल और सड़कें बह गईं। जनवरी, 1974 में प्रशासन ने रैणी गांव के निकट क्षेत्र के 2500 पेड़ों का ठेका दे दिया। रैणी गांव से शुरु संघर्ष की कथा आप सब जानते हैं।….शिविर लगा, तो अनुपम भी उसमें आये। वन जागे, वनवासी जागे। अलकनंदा में बाढ़ नहीं आने देना चाहते हैं। शिविर में नौजवानों को ऐसे स्पष्ट संदेश देने की कोशिश की गई। एक ओर सत्याग्रह चला, तो दूसरी ओर पहाड़ों को हरा-भरा करने का काम किया। बोलने का हक़ मुख्य रूप से महिलाओं को दिया.. क्योंकि पहाड़ में महिलाएं ही मुख्य काम देखती हैं; घर-बाहर सब जगह। अनुपम जी अपने लिए वह काम चुनते थे, जो सबसे कठिन हो। यूं बड़े, दीवार बनाते थे और बच्चे, पेड़ लगाते थे।”
अनुपम, चिपको की प्रसार शक्ति थे
श्री भट्ट जी ने अपनी प्रस्तुति में अनुपम जी के पुत्र शुभम की पेड़ लगाते हुए तसवीर भी दिखाई। उन्होने बताया कि मसले को लेकर वह उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री कमलापति त्रिपाठी के पास गये, तो उनके साथ क्या अपमानजनक व्यवहार हुआ। लखनऊ से दिल्ली लौटे, तो कैसे गांधी निधि में अनुपम जी से मुलाकात और चर्चा हुई। उन दिनों श्री रघुवीर सहाय, दिनमान पत्रिका के संपादक थे। अनुपम से भट्ट जी को श्री सहाय से मिलवाया और अपनी व्यथा रखने को कहा। इस मुलाकात का लाभ यह हुआ कि दिनमान में हिमालय की चिंता पर एक पूरा विशेषांक निकला। चिंता ज्यादा लोगों तक पहुंची। बकौल श्री भट्ट जी, विशेषांक का सबसे बड़ा लाभ यह हुआ कि उनके लोगों को भरोसा हुआ कि वह यदि आगे कोई आंदोलन करेंगे, तो आवाज़ दबेगी नहीं।
चिपको-अनुपम संबंध के नज़दीकी साझेदार रहे पत्रकार बनवारी जी ने अपने धन्यवाद ज्ञापन में इस भरोसे की तसवीर को और साफ किया। व्याख्यान के समापन पर लोगों ने फिर एक बार खडे़ होकर हिमालयी संवेदना के प्रति अपने सम्मान का इजहार किया। समापन में भोजन था; अनुपम जी की तरह ही सादा। पूड़ी, एक सब्जी, खीर और लड्डू।
इस तरह सम्पन्न हुआ गांधी स्मृति एवम् दर्शन समिति द्वारा नियोजित ‘प्रथम अनुपम व्याख्यान’ का आयोजन; कुछ चेताता हुआ; कुछ चुनौती देता हुआ…..
”अनुपम तो गये। अब हम उन्हे अनुपम बनाने वाली संवेदनाओं और मूल्यों को संजो सकें, तो समझें कि हम पर कुछ छाप अनुपम है।”
अरुण तिवारी
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