विगत 29 जुलाई को नव्य ‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020’ की घोषणा के साथ ही उसमें सम्मिलित बिंदु – पांचवी कक्षा तक मातृभाषा माध्यम में शिक्षण पर चर्चा जोर पकड़ रही है। मातृभाषा को मां की तरह चाहने वालों के चेहरों पर मुस्कान आ गई है, वहीं पश्चिम को सभ्यता के विकास का मूल मानने वाले हैरत प्रकट कर रहे हैं कि भला अंग्रेजी बिना विकास कहां और कैसे संभव है। अभी हाल में आयुष मंत्रालय द्वारा आयोजित आयुष सचिव के हिंदी के प्रति आग्रह ने दक्षिण की राजनीति में हिंदी के विरोध की हलचल प्रारंभ कर दी है। तमिलनाडु के डीएमके की नेता कनीमोझी से लेकर कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री एच. डी. कुमारस्वामी हिंदी विरोध का बिगुल फूँकने में जुट गए हैं।
सत्रहवीं शताब्दी के प्रारंभ में ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा दिए गए अंग्रेजी के मकड़जाल ने न केवल अभिजात्य, अपितु भारत के अधिकांश बौद्धिक वर्ग को अपने चंगुल में जकड़ रखा है। ऐसे बहुत से लोगों के लिए यह प्रश्न सोचने को मजबूर कर रहा है कि वास्तव में बिना अंग्रेजी भविष्य की शिक्षा की दिशा व दशा क्या होगी। उनका मानना है कि अंग्रेजी अंतर्राष्ट्रीय भाषा है। विश्व का अधिकांश वैज्ञानिक तथा आधुनिक ज्ञान इसी भाषा में उपलब्ध है, इसी भाषा में सृजित हो रहा है तथा भविष्य में भी इसी भाषा में सृजित व उपलब्ध होगा। भारत में ऐसे लोग जो धाराप्रवाह अंग्रेजी बोल लेते हैं, केवल लगभग 4% के आसपास हैं। लगभग 5 करोड लोगों में से अधिकांश 1986 की शिक्षा नीति के पश्चात अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों के जाल की देन हैं। 1986 की शिक्षा नीति के पश्चात स्थापित अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों से पूर्व धारा प्रवाह अंग्रेजी बोलने वालों का यह प्रतिशत एक से डेढ़ के आसपास था, जो लगभग एक करोड़ बैठता था।
पहला प्रश्न यही उठता है कि क्या हम अंग्रेजी के बिना विकास पथ पर अग्रसर रह सकेंगे। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि एशिया के विकसित देशों यथा चीन, दक्षिण कोरिया, जापान व इजरायल की अपेक्षा भारत के पिछड़ने का कारण यहां के अभिजात्य वर्ग का अंग्रेजी मोह ही है। उक्त चारों देशों की विज्ञान, अभियांत्रिकी तथा अर्थव्यवस्था के विकास केंद्र में अंग्रेजी ना होकर, वहाँ की मातृभाषाएँ हैं। इन सभी देशों के छात्र अंग्रेजी माध्यम में अध्ययन के लिए विवश नहीं किए जाते हैं, अपितु वे अपनी मातृभाषा में सहजता से ज्ञान प्राप्त करते हैं। इसके ठीक विपरीत भारत के बच्चे विज्ञान विषयों को ठीक ढंग से सीखने के लिए अंग्रेजी से जूझते नजर आते हैं। अंग्रेजी के पक्षधरों को यह जान लेना चाहिए कि जिस यूरोप में स्थित इंग्लैंड की भाषा अंग्रेजी उन्हें आकर्षित करती है, उस इंग्लैंड द्वीपसमूह से इतर संपूर्ण यूरोप की मुख्य भूमि पर अंग्रेजी को कोई स्थान प्राप्त नहीं है। एनकार्टा इनसाइक्लोपीडिया के अनुसार सर्वोच्च प्रति व्यक्ति सकल राष्ट्रीय उत्पाद वाले 20 देशों की सूची में केवल 3 देश अमेरिका, इंग्लैंड तथा आस्ट्रेलिया ही अंग्रेजी उपयोग में लाने वाले देश हैं, जबकि शेष 17 देश अपनी अपनी मातृभाषाओं का उपयोग करते हैं। इसके ठीक विपरीत सबसे निचले पायदान पर स्थित प्रति व्यक्ति सकल राष्ट्रीय उत्पाद वाले सभी 20 देश विदेशी भाषाओं यथा अंग्रेजी, अरबी, फ्रेंच और पुर्तगाली आदि भाषाओं को उपयोग में लाते हैं।
मातृभाषा के महत्व को समझने के लिए हमें इजरायल के उदाहरण से सीख लेनी चाहिए। द्वितीय विश्व युद्ध के समापन पर संयुक्त राष्ट्र संघ की पहल पर 1947 में विश्व भर में निवास कर रहे यहूदियों को अपना स्वयं का देश इजरायल स्थापित करने का अवसर प्राप्त हुआ। 700 ईसा पूर्व असीरियाई साम्राज्य के हमले ने यहूदी कबीलों को तितर-बितर कर दिया था। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जर्मनी के मुखिया हिटलर ने योजनाबद्ध तरीके से लगभग साठ लाख यहूदियों की हत्या कराई। स्थापना के समय यहूदियों की जनसंख्या मात्र लगभग 20 लाख थी। उनकी कोई अपनी एक भाषा नहीं थी। विश्व के अलग-अलग देशों में अधिवास के कारण वे अंग्रेजी, जर्मन, फ्रेंच व स्पेनिश आदि भाषाओं के अभ्यस्त थे।
मात्र 20 लाख की जनसंख्या ने न केवल अपनी पुरातन धार्मिक भाषा हिब्रू को पुनर्जीवित किया, अपितु विश्व का आधुनिकतम ज्ञान विश्व की सारी आधुनिक भाषाओं से अपनी भाषा में निरंतर अनुदित करने की व्यवस्था की है। वर्तमान में हिब्रू भाषाईयों की जनसंख्या लगभग 1 करोड़ है, जो 80 करोड़ हिंदी भाषियों की तुलना में बहुत छोटी है। लेकिन उपलब्धियों की दृष्टि से इजरायल का स्थान कहाँ है, आप स्वयं अनुमान लगा सकते हैं। भारत में भी मातृभाषा के महत्व से सम्बन्धित अनेकों उदाहरण उपलब्ध हैं। महान गणितज्ञ श्रीनिवास रामानुजन से लेकर मिसाइल मैन एपीजे अब्दुल कलाम सहित अनेक वैज्ञानिक मातृभाषा में प्रारंभिक अध्ययन की देन हैं। पटना में सुपर-30 के संस्थापक आनंद कुमार ने मातृभाषा माध्यम में शिक्षित, वंचित वर्ग के छात्रों को ऊँचाइयों तक पहुंचाकर मातृभाषा के महत्व को सिद्ध कर दिया है। सुविख्यात टेक्नोक्रेट संक्रात सानु ने अपनी पुस्तक ‘अंग्रेजी माध्यम का भ्रमजाल’ में मातृभाषा के महत्व को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर किए गए शोध द्वारा सिद्ध किया है।
स्वतंत्रता से पूर्व हिंदी का विकास कठिन परिस्थिति होने के बाबजूद भी सुचारू रूप से संभव हो सका। 1893 में नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना के साथ ही हिंदी के उपयोग ने गति पकड़ी। 1918 में दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा की स्थापना के साथ ही हिंदी संपूर्ण राष्ट्र की सम्पर्क भाषा के रूप में पल्लवित में होने लगी। किंतु 1935 के भारत सरकार अधिनियम के उपरांत होने वाले चुनाव की पृष्ठभूमि में हिंदी के विकास चक्र की गति को कुटिल राजनीति ने रोक दिया। 1936 में महाराष्ट्र के नागपुर में राष्ट्रभाषा प्रचार समिति की स्थापना के साथ ही राष्ट्रभाषा शब्द की आड़ में फारसी लिपि में लिखी जाने वाली उर्दू को हिंदी की प्रबल प्रतिद्वंदी बना दिया गया। हिंदी-ऊर्दू की इस लड़ाई में दक्षिण भारतीयों में भ्रम की स्थिति उत्पन्न हुई, परिणामस्वरूप राजकाज की भाषा के रूप में दक्षिण भारतीय हिंदी के स्थान पर अंग्रेजी की ओर आकर्षित होने लगे। भाषा द्वेष को राजनीतिज्ञों द्वारा मिले प्रोत्साहन के कारण संविधान निर्माण के समय अंग्रेजी भारतीय शासन प्रणाली पर कुंडली मारकर बैठ गई।
स्वतंत्रता पश्चात अभिजात्य वर्ग के अंग्रेजी प्रेम के बावजूद, संख्या में सीमित होते हुए भी हिंदी अनुरागियों ने हिंदी के लिए निरंतर संघर्ष जारी रखा। किंतु 1986 में 21वीं सदी की ओर चलने का नारा लगाकर शिक्षा नीति में परिवर्तन कर पूरे देश में केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा परिषद (सीबीएसई) के झंडे तले अंग्रेजी माध्यम के विशुद्ध व्यावसायिक विद्यालयों का जाल बिछा दिया गया। खेदजनक यह है कि इस सब कुचक्र को विकास का मार्ग तो बताया गया, किंतु ग्रामीण क्षेत्र की लगभग 80 करोड़ आर्थिक रूप से कमजोर जनता को विकास से वंचित कर दिया गया। शिक्षा के भाषाई माध्यम के इस घटाटोप अंधकार में यह नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020, आशा की एक किरण के रूप में प्रकट हुई है। एक बार फिर भारत के बच्चे प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में ग्रहण करने की सुविधा प्राप्त करने जा रहे हैं। इसी के साथ हिंदी अनुरागियों के दायित्व और चुनौतियाँ भी बहुत बड़ी हो गई हैं।
आज आवश्यकता हो गई है कि उन्नीसवीं सदी के पांचवें दशक में इजरायल के मात्र 20 लाख यहूदियों की भांति करोड़ों हिंदी व अन्य भारतीय भाषा भाषी अपनी अपनी मातृभाषाओं में आधुनिकतम ज्ञान को अभियान के रूप में परिवर्तित करें। भाषाई द्वेष को समाप्त करने के लिए हिंदी भाषियों के मध्य अन्य भारतीय भाषाओं को सीखने की प्रवृत्ति होनी चाहिए और साथ ही समस्त भारतीय भाषाओं को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार कर हिंदी को एकमात्र राष्ट्रभाषा बनाने के असंभव प्रयास के स्थान पर उसे एकमात्र राष्ट्रीय संपर्क भाषा के रूप में विराजित करने का यत्न करना चाहिए। आशा की जा सकती है कि आने वाले भविष्य में मातृभाषा में शिक्षा से हमारा गौरवपूर्ण राष्ट्र विकास की ऊँचाइयों पर अवश्य पहुँचेगा।
(लेखक ”राष्ट्रवादी लेखक संघ’ के राष्ट्रीय संयोजक हैं।)