भोपाल। सांसद श्री सत्यव्रत चतुर्वेदी की अध्यक्षता में ‘विदेश नीति में हिन्दी’ विषय पर आज दूसरे दिन संयुक्त राष्ट्र संघ में अवर महासचिव श्री अतुल खरे और श्री सत्यव्रत चतुर्वेदी ने विचार व्यक्त किये।
श्री अतुल खरे ने कहा कि यह गलत धारणा है कि हिन्दी एक अविकसित भाषा है जिसमें राजनय सहित अनेक विषयों की अभिव्यक्ति की क्षमता नहीं है। इस धारणा को दूर करना होगा। उन्होंने कहा कि हिन्दी बोलने और लिखने में सामाजिक संकोच भी एक बड़ी बाधा है। लोगों को लगता है कि वे हिन्दी बोलने में वे गलती करेंगे। हमें बोलना शुरू करना चाहिए, धीरे-धीरे गलतियाँ भी सुधरने लगेंगी। हिन्दी की पुस्तकें अधिक से अधिक देशों में दूतावासों के माध्यम से पहुँचायी जानी चाहिए। उन्होंने कहा कि समक्षणिक अनुवाद में वाक्यविन्यास आदि की समस्याएँ हैं जिन्हें अभ्यास से दूर किया जा सकता है।
सासंद श्री सत्यव्रत चतुर्वेदी ने कहा कि व्यक्ति को अधिक से अधिक भाषाएँ सीखने का प्रयास करना चाहिए जिससे उसका बौद्धिक और मानसिक क्षितिज विकास विकसित होता है। फिर भी अपनी हिन्दी भाषा के प्रति हमारा विशेष आग्रह होना चाहिए। लोकतंत्र में लोक और तंत्र के बीच बेहतर जीवंत संवाद हमारे देश की भाषा में ही संभव है। भारत में हिन्दी लिखने, पढ़ने और समझने वाले लोगों की संख्या लगभग 70 प्रतिशत है, जबकि अंग्रेजी सिर्फ 2 प्रतिशत लोग हिन्दी जानते हैं। यह दुर्भाग्य की बात है कि 1963 में राजभाषा कानून लागू होने के 52 वर्ष बाद भी हम हिन्दी में कामकाज करना नहीं सीख पाये हैं।
श्री चतुर्वेदी ने यह तथ्य उजागर किया कि भारत सरकार के संस्थान दक्षिण भारत में हिन्दी में ज्यादा काम कर रहे हैं जबकि उत्तर भारत में इसके प्रति वांछित गंभीरता नहीं है। विदेश मंत्रालय की बुनियाद ही अंग्रेजी पर रखी गयी। यह स्थिति कमोवेश आज भी चल रही है। विदेश मंत्रालय में अब हिन्दी का प्रयोग थोड़ा बहुत होने लगा है लेकिन अंग्रेजी मानसिकता आज भी हावी है।
भारत की विदेश नीति में हमारे जनमानस की भावना को पर्याप्त स्थान देना होगा। उन्होंने कहा कि पासपोर्ट मेनुअल आज भी अंग्रेजी में है। पासपोर्ट में प्रविष्टियाँ सिर्फ अंग्रेजी में होती हैं। उन्होंने कहा कि हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषा बनाने में एक बड़ी बाधा वित्तीय खर्च की थी जिसे वहन करने में भारत अब समर्थ है। दूसरी बाधा सदस्य देशों में से दो-तिहाई का समर्थन प्राप्त करने की थी, जिसे दूर करने के लिए विदेशों में स्थित दूतावासों द्वारा प्रयास किया जाना चाहिए।