आज हिंदी दिवस है, लेकिन मेरे लिए यह उत्सव का नहीं, आत्मचिंतन और आत्मनिरीक्षण का दिन है. आज ही के दिन सन् 1949 को संविधान सभा की बैठक हुई थी, जिसमें बहुत लंबे विचार-विमर्श के बाद सर्वसम्मति से यह प्रस्ताव पारित किया गया था कि स्वतंत्र भारत की राजभाषा हिंदी होगी. आज की पीढ़ी के लिए कदाचित् इस बात पर विश्वास करना कठिन होगा कि इस बैठक में हिंदी को राजभाषा बनाने का प्रस्ताव प्रसिद्ध तमिल विधिविशेषज्ञ गोपालस्वामी आयंगर ने रखा था. इस प्रस्ताव के अनुरूप 26 जनवरी, 1950 से हिंदी भारतीय संघ की प्रमुख राजभाषा बन गई. भारतीय संघ के तीन प्रमुख अंग हैं, कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका, किंतु तीन ऐसी मूलभूत आवश्यकताएँ थीं, जिनके कारण 15 वर्ष तक अंग्रेज़ी को सह राजभाषा बनाये रखने पर भी संविधान सभा में सहमति हो गई थी. कदाचित् लोकतंत्र का यही तकाज़ा है कि सभी निर्णय बहुमत से ही लिये जाएँ. साथ ही भारत एक बहुभाषी देश हैं, जिसमें अत्यंत विकसित 22 भारतीय भाषाएँ भी हैं. इन सभी भाषाभाषियों को साथ लेकर ही राजभाषा का प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित किया जा सकता था और इन सदस्यों की राय में तीन ऐसी मूलभूत आवश्यकताएँ थीं, जिनकी पूर्ति के बिना भारतीय संघ के तीन प्रमुख अंगों अर्थात् कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका का संपूर्ण कार्य राजभाषा के रूप में हिंदी में तत्काल नहीं किया जा सकता था. ये तीन मूलभूत आवश्यकताएँ थीं, प्रशासनिक, न्यायिक और विधायी कार्यों के लिए उपयुक्त पारिभाषिक शब्दावली के निर्माण की आवश्यकता, केंद्र सरकार के अधिकारियों और कर्मचारियों को हिंदी का कार्यसाधक ज्ञान प्रदान करने के लिए हिंदी प्रशिक्षण की आवश्यकता और सभी सांविधिक और असांविधिक प्रलेखों के प्रामाणिक पाठ को हिंदी में तत्काल सुलभ कराने की आवश्यकता.
इन आवश्यकताओँ की पूर्ति के लिए शब्दावली आयोग का गठन किया गया, जिसने सन् 1962 में समेकित हिंदी पारिभाषिक शब्दावली का निर्माण किया, न्यायिक प्रलेखों के हिंदी अनुवाद के लिए विधायी आयोग गठित किया गया, जिसने विधि शब्दावली का निर्माण किया, केंद्र सरकार के अधिकारियों और कर्मचारियों को हिंदी का कार्यसाधक ज्ञान प्रदान करने के लिए गृह मंत्रालय के अंतर्गत हिंदी प्रशिक्षण योजना शुरू की गई और असांविधिक व प्रक्रिया संबंधी अनुवाद-कार्य के लिए गृह मंत्रालय के अंतर्गत केंद्रीय अनुवाद ब्यूरो बनाया गया. इसी विधि मंत्रालय के अंतर्गत सांविधिक प्रलेखों के अनुवाद की व्यवस्था की गई. इन सभी कार्यों को संपन्न करने के लिए 15 वर्ष का समय रखा गया. इस बीच अंग्रेज़ी को सह राजभाषा के रूप में जारी रखने का निर्णय किया गया ताकि स्वतंत्र भारत का सरकारी कामकाज विघिवत् चलता रहे.
तय तो यही हुआ था कि 15 वर्ष के बाद अर्थात् सन् 1965 से हिंदी भारतीय संघ की एकमात्र राजभाषा बन जाएगी, लेकिन इस बीच गंगा का बहुत पानी बह चुका था, स्थितियाँ बदल चुकी थीं, आज़ादी के समय राष्ट्रीयता का जो माहौल था, उसकी आँच भी धीमी पड़ गई थी. क्षेत्रीय आकांक्षाएँ पनपने लगी थीं, जिसकी पहली परिणति सन् 1953 में तब हुई जब तेलुगु भाषा के आधार पर आंध्र प्रदेश के निर्माण के लिए आंदोलन ज़ोर पकड़ने लगा और एक आंदोलनकारी रामुलु ने अपने प्राण भी न्यौछावर कर दिए. भारत सरकार को झुकना पड़ा और भाषिक आधार पर प्रांतों के पुनर्गठन के लिए आयोग गठित किया गया. इसकी परिणति मराठी और गुजराती के आधार पर महाराष्ट्र और गुजरात राज्यों के निर्माण के रूप में हुई. इस प्रक्रिया का प्रभाव भाषा नीति और शिक्षा नीति पर पड़ना भी लाज़मी था और सन् 1968 में संसद के दोनों सत्रों में पूर्ण बहुमत से एक संकल्प पारित किया गया. इस संकल्प का प्रमुख निर्णय त्रिभाषा सूत्र था अर्थात् Three language Formula. त्रिभाषा सूत्र शिक्षा नीति से संबंधित था, जिसके अनुसार यह अपेक्षा की गई थी कि अहिंदीभाषी राज्यों में क्षेत्रीय भाषा के अलावा हिंदी और अंग्रेज़ी की भी पढ़ाई होगी. तमिलनाडु को छोड़कर सभी दक्षिणी राज्यों में यह फ़ार्मूला पूरी ईमानदारी से लागू किया गया. हिंदी भाषी प्रदेशों से यह अपेक्षा थी कि वे हिंदी और अंग्रेज़ी के साथ क्षेत्रीय भाषा के अध्ययन की व्यवस्था भी करेंगे, लेकिन इन प्रदेशों ने इस फ़ार्मूले का कदाचित् यही अर्थ समझा कि पहली हिंदी, दूसरी हिंदी और तीसरी भी हिंदी. इसके परिणाम स्वरूप इन प्रदेशों के छात्रों को अति-उत्साह के कारण अंग्रेज़ी के ज्ञान से भी वंचित कर दिया गया. शुरू में वाह-वाही भी मिली, कई दलों ने इसी मुद्दे पर भारी मतों से चुनाव भी जीते, लेकिन रोज़गार के क्षेत्र में अंग्रेज़ी का बोलबाला होने के कारण इन तमाम राज्यों में बेरोज़गारी का समस्या दिन-ब-दिन गहराती गई. ये छात्र हिंदी अनुवादक, हिंदी अधिकारी और हिंदी पत्रकार बनने के भी पात्र नहीं पाए गए. गहरी निराशा के कारण लालू प्रसाद यादव जैसे हिंदी के प्रबल समर्थकों ने भी सत्ता में आने के बाद अंग्रेज़ी को अनिवार्य़ भाषा के रूप में पढ़ाने की व्यवस्था करवाई ताकि उनके राज्यों के बच्चे प्रतियोगी परीक्षाओं में पीछे न रहें. लगभग सभी राज्यों में कमोबेश यही हालात रहे.
और अब तो आलम यह है कि सभी मज़दूर और किसान भी अपने बच्चों को हिंदी या कोई क्षेत्रीय भाषा सिखाने के लिए तैयार नहीं हैं. हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओं के माध्यम से चलने वाले सरकारी और अन्य स्कूलों में केवल वही बच्चे पढ़ रहे हैं, जिनके पास पर्याप्त साधन नहीं हैं. तथाकथित हिंदीप्रेमियों के नेता अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए विदेश भेज रहे हैं. इसी प्रकार के एक होनहार उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री के रूप में और दूसरे होनहार बिहार में उप मुख्यमंत्री के रूप में सत्ता में काबिज़ हैं.
अंग्रेज़ी आज भारत में मात्र विदेशी भाषा नहीं है, बल्कि आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की प्रमुख संवाहिका है. इल भाषा में इंटरनैट की लगभग 81 प्रतिशत विषय-वस्तु उपलब्ध है. क्या हम अपने बच्चों को इस ज्ञान से वंचित करना चाहते हैं? क्या भारत में आज यह संभव है कि बिना अंग्रेज़ी ज्ञान के इंजीनियरी, चिकित्सा और परमाणु विज्ञान जैसे विषयों की पढ़ाई की जा सके?
मैंने रेल मंत्रालय में निदेशक ( राजभाषा) के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान एक ही नारे का उद्घोष बार-बार किया था, जिसे चंद लोगों को छोड़कर लगभग सभी हिंदी प्रेमियों ने ज़मीनी सचाई के रूप में स्वीकार किया था. राष्ट्रीय शिक्षा नीति पर विचार करते समय भी मैंने इसी तथ्य को रेखांकित किया था, जिसके प्रसाद के रूप में मुझे काले अंग्रेज़ की उपाधि से विभूषित किया गया था, लेकिन आज भी मेरी यही मान्यता है…
“अंग्रेज़ी की आवश्यकता आकाश में उड़ने के लिए है तो हिंदी की आवश्यकता ज़मीन से जुड़े रहने के लिए है.”
हिंदी दिवस पर विचारार्थ
विजय