अभी-अभी मानवाधिकार दिवस बीता है। मानवाधिकार की कथित लड़ाई लड़ने वालों ने जोर-शोर से यह बताने की कोशिश कि उन्होंने उपेक्षित,दबे-कुचले और मानवीय अधिकारों से वंचित लोगों को उनके अधिकार दिलाने के लिए बड़े-बड़े आन्दोलन किए,लेख लिखे और उन्हें अपना हक दिलाया। पर उनके दावे कितने सही हैं,ये लोग किन लोगों के अधिकारों की बात करते हैं, यह जानने के बाद आप खुद ही कहेंगे कि कुछ लोग मानवाधिकार की आड़ में अपना स्वार्थ साध रहे हैं।
अपने यहां के मानवाधिकारवादी देश के किसी हिस्से में किसी आतंकवादी के मारे जाने पर उसके लिए भी मानवाधिकार की बात करने से नहीं हिचकिचाते हैं। ये लोग उन नक्सलियों के भी मानवाधिकार की बात करते हैं,जो कायरों की तरह छिप कर सुरक्षाकर्मियों पर हमला करते हैं। यही नहीं इस्रायल और फिलिस्तीन के बीच हुई लड़ाई में उग्रवादी संगठन हमास के किसी लड़ाके की मौत पर भी ये मानवाधिकारवादी हंगामा करते हैं। और तो और आतंकवादी गुट हिज्बुल्ला के किसी आतंकवादी के मरने पर भी ये लोग प्रदर्शन करते हैं। ये मानवाधिकारवादी बंगलादेश और म्यांमार से घुसपैठिए के रूप में भारत आए मुस्लिमों के मानवीय अधिकारों की भी बात करते हैं। उन्हें भारत की नागरिकता भी देने की बात करते हैं।
किन्तु इन लोगों ने कभी जम्मू-कश्मीर में रह रहे उन हिन्दुओं को नागरिकता दिलाने की बात नहीं की,जो 1947 में पाकिस्तानी कब्जे वाले कश्मीर से आकर बसे हैं। इतने वर्षों बाद भी इन हिन्दुओं को पूरी तरह मतदान का भी अधिकार नहीं मिला है। ये हिन्दू लोकसभा के चुनाव में तो वोट डाल सकते हैं,पर विधानसभा के चुनाव में वोट नहीं कर सकते हैं। 66 वर्ष बीत जाने के बावजूद इन हिन्दुओं को भारत की नागरिकता तक नहीं मिली है। क्या इससे भी बड़ा मानवाधिकार के उल्ल्घंन का कोई उदाहरण मिल सकता है? किन्तु इन हिन्दुओं की बात न तो कोई मानवाधिकारवादी करता है,न तो भारत की सेकुलर सरकार।
इन दिनों कुछ तथाकथित मानवाधिकारवादी मुजफ्फरनगर के उन शिविरों में जा रहे हैं, जिनमें मुस्लिम विस्थापित रह रहे हैं। किन्तु आज तक इन लोगों ने जम्मू-कश्मीर के उन करीब चार लाख हिन्दुओं की खोज-खबर नहीं ली, जो पिछले ढ़ाई दशक से अपने ही देश में शरणार्थी जीवन जी रहे हैं। जिहादी आतंकवाद के शिकार इन हिन्दुओं में से कुछ लोग अभी भी जम्मू के शरणार्थी शिविरों में रह रहे हैं। मानवाधिकारवादी इन हिन्दुओं की बात क्यों नहीं करते हैं? सवाल उठता है कि क्या हिन्दुओं के मानवाधिकार नहीं होते हैं? इनकी नजर में शायद नहीं। तभी तो ये लोग कभी भी हिन्दुओं के मानवाधिकार की बात नहीं उठाते हैं।
जो मानवाधिकारवादी बंगलादेश और म्यांमार के मुस्लिमों की बात करते हैं, वे पाकिस्तान और बंगलादेश के हिन्दुओं की बात क्यों नहीं करते हैं? उल्लेखनीय है कि पाकिस्तान और बंगलादेश में निरन्तर हिन्दुओं का दमन हो रहा है। कट्टरवादी तत्व हिन्दुओं को मुस्लिम बनाने पर तुले हुए हैं। जो हिन्दू ऐसा नहीं करते हैं उन पर अत्याचारों का पहाड़ टूट पड़ता है। हिन्दुओं की बहू-बेटियों को सरेआम उठा लिया जाता है। जबरन उन्हें मुस्लिम बनाया जाता है और किसी मुस्लिम युवक से निकाह कर दिया जाता है।
पाकिस्तान से मजबूरन भारत आए हिन्दू बताते हैं कि वहां हिन्दुओं को हमेशा निशाने पर रखा जाता है। छोटी-छोटी बातों को लेकर भी हिन्दुओं पर हमले किए जाते हैं। यहां तक कि यदि भारत क्रिकेट मैच में पाकिस्तान को हरा देता है तो पाकिस्तानी हिन्दुओं पर हमले किए जाते हैं। पाकिस्तानी हिन्दुओं के अनुसार यदि कोई हिन्दू मर जाता है तो उसके लाश को जलाने भी नहीं दिया जाता है। मुसलमान कहते हैं कि लाश जलाने से बदबू होती है इसलिए लाश को दफना दो। इसलिए वहां के हिन्दू अपने किसी परिजन के मरने पर रो भी नहीं पाते हैं। डर रहता है कि यदि रोए तो पड़ोस के मुस्लिमों को किसी के मरने की जानकारी हो जाएगी और वे आकर कहने लगेंगे कि चलो कब्र खोदो और लाश को दफना दो। ऐसा करने से मना करने पर हिन्दुओं के साथ मार-पीट शुरू कर दी जाती है।
इन सबसे बचने के लिए हिन्दू रात होने का इन्तजार करते हैं और गहरी रात होने पर अपने मृत परिजन का अन्तिम संस्कार कहीं दूर किसी नदी के किनारे कर आते हैं। लाश को आग के हवाले करने के बाद वे लोग वहां से भाग खड़े होते हैं, क्योंकि यह डर रहता है कि आग की लपटें देखकर मुसलमान आ धमकें और हिन्दुओं पर हमले न कर दें। पाकिस्तानी हिन्दू अपना कोई त्योहार भी खुलकर नहीं मना पाते हैं। मुस्लिम कहते हैं कि जो भी करना है अपने घर के अन्दर करो। बाहर त्योहार मनाना चाहते हो तो मुस्लिम बनो। होली,दीवाली या अन्य किसी पर्व के समय मुस्लिम लड़के मन्दिरों के बाहर खड़े रहते हैं और मन्दिर आने-जाने वालों को धमकी देते हैं कि मुसलमान बन जाओ और ये बुत-परस्ती छोड़ो वरना तुम लोगों को भी पाकिस्तान छोड़ना पड़ेगा। यही वजह है कि हाल के वषोंर् में बड़ी संख्या में पाकिस्तानी हिन्दू किसी भी तरह भारत आ रहे हैं। ये लोग यहां मानवाधिकारवादियों की हर चौखट पर हाजिरी लगाते हैं,अपनी पीड़ा बताते हैं,लेकिन ये मानवाधिकारवादी अपने मुंह पूरी तरह बन्द रखते हैं।
जो हाल पाकिस्तानी हिन्दुओं का है वही हाल बंगलादेशी हिन्दुओं का भी है,लेकिन उनके बारे में भी मानवाधिकारवादी चुप रहते हैं।
दिल्ली कथित मानवाधिकारवादियों का गढ़ है। हजारों किलोमीटर दूर गाजापट्टी पर हमास का कोई आतंकी मारा जाता है तो इनके कान तुरन्त खड़े हो जाते हैं, लेकिन दिल्ली से महज 60 किलोमीटर दूर मेवात से आने वाली हिन्दुओं की चित्कार इन्हें सुनाई नहीं देती है। उल्लेखनीय है कि मेवात (हरियाणा) एक मुस्लिम-बहुल क्षेत्र है। यहां भी हिन्दुओं के साथ वही हो रहा है,जो पाकिस्तान या बंगलादेश में हिन्दुओं के साथ हो रहा है। आयेदिन मेवात में हिन्दुओं के साथ मारपीट होती है,हिन्दू लड़कियों को मुसलमान बनाकर किसी मुस्लिम के साथ निकाह कर दिया जाता है,मन्दिरों पर हमले करके देव मूर्तियां तोड़ दी जा रही हैं। श्मशान भूमि पर कब्जा कर लिया जाता है। जब कोई हिन्दू इन सबका विरोध करता है तो उसकी दिनदहाड़े हत्या कर दी जाती है। राजनीतिक दबाव पर हत्यारों के विरुद्घ थाने में पहले एफआईआर दर्ज नहीं की जाती है। हिन्दुओं के विरोध करने पर एफआईआर दर्ज तो कर ली जाती है,किन्तु कोई कार्रवाई नहीं की जाती है। आरोपी खुलेआम घूमते हैं,किन्तु कोई मानवाधिकारवादी पुलिस से यह नहीं पूछने की जहमत उठाता है कि कार्रवाई क्यों नहीं हो रही है?
करीब डेढ़ वर्ष पहले की एक घटना है। मेवात के नूंह में होली से कुछ दिन पहले कुछ मुसलमानों ने होलिकादहन के स्थल पर कब्जा कर लिया था। इसका विरोध प्रदीप नामक एक व्यक्ति ने किया। मुस्लिमों ने गोली मारकर उसकी हत्या कर दी। थाने में एफआईआर दर्ज है, पर आज तक हत्यारों को पकड़ा तक नहीं गया है। नूंह के लोगों ने बताया कि प्रदीप के हत्यारे स्थानीय विधायक के साथ घूमते रहते हैं, किन्तु पुलिस उनको पकड़ने की हिम्मत नहीं कर पाती है। क्या यह मानवाधिकार की अवहेलना नहीं है? इधर निराश और भयभीत प्रदीप के घर वाले नूंह छोड़ चुके हैं। मेवात में शायद ही कोई ऐसा दिन बीतता होगा जब कोई हिन्दू परिवार मेवात से पलायन न करता होगा। मेवात के हिन्दुओं के अधिकारों की रक्षा नहीं होने से वे लोग अपनी जन्मभूमि छोड़ने को विवश हैं। उन हिन्दुओं की ओर कथित मानवाधिकारवादियों का ध्यान क्यों नहीं जाता है?
हिन्दुओं का नस्लीय सफाया
हाल ही में ‘क्वाइट केस अफ एथनिक क्लींनज़िंग’’ शीर्षक से एक पुस्तक आई है। इसके लेखक हैं रिचर्ड एल बेंकिन, जो अमरीकी हैं। इसमें तथ्यों के साथ लेखक ने यह बताया है कि किस प्रकार बंगलादेश में हिन्दुओं का सफाया किया जा रहा है। कुल 10 अध्यायों वाली इस पुस्तक को पढ़ने से अनेक ऐसे तथ्य बाहर आते हैं,जो यह बताते हैं कि बंगलादेश में हिन्दुओं का नामोनिशान मिटाने के लिए गहरी साजिश चल रही है।
इस पुस्तक को अक्षय प्रकाशन (2/18,अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली -110002) ने प्रकाशित किया है। पुस्तक की कीमत 360 रु. है।
इस पुस्तक के कुछ अंश जो अंग्रेजी में हैं—
After India’s 1947 partition, Hindus were a third of East Pakistan’s population; when East Pakistan became Bangladesh in 1971, they were less than a fifth; 30 years later under a tenth; and today fewer than eight percent. Bangladeshi Hindus face government tolerated murder, rape, abduction, forced conversion, land grabs, and more, including a 2009 pogrom behind a Dhaka police station. Yet, the world has remained silent—until now.
A Quiet Case of Ethnic Cleansing: the Murder of Bangladesh’s Hindus rips the cover off this atrocity with testimony by Hindus in Bangladesh and India; confrontations with their victimizers; and extensive research documenting a deliberate effort by the “moderate Muslim nation” of Bangladesh to kill, kick out, or convert Hindus; and the complicity of those entities that should be defending them. It is a call to action with practical solutions to end this quiet case of ethnic cleansing.
Dr. Richard Benkin burst onto the human rights scene in 2003 with a one-man campaign that freed a Bangladeshi journalist from imprisonment and torture for fighting radical Islam’s rise in Bangladesh and urging relations with Israel. Since then, Benkin has forced Bangladesh’s RAB to release an abductee unharmed, halted an anti-Israel conference at an official Australian building, and led the fight to stop the ethnic cleansing of Hindus in Bangladesh.
A sought after speaker and writer, Benkin has addressed audiences and published articles on four continents. He is the President and co-founder of Forcefield, a human rights NGO dedicated to defending the oppressed without regard to ideologies or political correctness, holds a doctorate from the University of Pennsylvania, has held a number of faculty and business positions, and serves on the Boards of several human rights organizations. He also serves as an expert witness in cases involving South Asian refugees.
साभार- साप्ताहिक पाञ्चजन्य से
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