Tuesday, December 24, 2024
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पावापुरी (फाजिल नगर) की ऐतिहासिक पहचान

एक निजी यात्रा के दौरान कुशीनगर के सुमाही खुर्द गांव
जाने का अवसर मिला। सुमाही खुर्द गाँव उत्तर प्रदेश के कुशी नगर जिले की कसया तहसील के फाजिल नगर ब्लाक के रामपुर उर्फ खूशहाल टोला ग्राम पंचायत में स्थित है। सुमही दो शब्दों से बना है। सु +माही में सु का मतलब सुंदर और माही का मतलब धरा होता है। इस प्रकार यह सुन्दर धरा वाली भूमि के रूप में जाना जाता रहा है। जिला मुख्यालय कुशीनगर सुमाही खुर्द से लगभग 29 किलोमीटर दूर है। मुस्लिम काल में एक जैसे कई गांव मिलते हैं। खुर्द ,बुजुर्ग और कलां को जोड़ते हुए
इनके नाम मिलते हैं। सुमही खुर्द का मतलब छोटे आकार का सुन्दर धरा है। सुमही बुजुर्ग का मतलब उम्र दराज या पुरानी आवादी वाला सुन्दर धरा गांव होता है।

ऐतिहासिक पावापुरी फाजिल नगर :-
मगध के हर्यक वंश के समय पावा प्राचीन भारत के मल्ल जनजाति का एक महत्वपूर्ण शहर उत्तर प्रदेश राज्य में कुशीनगर से लगभग 20 किलोमीटर (12 मील) दक्षिण पूर्व में फाजिलनगर राष्ट्रीय राजमार्ग 28 पर स्थित है। फाजिल का मतलब प्रख्यात श्रेष्ठ या गुणी होता है। गोरखपुर से इसकी दूरी 71 किमी (पूर्व दिशा में) है। फाजिल नगर को ‘पावापुरी’ भी कहा जाता है। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि जैन धर्म की वास्तविक ‘पावापुरी’ यही है ( नाकि बिहार में स्थित पावापुरी जहाँ महावीर स्वामी को निर्वाण प्राप्त हुआ था।) इसिलिए जैन श्रद्धालुओं ने यहाँ पर एक भव्य जैन मन्दिर का निर्माण कराया है।

पुरातत्व विभाग द्वारा इस संरक्षित स्मारक की खुदाई में प्राचीन काल का एक महल भी आज यहां देखा जा सकता है जो खुदाई के पूर्व मिट्टी का टीला हुआ करता था। ऐसा विश्वास किया जाता है कि कुशीनगर से वैशाली जाते समय महात्मा बुद्ध यहाँ रुके हुए थे और अपने एक शिष्य के घर भोजन किया था।

पालि त्रिपिटक के अनुसार यह मल्ल राजाओं की दूसरी राजधानी थी। यहाँ के मन्दिर में अति सुन्दर ‘मानस्तम्भ’ और चार सुन्दर मूर्तियाँ हैं। यहाँ दीपावली के अगले दिन एक मेला लगता है। कार्तिक पूर्णिमा को ‘निर्वाण महोत्सव’ की छटा देखने बहुत से तीर्थयात्री दूर दूर से आते हैं।

जैन ग्रंथ कल्पसूत्र के अनुसार महावीर ने पावा में एक वर्ष बिताया था। यहीं उन्होंने अपना प्रथम धर्म-प्रवचन किया था, इसी कारण इस नगरी को जैन संम्प्रदाय का सारनाथ माना जाता है। महावीर स्वामी द्वारा जैन संघ की स्थापना पावापुरी में ही की गई थी। फाजिलपुर को पावा नगर भी कहते हैं। यह स्थान उत्तर प्रदेश के कुशीनगर जनपद से 25 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यहाँ पर भगवान महावीर का एक मंदिर भी है।

चुन्दा स्तूप :-
चुन्दा कुमारपुत्त का घर हुआ करता था। यह भगवान बुद्ध का अनुयाई था। यहां पर एक स्तूप बना हुआ है। जब बुद्ध अपने अस्सीवें वर्ष में पहुँचे, तो उन्हें लगा कि इस दुनिया में उनका समय समाप्त हो रहा है। उस समय, महापरिनिब्बान सुत्त ( दीघ निकाय के सुत्त 16) के अनुसार , उन्होंने और उनके कुछ शिष्यों ने एक महीने की लंबी यात्रा की, जो उन्हें पाटलिपुत्त , बैसाली , भोगनगर और पावा होते हुए राजगृह से उनके अंतिम पड़ाव तक ले गई। यह स्थान पावा में था।

इस अवसर पर कुंडा सुत्त ( अंगुत्तर निकाय 6:46) का प्रचार किया गया था। उस समय, मल्लों ने अभी-अभी अपना नया सभा भवन तैयार किया था। उनके निमंत्रण पर, बुद्ध ने पहले यहां पधारे और फिर इसमें उपदेश देकर इसका अभिषेक किया। बुद्ध के बोलने के बाद, उनके प्रमुख शिष्यों में से एक, सारिपुत्र ने एकत्रित भिक्षुओं को संगीति सुत्त ( धम्म सुत्ता निकाय 33) का पाठ किया । भोजन के बाद, बुद्ध ने कक्कुत्था नदी (जिसे अब खानुआ नदी कहा जाता है ), को पार किया और कुशीनगर की अपनी अन्तिम यात्रा पूरी की। कुशीनगर आने के तुरंत बाद, बुद्ध ने परिनिर्वाण प्राप्त किया था । बुद्ध के दाह संस्कार के बाद , पावा के मल्लों ने उनके अवशेषों में हिस्सेदारी का दावा किया। द्रोण नाम के एक ब्राह्मण ने उनके दावे को आठ भागों में बांटकर संतुष्ट किया, और अवशेष के एक हिस्से पर पावा में एक स्तूप बनाया गया।
विषाक्त पदार्थ खाने से बुद्ध का निर्वाण हुआ था:-
पावा के निवासी चुंडा या कुंडा ने समूह को भोजन के लिए आमंत्रित किया ।जीवन के अंतिम समय में तथागत ने पावापुरी में ठहरकर चुंड का सूकर-माद्दव नाम का भोजन स्वीकार किया था। जिसके कारण अतिसार हो जाने से उनकी मृत्यु कुशीनगर पहुँचने पर हो गई थी। वे यहां चुंद कम्मारपुत्र नामक एक लुहार के आमों के वन में ठहरे हुए थे। उसने खाने में उन्हें मीठे चावल, रोटी व मद्दव दिया। बुद्ध ने मीठे चावल व रोटी तो औरों को दिलवा दिए पर मद्दव इसलिए किसी को नहीं दिया क्योंकि उन्होंने समझ लिया था, यह कोई अन्य पचा नहीं सकेगा। स्वयं उन्होंने भी जरा सा खाया। शेष जमीन में गड़वा दिया। इसको खाते ही वे बीमार हो गये थे। और उनकी मृत्यु हो गई। भारत में यह बात प्रचलित है की गौतम बुद्ध ने अपना आख़िरी भोजन के तौर पर सुअर का माँस खाया था ।

प्रसिद्ध भाषा वैज्ञानिक राजेंद्र प्रसाद सिंघ जी ने इस पर प्रश्न चिन्ह लगाया है । उन्होंने भाषा के ज़रिए यह बात साबित करने की कोशिश की है की यह बात सत्य नहीं है।
बुद्ध घोष ही थे जिन्होंने सूकर मद्दव का अर्थ सुअर का माँस कर दिया । सुकर मद्दव एक प्रकार की मशरूम भी होती है जिसपे सुअर जैसे बाल होते है । संभवतः उन्होंने मशरूम ही खाई थी । यह इससे भी सिद्ध होता है की पाली भाषा में सूक्र मद्दव का मतलब कोई वनस्पति या बल्क जो जमीन में उगता है ऐसा भी बौद्ध साहित्यों में उल्लेख मिलता है।

तथागत बुद्ध को अर्पित किया गया सूकर मद्दव संभवतः किसी विषैले जीव के मृत शरीर के अंशो पर उगा रहा होगा। जिसे चुंद जान न पाये हों किन्तु भोजनोपरान्त बुद्ध विषाक्तता को समझ गए । अतः किसी अन्य को अब ना परोसने के लिए चुंद से कहा।

यदुनंदन लाल लिखते है – बुद्ध ने सुअर कंद खायी थी। उत्तर भारत में सुगर कंद कहते हैं ।इसे सुअर बड़े चाव से खाते हैं। इसलिए सुअर कंद कहते हैं।

न्यू इन्साइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका (मार्को पीडिया भाग) में उल्लेखित है कि संभव है कि एक ग्रामीण व्यक्ति के घर कुछ खाने के कारण उनके पेट में दर्द शुरु हो गया। बुद्ध अपने शिष्यों के साथ कुशीनारा चल दिये। रास्ते में उन्होंने अपने शिष्य आनंद से कहा, ‘आनंद इस संधारी के चार तह करके बिठाओ। मैं थक गया हूं, लेटूंगा। आनंद मेरे लिए कुकुत्था नदी से पानी ले आओ।

बुद्ध ने फिर उस कुकुत्था नदी में खूब स्नान किया। उसके बाद वहीं रेत पर चीर बिछा कर लेट गए। कुछ देर आराम करने के बाद वह अब चलने लगे रास्ते में उन्होंने हिरण्यवती नदी पार की। अंत में कुशीनारा पहुंचे। यहां उनका कहना था कि, ‘मेरा जन्म दो शाल वृक्षों के मध्य हुआ था, अत: अन्त भी दो शाल वृक्षों के बीच में ही होगा। अब मेरा अंतिम समय आ गया है।’

आनंद को बहुत दु:ख हुआ। वे रोने लगे। बुद्ध को पता लगा तो उन्होंने उन्हें बुलवाया और कहा, ‘मैंने तुमसे पहले ही कहा था कि जो चीज उत्पन्न हुई है, वह मरती है। निर्वाण अनिवार्य और स्वाभाविक है। अत: रोते क्यों हो? बुद्ध ने आनंद से कहा कि मेरे मरने के बाद मुझे गुरु मान कर मत चलना।

उनके निर्वाण पर 6 दिनों तक लोग दर्शनों के लिए आते रहे। सातवें दिन शव को जलाया गया। फिर उनके अवशेषों पर मगध के राजा अजातशत्रु, कपिलवस्तु के शाक्यों और वैशाली के विच्छवियों आदि में भयंकर झगड़ा हुआ।

जब झगड़ा शांत नहीं हुआ तो द्रोण नामक ब्राह्मण ने समझौता कराया कि अवशेष आठ भागों में बांट लिये जाएं। ऐसा ही हुआ। आठ स्तूप आठ राज्यों में बनाकर अवशेष रखे गये। बताया जाता है कि बाद में अशोक ने उन्हें निकलवा कर 84000 स्तूपों में बांट दिया था।

असोगवा:-
फाजिल नगर ब्लाक में असोगवा नामक कई गांव हैं। यहां अशोक का बनवाया स्तूप संभावित है।इस पर शोध की आवश्कता है।

चेतियांव ( सठियांव ):-
कुशीनगर जिले में वर्तमान समय के चेतियांव में स्थित झारमटिया के रूप में जाना जाने वाला खंडहर का एक बड़ा कम ऊंचाई वाला टीला है। यह टीला वर्तमान थाने के पास है। वर्तमान समय में चेतियांव या सठियांव और फाजिल या फाजिलनगर दोनों एक दूसरे के पड़ौसी गांव है जो कभी एक ही जगह के दो भाग थे। यह एक प्राचीन नगर के अवशेष हैं । इस नगर को आधुनिक काल में चेतियांव अथवा सठियांव कहते हैं । यहां चैत्य रहा होगा। यहां चैत्य उपवन कभी रहा होगा। कार्लाइल ने इस गांव का जिक्र अपने वृतांत में किया है।

छहूं गांव :-
फाजिलनगर से तुर्कपट्टी के बीच 14 किलोमीटर के दायरे में आधा दर्जन से अधिक स्थान ऐसे हैं जहां से जब-तब भगवान बुद्घ, भगवान महावीर और गुप्तकालीन सभ्यता से जुड़ी वस्तुएं मिलती रहती हैं। कसया तहसील के तुर्कपट्टी क्षेत्र के छहूं गांव के एक टीले के आसपास लोग जब भी मिट्टी कटवाते समय प्राचीन मूर्तियां मिलती हैं। छहूं गांव में प्राचीन टीले का कुछ ही हिस्सा अब शेष बचा है। इस टीले को आसपास के लोगों ने काटकर खेत बना लिया है। चार दशक में यहां दो दर्जन मूर्तियां मिल चुकी हैं। परंतु संरक्षण के अभाव में अधिकांश का अब अता-पता नहीं है। बीते वर्ष अप्रैल में यहां मंदिर की बाउंड्री के लिए हो रही खुदाई के दौरान विभिन्न देवी देवताओं की सात मूर्तियां मिली थीं।

दो वर्ष में ही इस टीले से काटी गई मिट्टी से आठ मूर्तियां मिल चुकी हैं। परंतु यहां मिली मूर्तियों को भी गांव के एक अधूरे मंदिर में दीवार से जोड़कर रखा गया है।

उस्मानपुर वीरभारी टीला :-
फाजिलनगर क्षेत्र के सठियांव और उस्मानपुर वीरभारी के टीलों से मिले प्रमाण के बाद फाजिलनगर को ही भगवान बुद्घ के समकालीन व जैन धर्म के प्रवर्तक भगवान महावीर का परिनिर्वाण स्थल पावा माना गया। फाजिलनगर से छह किलोमीटर और कुशीनगर से 20 किलोमीटर दूर तुर्कपट्टी में भगवान बुद्घ की प्रतिमा मिली जिसे गुप्तकालीन माना गया।

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण का प्रयास :-
भारतीय पुरातत्व विभाग ने कुशीनगर के महापरिनिर्वाण मंदिर परिसर, रामाभार स्तूप परिसर, माथाकुंवर मंदिर परिसर, अनिरुद्घवां का टीला, पडरौना नगर के छावनी का टीला, फाजिलनगर कोट, सठियांव का स्तूप, उस्मानपुर वीरभारी का टीला को संरक्षित घोषित कर दिया। इनमे से केवल कुशीनगर के संरक्षित स्थानों की ही खुदाई पूरी हुई। बाकी जगहों को पुरातत्व विभाग ने संरक्षित घोषित कर छोड़ रखा है। यदि इसकी खुदाई हो तो और भी प्राचीन पुरावशेष मिल सकते हैं।

(लेखक पुरातत्व से जुड़े विषयों पर लिखते हैं और पुरातत्व संग्रहालय में सेवाएं दे चुके हैं)

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