राजस्थान के करौली जिले में कैला देवी मंदिर है। इस मंदिर में आज से कुछ दशक पहले धर्म के नाम पर भैंसे-बकरों की बलि दी जाती थी। अज्ञानियों द्वारा किया जाने वाला यह कृत्य न तो धर्म अनुकूल था न ही शास्त्रों के अनुकूल था। फिर भी परम्परा के नाम पर इस अन्धविश्वास को प्रोत्साहित किया जा रहा था। भरतपुर जिले में आर्य सन्यासी स्वामी सत्यानंद जी वैदिक धर्म के प्रचार में लगे हुए थे। स्वामी जी को उनके शिष्य ब्रह्मचारी ओमदत्त जी ने कैला मंदिर में होने वाले पशुबलि के विषय में जानकारी दी। स्वामी जी का अंतर्मन दुःख से कराह उठा। परमात्मा की मूक प्रजा की यह नृशंस हत्या! धर्म के नाम पर यह पापाचार! स्वामी जी ने इस अत्याचार को समाप्त करने का दृढ़ संकल्प लिया। फरवरी 1960 में हिण्डौन आर्य समाज में इस विषय पर सभा हुई। सभी ने इस प्रस्ताव का अनुमोदन किया और तन-मन -धन से सहयोग देने का वचन दिया। स्वामी जी आर्यसमाज के प्राण श्री प्रह्लादकुमार जी ( श्री प्रभाकर देव आर्य, संस्थापक हितकारी प्रकाशन समिति हिण्डौन के पिताजी) के साथ सवाई माधोपुर, गंगापुर, मथुरा, हरिद्वार, भरतपुर, बल्लभगढ़, भुसावर, झिरना आदि अनेक स्थानों पर इस विषय में आर्यों को जागरूक किया। करौली में आर्यों के ठहरने के लिये कोई स्थान नहीं था। आर्यसमाज को अपने प्रचार के लिए कोई स्थान उपलब्ध नहीं था। इसलिए वेद मंदिर की स्थापना का निर्णय लिया गया।
स्वामी जी के दामाद श्री सुरेशचंद्र जी एवं अन्य आर्यों ने भवन के लिए धन आदि की व्यवस्था की जिससे वेद मंदिर का निर्माण हुआ। 26 जनवरी 1961 को स्वामी आनन्दभिक्षु जी की सम्मति से यह निर्णय लिया गया कि हमें 3 प्रकार से यह कार्य करना चाहिये। प्रचार, अनशन और सत्याग्रह। 8 फरवरी 1961 को आर्यसमाज भरतपुर में सभा हुई और पैदल यात्रा की योजना बनी। 23 फरवरी को भरतपुर, बयाना, हिण्डौन से कैला देवी की पदयात्रा आरम्भ हुई जो वेद मंदिर में जाकर संपन्न हुई। 16 मार्च को वेद मंदिर में यजुर्वेद यज्ञ प्रारम्भ हुआ और वेद मंदिर का उद्घाटन किया गया।
14 मार्च से 25 मार्च को पूज्य आनन्दभिक्षु जी की अध्यक्षता में पशुबलि के विरोध में डटकर प्रचार हुआ। लगभग 100 आर्य इस कार्य में लगे। प्रतिदिन जुलूस निकाला जाता और पुरुष एवं नारी बाज़ारों में भजन गाते हुए ध्वनि उद्घोष (माइक ) से प्रचार करते। प्रतिदिन यज्ञ-हवन और प्रवचन होते। वैदिक साहित्य का वितरण किया जाता। कैलादेवी के मंदिर के सामने ही श्री स्वामी शिवानन्द जी और श्री मुंशी पन्नालाल जी ने आमरण अनशन आरम्भ कर दिया। अनशन और प्रचार का व्यापक प्रभाव हुआ। ग्रामों के पंचों के प्रतिनिधियों द्वारा यह कुकृत्य मिटाने का विश्वास दिलाने पर अनशन तोड़ा गया। एक शिष्ट मण्डल पशुबलि विरोध का प्रस्ताव लेकर करौली के राजा के पास गया। राजा जी ने भी आर्यसमाज का प्रस्ताव स्वीकार किया और बलि के लाया गया भैंसा वापिस भेज दिया। जनता ने भी आर्यों के प्रस्ताव का स्वीकार करना आरम्भ कर दिया और लोग बकरों को बिना बलि दिए वापिस लेकर जाने लगे। अंततः: राज्य सरकार की ओर से धार्मिक स्थल पर पशुबलि को प्रतिबंधित कर दिया गया। इस प्रकार से स्वामी जी के मार्गदर्शन में चलाया गया यह आर्यों का सत्याग्रह सफल हुआ।
धर्म और परम्परा के नाम पर अन्धविश्वास के निवारण के लिए आर्यों द्वारा किये गये पुरुषार्थ को नमन।
(लेखक अध्यात्मिक व धार्मिक विषयों पर शोधपूर्ण लेख लिखते हैं)